Friday, August 21, 2015

मलेशिया का मौसम


अभी-अभी नैनी ने कुछ कहा पर वह ठीक से सुन नहीं सकी और कुछ और समझ कर उस बात का जवाब दिया. उसका ध्यान पूरी तरह से उस पत्र में था जो वह सद्गुरु को लिख रही थी. आज सुबह एक परिचित का फोन आया, तीन दिनों के लिए उन्हें स्थान मिल जायेगा. कोई शुभ कार्य करने जब कोई निकलता है तो प्रकृति उसमें सहायता करने को आ जाती है. उसे लगता है उनका यह सेवा प्रोजेक्ट बहुत सफल होगा. ईश्वर के लिए किया गया कार्य कभी असफल हो ही नहीं सकता. कुछ देर पहले जून का फोन आया था, सुबह ससुराल से पिताजी का फोन भी आया, टिकट कराने की बात कह रहे थे. आज सुबह चिड़ियों की आवाज ने जगाया, स्वप्न में देखा( या वह तंद्रा थी) कि नीले आकाश में गुरूजी आगे-आगे तथा वह पीछे-पीछे चल रही है. मौन है प्रकृति ! मौन से ही ओंकार की उत्पत्ति हुई, उस दिन यह बात सुनी, यह बात सीधे दिल में उतर गयी है, मौन भाने लगा है..भीतर का मौन, कभी-कभी जब कोई विचार नहीं रहता वह इस मौन को सुनती है. यही वह शांति है, जिसे वह अनुभव करती आई है उसमें से फिर आनंद फूटता है, सभी क्यों नहीं इस आनंद को चख पाते, कितना सहज है यह पर जिसे नहीं मिला उसके लिए उतना ही कठिन ! तभी तो कहते हैं ईश्वर निकटतम है और दूरस्थ भी ! वह तो जैसे कृत-कृत्य हो गयी है. कृतज्ञता से कभी-कभी आँखें भर आती हैं. शास्त्रों के वचन कितने सच्चे लगते हैं. संतजन प्रिय लगते हैं और परमात्मा अपने लगते हैं, यही तो भक्ति है न !
बाहर तपन है पर भीतर शीतलता है ! जिसे तृष्णा की आग नहीं जलाती वह सदा ही शीतलता का अनुभव करता है. आज सुबह उठी तो मन-प्राण ध्यान से पूर्ण थे, आज एकादशी है, मन भोजन का ध्यान तो कर रहा है पर फलाहार का ही. मन का निरोध करना तो सम्भव नहीं लगता हाँ उसकी धारा को एक गति अवश्य दी जा सकती है. कल ध्यान करते समय मन में वह घटनाएँ मुखर हुईं जिनमें अन्यों का दोष देखा था. अपनी गलती तब नजर नहीं आई थी, पर अब स्पष्ट दिखी. भीतर की गंदगी को बाहर कर ध्यान पवित्र कर देता है. उस दिन जून जो इतना क्रोधित हुए तो बिलकुल सही था. उसने श्रद्धा का दामन छोड़ दिया था, अपनी अस्वस्थता से कितनी शीघ्र घबरा गयी थी. धैर्य का साथ छोड़ देने से वे बाहरी वस्तुओं, व्यक्तियों, परिस्थितियों को अपने सुख-दुःख के लिए दोषी मानने लगते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि उनके स्वयं के कर्म ही उन्हें सुखी-दुखी बनाते हैं, फिर जिन्हें वे स्वयं से भी अधिक प्रेम करते हैं, उन्हें अपनी पीड़ा के लिए ( अपनी तुच्छ पीड़ा के लिए ) दोषी ठहराना तो निहायत ही घटिया काम है. वह कितना नीचे गिर गयी थी, ईश्वर ने सब देखा होगा, हंसा होगा वह कि उससे प्रेम का दम भरने वाली स्वयं का दर्द नहीं सह पायी. इस जन्म में जिस किसी को भी उसने जितनी भी बार दुखी किया है, सबमें उसका दोष स्पष्ट रूप से था, वह सभी से क्षमा मांगती है ! अपने उस दोष के कारण ही उसने स्वयं भी बहुत दुःख उठाया है, अब और नहीं..बस..यह बात सदा याद रहे !

हँसी आती है अपनी मूर्खता पर कि अपने जिस दुःख को वह इतना महत्व दे रही थी, वह तो कुछ था ही नहीं, उसकी तुलना में औरों के दुःख कितने बड़े थे पर वे तब भी मुस्कुरा रहे थे. उसका अहंकार ही तुच्छ से दुःख को बड़ा करके दिखाता है बल्कि जहाँ नहीं भी होता वहीं खड़ा कर लेता है. आज ब्यूटी पार्लर में काम करने वाली एक लड़की की बातें सुनकर लगा कि वह अपने सारे दुखों के बीच कितनी शांत है. उसके पिता कैंसंर के मरीज हैं, मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं. कल उसने जून से कहा कि ठीक ही चल रहा है, वह सोच रहे होंगे ऐसा क्या हो गया, आज फोन आने पर कहेगी कि सब कुछ बिलकुल ठीक है. वहाँ का मौसम कैसा है ? खाना कैसा मिलता है ? शाम को क्या करते हैं? तथा तबियत कैसी है ? उसने उनके बारे में कुछ पूछा ही नहीं, अपने तथा नन्हे के बारे में ही बताती रही. जून घर से दूर हैं, उन्हें उससे ज्यादा सम्भल कर चलना होता होगा. आज ध्यान में अद्भुत अनुभव हुआ, उससे पहले सद्गुरु का स्मरण हुआ और मन कृतज्ञता से भर  गया, कितना विश्वास है उनके भीतर, कितनी सहजता, कितना अपनापन, कितना प्रेम..उन्हें सुनना एक अनोखा अनुभव है, वह शांति का सागर हैं, सुबह उठी तो कैसी बेचैनी थी कि अभी तक सत्य का भान नहीं हुआ, पर उन्होंने बताया कि जो भी विकार हैं उन्हें देखते रहें, निर्मूल करने जायेंगे तो वे और दृढ़ होंगे, भीतर अपने आप से जुड़ते जाना है तो जो व्यर्थ है वह छूटता जायेगा अपने आप ही ! क्रोध के प्रति क्रोध का आना भी बंद करना होगा. प्रकाश, प्रवृत्ति तथा मोह के उत्पन्न होने पर भी जो न तो हर्षित होता है न उद्ग्विन होता है, वही कृष्ण के शब्दों में स्थिरमति है ! 

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