Wednesday, May 6, 2015

अवतारों की कथाएं


आज सुबह सुबह बाइबिल की घटनाओं से जुड़ा एक स्वप्न देखा, वह प्रभु को पुकार रही है, जैसे प्रेरित पुकारते थे और वह सारे कष्टों को हर लेता है. कैसा अद्भुत आनंद है ईश्वर में जो निरंतर झरता ही रहता है. उसके कानों में एक झींगुर के गीत सी एक ध्वनि हमेशा गूँजती रहती है. कभी-कभी चिड़ियों के कूजने की आवाज भी और यह हर पल उसे उसकी याद दिलाती है. आज टीवी पर श्रीश्री को भी देखा, सुना. अवतारों की जो कथा उन्होंने उस दिन आरम्भ की थी, आज पूर्ण कर दी. राम अवतार में ईश्वर ने मर्यादा का पालन करना सिखाया तो कृष्ण अवतार में उत्सव मनाना. फिर बुद्ध अवतार में मौन रहकर प्रज्ञा की खोज. कल्कि अवतार यानि वर्तमान में रहते हुए हृदय से परायेपन की भावना का नाश करना. साधना के द्वारा जब हृदय में इतना प्रेम जग जाये कि कोई दूसरा लगे ही नहीं, सभी अपने ही लगें तो समझना चाहिए कि हृदय में कल्कि अवतार हुआ है. सारे अवतार मानव के भीतर भी होते हैं. उन्होंने कितने सरल शब्दों में बताया, कृष्ण संतों के हृदय रूपी नवनीत को चुराते हैं. बाबाजी ने आज बहुत हँसाया, वह इतनी अच्छी राजस्थानी भाषा बोलते हैं. मस्ती से छलकती हुई उनकी वाणी सुनकर ईश्वर की निकटता का अहसास होता है. देहभाव से मुक्त कर वह आत्मभाव में स्थित कर देते हैं. संतों के गुणों का बखान नहीं किया जा सकता, वे सोये हुए ज्ञान को जागृत करते हैं, सत्संग प्रदान करते हैं, जो बहुमूल्य है !

आज भी सद्गुरु के वचन सुने. मन जो इधर-उधर बिखरा हुआ है उसे युक्तिपूर्वक हटाकर एक केंद्र पर लाना ही ध्यान है. ईश्वर की कृपा सहज, स्वाभाविक रूप से सदा प्राप्त होती ही रहती है जैसे सूरज की धूप, तो उसके लिए मन को सहज रूप से ध्यान में लगाना है. इसमें कोई जोर जबरदस्ती नहीं चलती. मन वर्तमान में रहे तो यह अपने आप होता है. आज का वर्तमान ही कल का भूत बनने वाला है और भविष्य तो वर्तमान पर निर्भर है ही. भक्ति पूजा, आराधना और समर्पण सहज कार्य हो जाएँ तो समझना चाहिए की ज्ञान फलित हो रहा है. मन में क्या चल रहा है इस पर नजर रखना भी सहज होना चाहिए.  

आज साधना के तीसरे और चौथे सोपानों – षट सम्पत्ति तथा मुमुक्षत्व के बारे में सुना. मन बेचैन न हो प्रसन्न रहे तो शम की सम्पत्ति पास है. दम अर्थात इन्द्रियों का निग्रह. कुछ मनचाहा हो या अनचाहा, उसे सहन करने की क्षमता का नाम ही श्रद्धा है. ज्ञान को पाने की इच्छा, पाने की सम्भावना ही श्रद्धा है. देह से दिन-रात तरंगें उठती रहती हैं. यह समता में हों तो समाधान है. तरंगे ग्रहण भी की जाती हैं, यह आदान-प्रदान समता में हो तो तृप्ति का अनुभव होता है. किसी भी कार्य में खुश रहने की क्षमता ही उपरति है. उपरति होने से कोई संवेदनशील होता है. वह समष्टि का प्रिय है, और यह समष्टि चाहती है कि वह प्रसन्न रहे. जीवन का अंतिम ध्येय क्या है, इसे जानना ही, जानने की इच्छा ही मुमुक्षत्व है. जब सब कुछ बंधन लगता है, तभी मुक्ति की चाह होती है. आजादी की प्यास ही मुमुक्षत्व है. पूर्ण तृप्ति की प्यास ही मुमुक्षत्व है. नित्य की तृप्ति अनित्य से कैसे हो सकती है !  


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