“नित्य-अनित्य, पुण्य-पाप का भेद जानना ही विवेक है, आसक्ति मिटाना वैराग्य
है. तृष्णा ही दरिद्रता है, जब तृष्णा न हो, मन में समृद्धि हो, वही वैराग्य है.
जब विवेक और वैराग्य सध जाये और साधना का सहयोग भी मिले तभी भक्ति का उदय होता है.”
सद्गुरु के वचन उसके हृदय को शीतलता से भर देते हैं. कैसी अद्भुत शांति का अनुभव
होता है, उनके वचन सुनने से जैसे तृप्ति नहीं होती, पर मन में कहीं गहरे संतुष्टि
भरती जाती है. मन उसी तृप्ति को चाहने लगता है. तब इस जगत की बातें बहुत छोटी
महत्वहीन लगने लगती हैं. यह माया जाल अपने पुर्जे खोल कर रख देता है. तब कहीं भी
मन टिकता नहीं, सिवाय उसके. यह पल-पल बदलता संसार और रेत के महलों से इन्सान के
स्वप्न ढहते नजर आते हैं. सब छलावा ही लगता है, सच्चा सिर्फ वही एक लगता है. सारे
संबंधों के पीछे टिके स्वार्थ स्पष्ट दीखते हैं. इस जगत की सीमाएं भी दिखती हैं,
देह की सीमाएं, रिश्तों की सीमाएं और मनों की सीमाएं. मन जो पल-पल रूप बदलते हैं,
जो निश्छल नहीं रह पाते, जो कभी असत्य का सहारा भी ले लेते हैं और कभी सत्य से न
डिगने का प्रण लेते हैं, बुद्धि भी रूप बदल लेती है तो फिर कोई किसका भरोसा करे.
एक उसी का जो इन सबसे परे है, सभी प्रकृति के गुणों के वशीभूत होकर कार्य कर रहे
हैं. मन परवश है, मुक्त वही है जिसने
मुक्त की बाँह थामी है, अपने स्व को जाना है. निज का आनंद जिसने पा लिया वह क्यों
जायेगा जगत से आनंद का प्रसाद पाने, वह तो अपने आनंद को लुटाने का ही कार्य करेगा
न. सद्गुरु ने उसके भीतर आनंद के जिस स्रोत का पता बताया है, वह अनंत है !
पिछले
दो-दिनों से उसका मन संशय ग्रस्त है. संसार उसे अपनी ओर खींच रहा है और ईश्वर की
भक्ति अपनी ओर. ऐसा विरोधाभास पहले तो प्रतीत नहीं हो रहा था. हृदय में जैसे कोई
कुहरा छा गया है और यह कुहरा दम्भ का हो सकता है. कथनी और करनी में अंतर जितना
अधिक होगा, दम्भ का कुहरा उतना घना होगा. मन पर कोई घटना कितनी देर तक प्रभाव
डालती रहती है, इससे भी उसके घने होने का सबूत मिलता है. ऐसे में कोई उसकी सहायता
कर सकता है तो वह है कृष्ण का प्रेम. उसे अपने स्वभाव में स्थित रहना होगा पूरी
निष्ठा के साथ और दिखावे की आडम्बर की कोई आवश्यकता ही नहीं हैं. अंतर का प्रेम
अन्तर्यामी उठने से पूर्व ही स्वीकार लेते हैं. जीवन का लक्ष्य एक हो, रास्ता एक
हो और मन में दृढ़ता हो, तभी मंजिल मिलेगी. अंतर के प्रेम का झरना सूखने न पाए, रिसता
रहे बूंद-बूंद ही सही ताकि संवेदना भीगी-भीगी रहे, वाणी में रुक्षता न आए, न आँखों
में परायापन, प्रेम सभी पर समान रूप से बरसे ! साधक के लिए करने योग्य एक ही
कर्त्तव्य रह जाता है, वह है इस संसार को असत्य मानना अथवा स्वप्न मानना. उसके शरणागत होकर उसके संसार में काम
आने का प्रयत्न करना, जीवन का लक्ष्य हो ईश्वर, रास्ता हो समर्पण और कर्म हो सेवा
तभी वह मुक्त है !
उसे
अपने अवगुणों पर नजर रखनी होगी, वे पनपें नहीं बल्कि जड़ को उखाड़ फेंकना है. सबसे
अधिक तो वाणी का दोष है. ज्यादा बोलना हानिप्रद है. बल्कि ज्यादा सोचना भी क्योंकि
बोलने और सोचने में ज्यादा अंतर नहीं है. मन के भीतर भी बोलना नहीं होना चाहिए. लोगों
से मिलते वक्त भी स्मरण बना रहे, तभी याद रहेगा कितना बोलना है. ईश्वर तो दूर वह
स्वयं को भी भुला देती है और परिस्थिति की गुलाम बनकर कुछ भी बोल देती है जिसका परिणाम
कभी भी सुखद नहीं होता. दूसरा अवगुण है, समय का दुरूपयोग. जीवन सीमित है, इसका एक-एक
क्षण कीमती है. जीवन मिला है जीवन के लक्ष्य को पाने के लिए, सुख-सुविधाएँ जुटाकर
देह को आराम देने के लिए नहीं बल्कि नियमों का पालन कर तन, मन, व आत्मा को निर्मल
बनाने के लिए. चित्त की शुद्धि ही उसके पाने का मार्ग खोलती है. वही साध्य है और
वही साधना !
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