Tuesday, May 19, 2015

गुलाबी धूप



उसे लगता है, अन्तर्मुखी होकर जिसे भीतर पाया है, ऑंखें खोलकर उसे गंवा देती है. मौन रहकर जो शक्ति एकत्र होती है, बड़बोलेपन के एक झटके में वह बह जाती है. अपनी भाषा अपने मन पर नियन्त्रण कभी-कभी नहीं रहता, कभी क्रोध का भाव कुछ क्षणों के लिए हावी हो जाता है और कभी वाणी सुमधुर नहीं रहती, अपना होश नहीं रहता न, पर फौरन मन चपत लगाता है और वह सचेत हो जाती है पर तब तक हानि तो हो चुकी होती है. साधना के पथ पर चलना हो तो छोटी-मोटी इच्छाओं को तिलांजलि देनी ही पड़ती है बल्कि वे सहज रूप से स्वयं ही छूटती जाएँ तभी ठीक है. अभी-अभी जून का फोन आया. कल रात को साढ़े सात बजे वे गन्तव्य पर पहुंचे फिर पौने नौ बजे तक गेस्ट हाउस. रूम न. तथा फोन न. दिया है, वह कल से सुबह उन्हें फोन कर सकती है. आज सुबह की शुरुआत ठीक वैसे ही हुई जैसे जून के होने पर होती थी. मौसम आज भी मधुमय है, सर्दियों की गुलाबी धूप खिली है, नन्हा भी समय से उठकर स्कूल जा सका. उसकी ओर पहले से अधिक ध्यान देना है.

आज सुबह नींद अपने आप खुल गयी. नन्हा ट्यूशन गया तो बाहर अँधेरा था, ठंड भी बहुत थी. उसने सुबह के सभी आवश्यक कार्य किये, टिफिन बनाया पर बस स्टैंड तक जाकर वह लौट आया, आज ‘असम बंद’ है. किसने किया है, कितने समय का है कुछ पता नहीं है. जून से बात हुई, वहाँ भी धूप निकली है. कुछ देर पूर्व ससुराल से फोन आया, पिताजी ने कहा माँ कह रही थीं कि जून उन्हें भी फोन करें. आज सुबह जून ने भी उससे कहा, वह घर पर फोन करे. उसने किया तो वह अभी सो रही थीं. शायद वहाँ ठंड बहुत है. गुरूमाँ ने कहा जब तक कोई ध्यान में उतरकर अपने अकेलेपन से प्रेम करना नहीं सीखेगा, उसे बार-बार जन्मना पड़ेगा. मृत्यु के बाद और जन्म से पहले हरेक अकेला होता है अपने मन के साथ और उससे बचने के लिए ही जन्म लेता है. उसे तो उसका अकेलापन बेहद प्रिय है अर्थात वह मृत्यु के बाद भी प्रसन्न रहेगी. बाबाजी ने कहा, जीवन में सुख,शांति व समृद्धि सदा बनी रहे, ऐसी कामना को प्रश्रय देना भी मूर्खता है बल्कि होना यह चाहिए कि सदा वह मनसा, वाचा, कर्मणा सद्मार्ग पर स्थित रहे, सजग रहे. अपना हित अथवा अहित मात्र उसके हाथ में है. अपने सुख-दुःख, शांति-अशांति के लिए वह स्वयं ही जिम्मेदार है, बल्कि अपने सद्कर्मों से जो फल की आशा से न किये गये हों, वह पुराने कर्मों को काट भी सकती है. नया बीज तो बोना ही नहीं है, यही साधना है !

जगजीत सिंह की गजल नैनी का बेटा सुन रहा है, आवाज यहाँ तक आ रही है. उनकी आवाज में एक कशिश है जो अपनी ओर खींचती है. वह पीछे बरामदे में धूप में चटाई बिछाकर बैठी है, नन्हा स्कूल गया है. कल रात्रि उसे मैथ्स बताते-बताते सोने में देर हुई, सो सुबह भी सब काम देर से हुए. कल शाम जून का किसी के हाथ भेजा सामान मिला, अखरोट, रेवड़ी, बड़ी आदि.. शाम को सत्संग में गयी, माँ का भजन गाते-गाते सचमुच माँ की स्मृति हो आई और आँखें भर आयीं. भजन गाने में एक अनूठा ही आनंद है, पूरे मन से गाने का आनंद, सही-गलत की परवाह किये बिना ! आज सुबह से कई सखियों से फोन पर बात हुई, परसों शाम एक सखी आई, थी उसके पहले दिन एक और, सो दिन ठीक-ठाक बीत रहे हैं. वैसे भी जब अंतर्मन में कृष्ण का वास हो तो अकेलेपन की बात ही नहीं रहती, बल्कि कभी-कभी मन स्वयं ही परेशान हो जाता है दुनियादारी में ज्यादा व्यस्त रहने पर, उसे अपने प्रेम और भाव में डूबने का जब पर्याप्त समय नहीं मिलता. कृष्ण को स्मरण करने के लिए वैसे अलग से समय निकलने की भी जरूरत नहीं है. सुबह क्रिया में, फिर काम करते वक्त, भजन सुनने में, सत्संग सुनने में, व्यायाम करने व भोजन बनाने में वह हर वक्त उसके साथ ही रहता है, सिवाय तब जब पढ़ती या पढ़ाती है. उसके दौरान भी उसकी स्मृति रहती ही है, बल्कि उसके होने से ही वह है, बल्कि वही तो है...ये सारे प्राणी उसी का तो विस्तार हैं..सबमें उसी की तलाश है.



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