आज शिवरात्रि है, शिवतत्व की महिमा का वर्णन सद्गुरु ने किया. वह शिवतत्व सृष्टि के कण-कण में है. उसे
भीतर जगाना ही वास्तविक पूजा है. खाली मन में वह स्वतः ही प्रकट हो जाता है. वह
कल्याणकारी है, शाश्वत है. उसे एक बार अनुभव कर लेने के बाद वह कभी विस्मृत नहीं
होता. उसके रहस्य धीरे-धीरे खुलते हैं पर कभी समाप्त नहीं होते. वह जान कर भी नहीं
जाना जाता’. उसने मन ही मन सद्गुरु से कहा वे अगले महीने आश्रम आ रहे हैं, वे
उन्हें मिलेंगे न !
फिर एक अन्तराल..पहले
तीन दिन एक सखी की बिटिया को गणित पढ़ाया, फिर शनि-इतवार. वैसे कोई कार्य यदि करना
है तो समय निकाला जा सकता है पर आजकल सहज प्रेरणा होने पर ही कुछ कर पाती है, अब
किसी भी कार्य से कुछ पाना है, ऐसी भावना नहीं रह गयी है, बस जैसे प्रकृति के सभी
कार्य अपने-आप ही हो रहे हैं, वैसे ही मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रियों के कार्य सहज
रूप से होते हैं, क्योंकि वे भी प्रकृति का ही अंग हैं, और वह है चेतन, जो स्वयं
में पूर्ण है ! उसे लगने लगा है कि अब से उसके जीवन में जो भी घटने वाला है, वह
अपने आप ही घटेगा. उसे उसमें न तिलमात्र भी बढ़ाना है न तिल मात्र भी घटाना है.
आज बाहर गिट्टियां
डाली गयी हैं, नया कमरा बनने वाला है, नींव के लिए तैयारी हो रही है, पिछले हफ्ते
ही काम शुरू हुआ फिर वर्षा के कारण रुक गया. अगले महीने उन्हें यात्रा पर जाना है,
बंगलुरु में आश्रम, तथा नन्हे के कालेज, उसके आगे केरल भी. कल घर पर बात हुई तो
पता चला छोटे भाई को पीलिया हो गया है, उसे कुछ दिन घर पर रहकर आराम करना होगा. कल
उन्होंने व्रत भी रखा था पर दिन भर फलाहार चलता रहा. जून का व्यवहार फिर पूर्ववत
हो गया है. इंसान कितना भी बड़ा क्यों न हो जाये उसके भीतर का बच्चा हमेशा वैसा ही
बना रहता है. यदि कोई बड़ा होना ही न चाहे तो कोई क्या कर सकता है !
जून ने यात्रा का
सारा कार्यक्रम तय कर लिया है. सद्गुरु ने इतना बड़ा आयोजन किया है, उनका उद्देश्य
महान है, वह सारे जगत की चिंता कर सकते हैं पर उसे न तो अपनी चिंता करनी है न ही
जगत की, वैसे सद्गुरु भी सभी कुछ अविशिष्ट रहकर नहीं कर सकते. जब तक यह देह है तब
तक प्रारब्ध के अनुसार जो फल मिलने वाला है, उन्हें भी कर्म तो करने ही पड़ेंगे,
हाँ वे उन कर्मों के भोक्ता नहीं बनेंगे.
मार्च का पहला
सोमवार, मौसम सुहाना है बाहर भी और भीतर भी. रात को तूफान आया था वर्षा हुई
गर्जन-तर्जन के साथ और अब सभी कुछ धुला-धुला सा लग रहा है, शीतलता का अहसास लिए पवित्रता
जैसे घर करती जा रही है. आजकल नियमित लिखने का क्रम छूटता जा रहा है, मन सदा मस्ती
में डूबा रहता है, ऐसी खुमारी में.. जिसको कहा तो जा नहीं सकता, वह ऐसी अछूती है
इतनी निर्दोष कि उसको महसूस ही किया जा सकता है. आजकल उसके मन की तरह तन भी बिलकुल
खुला-खुला अनुभव करता है, कोई बंधन नहीं, कोई आत्मग्लानि नहीं, कोई अपराध भावना
नहीं, कोई उलाहना नहीं, कोई शिकायत नहीं, भीतर कोई बाधा नहीं, मन के दरवाजे जैसे
पूरी तरह खुल गये हैं. वह आर-पार देख सकती है, मन के पार विस्तीर्ण आत्मा है पावन,
आनंद से भरी और मन के इधर तन है, निष्पाप, कोई कलंक नहीं है. मन स्वयं कभी-कभी
पूर्व संस्कारों के कारण पल भर के लिए भटकता भी है तो वह झट उसे पार कर आत्मा में
चली जाती है और बस जैसे जादू हो जाता है, उसके भीतर की इस अनोखी भावदशा को उसका
ईश्वर जानता है या उसका सद्गुरु ! आज सुबह नींद से उसने उसे जगाया, उसे अपनी बाँह
को ठेले जाने का अहसास हुआ और वह जाग गयी. कोई नहीं था, सो वही होगा उसकी आत्मा का
मीत, मन का मीत तो स्वयं सो रहा था !
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