आज सुबह पाँच बजे से थोड़ा पहले चिड़ियों की चहचहाहट से उठी. कल
शाम सत्संग से लौटी तो जून क्लब में ही थे, उन्हें रात को देर से घर आना था. अकेले
भोजन किया और जन्मदिन की कविता लिखी. तेजपुर में एडवांस कोर्स होने वाला है, उसने
पूछने से पहले ही कल्पना कर ली थी कि जून का जवाब नकारात्मक रहने वाला है, सो सुबह
उनकी सहज रूप से कही बात कि कोई और जा रहा है या नहीं, उसे नागवार गुजरी, उसने कहा
किसी के जाने या न जाने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. मन ने प्रतिक्रिया की और शायद
उसी का असर है कि मन उत्साहित नहीं है, अब जो वस्त्र बिलकुल स्वच्छ हो उस पर हल्का
सा दाग भी चुभता है, जो मन पूरी तरह शांत रहने का आदी हो उसे जरा सी भी बेचैनी
नहीं सुहाती. उसके भीतर जो डर है कि उन्हें नाराज करके वह नहीं जी सकती, शायद इस
बेचैनी का कारण वही है. जहाँ प्रेम होता है वहँ डर नहीं होना चाहिए, जहाँ डर है वहाँ
प्रेम नहीं है. यह डर उसके अवचेतन में बैठ गया है. उसे यदि मुक्त होना है तो इससे
छुटकारा पाना होगा. ईश्वर है, सद्गुरु है, ज्ञान है, पर भीतर तब भी अँधेरा है तो
इसका अर्थ है कि वे सब कुछ नहीं कर सकते, अपने भीतर का अंधकार स्वयं ही दूर करना
है, उन्हें देखकर प्रेरणा ले सकते हैं पर यदि कोई यह सोचे कि उनके सारे दुखों का
अंत कृपा से ही हो जायेगा तो यह भूल है.
भीतर ही भीतर ऐसा
लगता है कि कहीं कुछ अधूरा रह गया है. सद्गुरु ने जो कहा वह उस पर नहीं चल रही.
लेकिन यह आत्मग्लानि तो सेवा न करने से ज्यादा घातक है. इससे बचने को तो उन्होंने
विशेष तौर पर कहा है. जब अवसर मिले तब सेवा के कार्य से पीछे न हटना भी तो सेवा
है. स्वयं से परे जो भी है उसका कार्य करना संसार की सेवा ही कही जाएगी, ध्यान भी
उसमें आ जायेगा. आज योग वसिष्ठ में उद्दालक का चरित्र पढ़ा, कितनी अद्भुत पुस्तक है
यह, स्वामी रामसुखदास ने कहा कि जड़ता से संबंध तोडना है तो चित्र से मोह क्यों ?
अब भविष्य में फोटो नहीं खिंचाएगी ?
‘मन मस्त हुआ तब
क्यों बोले, तेरा साहिब है घर माहिं बाहर नैना क्यों खोले ?’ जब तक संसार के
अच्छे-बुरे कहने की परवाह थी तब तक भीतर की मस्ती का पता नहीं था. उसकी एक सखी ने
कहा, अब उसके जीवन में सब स्पष्ट है..वह इसी वर्ष एक सन्तान को गोद ले रही है. उसे
खुश देखकर नूना को बहुत ख़ुशी हुई, उसका ज्ञान टिका तरहे ऐसा उसने प्रार्थना की.
आज सुबह भी चिड़ियों
ने जगाया, रात सोने में देर हुई. कल दोपहर लेख लिख लिया आज उसे टाइप करना आरम्भ
किया है. शाम को एक परिचित वृद्ध महिला आने वाली हैं, उससे पहले शाम के सब काम
खत्म करने हैं. अभी चार बजने को हैं, कुछ देर पहले दीदी से बात की, जीजाजी का
स्वास्थ्य कुछ दिन पहले बिगड़ गया था, अब ठीक है. उन्होंने याद दिलाया कि सद्गुरु
के प्रति उसके मन में कितनी भक्ति से भरी भावनाएं हैं. आजकल वह अपने मन को देख रही
है, वह ज्यादा समय जगत में खोया रहता है, वैसे उसे परेशान नहीं कर रहा और न ही
स्वयं है. भीतर एक अलग ही वातावरण बन गया है, जहाँ अब दो नहीं हैं. गुरू और ईश्वर
जो पहले जुदा प्रतीत होते थे कि उनसे प्रेम किया जाये अब कोई भेद ही नहीं लगता,
जैसे कोई तलाश पूरी हो गईं है. जैसे जो जानना था जान लिया है. एक तृप्ति का अहसास
हो रहा है. यह भावना बिलकुल अलग है, पहले भी तृप्ति का अहसास होता रहा है पर वह भिन्न
भाव था. सद्गुरु ने ही उसके मन पर कोई जादू किया है, कोई असर डाला है. विरह के दिन
जैसे समाप्त हो गये हैं और मिलन की शांत धारा में मन बह रहा है. जून और नन्हा
दोनों से रात को बात होगी. वे उसे छोड़ने गये हैं. आज बहुत दिनों बाद धूप निकली है,
दो-दो माली बगीचे में काम कर रहे हैं, आज मजदूर कमरा बनाने नहीं आये. लग रहा है
जैसे जीवन में एक ठहराव आ गया है, पर सुबह सद्गुरु को भजन गाते देखकर कदम थिरके
जरूर थे !
आपकी इस पोस्ट को शनिवार, ०८ अगस्त, २०१५ की बुलेटिन - "पश्चाताप के आंसू" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद। जय हो - मंगलमय हो - हर हर महादेव।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
ReplyDeleteसुंदर पोस्ट ।
ReplyDeletebahut badhiya ji
ReplyDeleteसुंदर .बेह्तरीन अभिव्यक्ति
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