Monday, May 11, 2015

मौन का बल


वह पंचकोश नहीं है, पंच प्राण भी नहीं है, वह उस परमात्मा का अंश है, अभी प्रज्ञा उतनी निर्मल नहीं है जिसमें उस आत्मा का दर्शन सदा होता रहे, लेकिन यह शरीर छूटे इसके पूर्व इसका उपयोग परमात्म दर्शन के लिए कर लेना है. आज सद्गुरु ने मन्दाग्नि दूर करने का एक अच्छा उपाय बताया, वज्रासन में बैठकर, शस बाहर निकल कर पेट  आगे–पीछे करना है. आजकल जून भी सत्संग में रूचि लेने लगे हैं. ईश्वर के प्रति प्रेम ऐसे ही तो बढ़ता है. धीरे-धीरे कोई उनकी महिमा सुनता है, उनके बारे में पढ़ता है तो मन में और जानने की जिज्ञासा होती है. जो उन्हें प्रेम करता है उसे वह अपनी खबर स्वयं देते हैं. उन्होंने वचन दिया है की बुद्धि योग प्रदान करेंगे, उसे उन पर पूर्ण विश्वास है, स्वयं पर भी उन्ही के कारण भरोसा है. बरसों से जो आग धीरे-धीरे सुलग रही थी, गुरू के ज्ञान की चिंगारी से पूर्ण रूप से जल उठी है. अब तो अज्ञान समाप्त होना ही चाहिए, ईश्वर दर्शन होना ही चाहिए. इससे कम कुछ भी नहीं, मन स्थिर है, साक्षी भाव को दृढ़ करते जाना है. वह जितना कठिन है उतना ही सरल भी. उसका यह परम सौभाग्य है कि सुबह ही सत्संग मिलता है.

हर क्षण मन पर नजर रखनी होगी, मन ही बांधता है और मन ही मुक्त करता है. कृष्ण के चरणों में अंकुश का चिह्न है, ऐसा ही अंकुश मन के लिए चाहिए अर्थात भगवान के श्रीचरण ही उसके मन पर अंकुश लगा सकते हैं. अपने प्रयत्नों से वे हार जाते हैं और मन के बहकावे में आ जाते हैं. आज उपवास का दिन है अर्थात ईश्वर के निकट बैठने का दिन, आज सुबह दो मिनट के लिए ही सही उसने मन के कहने पर टीवी देखने की तृष्णा को बढ़ावा दिया, जबकि उस समय उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी. ऐसा भी नहीं है कि उससे विशेष हानि हुई हो पर बात नियन्त्रण की है. उन क्षणों में वह स्वयं को भुला बैठी थी. भक्ति का मार्ग एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, अन्यथा मंजिल एक मृगतृष्णा ही रह जाएगी.


अज सुबह अभी उसने बिछौना छोड़ा भी नहीं था, उठकर सुमिरन कर रही थी कि कृष्ण की छवि मन में कौंध गयी, अत्यंत सुंदर मोहक रूप कृष्ण का अपने आप दिखा. कल शाम से ही उसका मन शिकायती हो गया था कि अब दर्शन नहीं होता कि...और वह.. उसके मन की भावना को समझ कर भक्ति के मार्ग पर उसे पुनः दृढ़ करने के लिए आते हैं. कृतज्ञता से आखें भर आती हैं. आज क्रिया के दौरान बचपन की कुछ ऐसी यादें हो आयीं जो सुखद नहीं हैं, न जाने कैसे-कैसे रहस्य मन छिपाए रहता है संसार से, पर कृष्ण से कुछ भी छिपा नहीं है, वह अतीत भी जानते हैं और हर पल की खबर रखते हैं. उनके आश्रय में आने के बाद मन ठहरना सीखता है. वह ज्ञान देते हैं, निष्काम कर्म करना सिखाते हैं और प्रेम करना तो कोई उनसे सीखे. वह तब, जब सहायता की कोई उम्मीद नजर नहीं आती प्रेम भरे हाथों से थाम लेते हैं, सारा दुःख हर लेते हैं, हल्का कर देते हैं, ऐसे ईश्वर को त्याग कर इस मिथ्या संसार में जो मन लगाये वह मूर्ख ही होगा. परमात्मा ने कितनी मधुर स्मृतियाँ दी हैं पर उन्हें न याद कर कोई संसार के दुखों को रोता है. आज टीवी पर सद्गुरु को देखा, एडवांस कोर्स ले रहे थे, कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग जो सीधे गुरूजी से ही ज्ञान पा रहे थे. उन्होंने कहा प्रसन्न मौन में ही सच्ची भक्ति है, इधर-उधर की बातें न तो मन में भरनी हैं न भीतर का अपरिपक्व मन बाहर लाना है. वे कहते हैं, मौन में वाणी का बल है, मौन में ही मन का भी बल है अर्थात विचारों का, जब मन स्थिर होता है तब कोई जो चाहता है वही विचार मन में आता है, अन्यथा बिन बुलाये विचार शांति को भंग करते हैं. कृष्ण ही उसके सहायक हैं और गुरू की कृपा !    

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