एक परिचिता को उसे ऋषिमुख के कुछ अंक भिजवाने थे, तभी नैनी
अपने आप ही आ गयी. वह परिचिता जो थोड़ी सी नाराज लगी थीं, खुश हो जाएँगी. आज सुबह
से सिर में हल्का दर्द है. वह साक्षी होकर देख रही है. दर्द कितना भी ज्यादा हो या
कम हो वह मुस्कुरा सकती है. स्थिति कैसी भी हो वह भीतर सदा एक सी रहने में समर्थ
है. ये सब बाहर जो घट रहा है एक नाटक ही तो है. रात को तेज वर्षा होती है, दोपहर
को तेज धूप निकलती है. भगवान भी मजाक करने में पीछे नहीं रहते. अब स्वाइन फ्लू का
हौवा फैला दिया है, सारे लोग डरे हुए हैं. टीवी पर ‘आपकी अंतरा’ धारावाहिक आ रहा है. छोटी सी अंतरा उसे बहुत अच्छी लगती
है, सो देखती है. अन्तरा ने विद्या को अपनी माँ स्वीकार कर लिया है, विद्या भी उसे
सुंदर चित्र बनाते देखकर प्रभावित हुई है. आज दोपहर जून तिनसुकिया से दस अनानास
लेकर आए. वह पिछले दो-तीन महीनों से माँ के लिए वह हर वस्तु ला रहे हैं जो कोई भी
उन्हें कह देता है कि उन्हें लाभ देगी. वह जीवन भर जो माँ के लिए नहीं कर पाए अब
करना चाहते हैं. वह उन्हें नया जीवन प्रदान कर रहे हैं.
साक्षी भाव अब भी है पर मन
की पीड़ा साफ दिखाई दे रही है. मन जो सदा नकारात्मकता पर ही जीता है, जो सदा अभाव
को ही देखता है. गुरूजी कहते हैं जब प्राण ऊर्जा कम होती है तभी मन अवसाद का शिकार
होता है. जून की पीठ में भी पिछले तीन-चार दिनों से दर्द है, उनकी भी प्राण ऊर्जा
घट गयी है लेकिन दिन में मेहमानों के सामने वह बहुत प्रसन्न नजर आ रहे था. उसे
लगता है मानव के भीतर दो व्यक्ति रहते हैं, एक वह जो बाहर से वह दिखाता है एक जो
भीतर से वह है. वास्तव में भीतर वाला ही वह है, बाहर तो मुखौटा लगा लेता है. जैसे
उसके भीतर विषैले सर्प हैं जो कभी भी विष की फुफकार छोड़ कर मन को जहरीला बना देते
हैं, वैसे ही क्रोध के सर्प जून के मन को भी अशांत बना रहे होंगे. लेकिन जैसे कोई व्यक्ति
आग में हाथ डाल दे और फिर चिल्लाये वैसे ही वे भी स्वयं ही इस विष का पान करते हैं.
वे चाहें तो एक क्षण में इसे झटक कर अलग हो सकते हैं. हर समय इच्छा उनकी ही होती
है कि वे किसे चुनते हैं !
साक्षी भाव में बने रहकर मन
में उठते विचारों को जब वह देखती है तो कई बार आश्चर्य होता है. मन कितने
राग-द्वेष पाले हुए हैं, कितना विकार छिपे हैं अब भी उसके गर्भ में. आज गीता ज्ञान
में सद्गुरू ने बताया कि अपने सारे कर्मों को समर्पित कर देने से कर्मों से मुक्त
हुआ जाता है. मन, वाणी व काया से होने वाला कोई भी कर्म यदि कोई कर्ता भाव से करे तो
भोक्ता बनना ही होगा. सुबह से शाम तक मनसा, वाचा, कर्मणा जितने भी कर्म उसने किये
हैं, जो इस क्षण कर रही है तथा जो भविष्य में उससे होने वाले हैं, वे सभी वह
परमात्मा को समर्पित करती है. इस जन्म के पूर्व पिछले जन्मों के सारे कर्म भी !
पिछले किसी जन्म में उसने किसी की वस्तु ली और इस जन्म में भी वह उसे मिली लेकिन
जिसकी वह वस्तु थी उसकी भी नजर उस पर लगी है. अब उसे उस वस्तु को बचाने की इच्छा
होती है, क्योंकि यह भी पता है कि कभी यह वस्तु उसके अधिकार में थी, किन्तु इतना
भी ज्ञान है कि इस जन्म में पूर्ण अधिकारी बनकर उसे प्राप्त किया है. भय व्यर्थ
है, उसे दूर करना होगा तथा अपने सारे अवगुणों को परमात्मा को समर्पित करना होगा.
इस धरती पर आने का मकसद सदा सामने रखना होगा. स्वयं को जागृत रखना होगा जिससे कोई
भी पराया न रहे, मन आत्मा में विश्राम पाए तो भीतर का द्वंद्व समाप्त हो जाये. फिर
भी यदि संस्कारों के वश मन विचलित हो भी जाये तो उसे साक्षी भाव से देखना होगा !
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