आज बाबाजी अपने विट्ठल को याद
करते-करते भाव समाधि में प्रविष्ट हो गये हैं, और उन्हें इस तरह परम आनंद में मगन
देखकर हजारों की भीड़ भी भाव विभोर हो गयी है. परम भाग्य होता है तभी संत या
सद्गुरु मिलते हैं और उनकी कद्र हृदय जानता है. वास्तव में सद्गुरु क्या है ? कौन
है ? कोई नहीं जान पाता. उनकी कृपा का एक अंश ही मिल जाये तो कल्याण हो जाता है
लेकिन उसे पाने के लिए अहम् को पूरी तरह नष्ट करना होगा. जहाँ प्रेम होता है वहाँ
परमात्मा तत्क्षण जवाब देते हैं, हृदय के सच्चे प्रेम को वह अस्वीकार नहीं कर पाते
और धीरे-धीरे भक्त के हृदय से अहंकार नष्ट होने लगता है. कल शाम वह सत्संग में
गयी, बाद में भोजन का भी इंतजाम था, पर चना-पूरी खाने की जरा भी इच्छा नहीं थी सो
वह लौट आयी. कल सुबह दोनों ननदों को पत्र लिखे, अब यह प्रतीक्षा नहीं करनी है कि
उनका जवाब भी आये और ऊपर से यह भी कि वह उसके अनुकूल हो, यह तो अहंकार को पोषने
वाली बात होगी. आज सुबह वे उठे तो देखा नन्हा रात को कम्प्यूटर चलाकर बिना मच्छरदानी
लगाये, बत्ती जलाये ही सो रहा था. दूध भी ऐसे ही पड़ा था. शायद वह सोने नहीं गया था
नींद ने उसे घेरे में ले लिया. कल उसकी किताबें भी दिल्ली से आ गयीं. इस वर्ष
कोचिंग के कारण उसे नूना से पढ़ने की जरूरत नहीं है, यानि उसे साधना के लिए समय
मिलेगा. आत्मिक बल बढ़ेगा, सहनशीलता बढ़ेगी, उपेक्षा जगेगी, अपेक्षा कमेगी !
आज सुबह चार बजे उठी, वातावरण में निस्तब्धता छायी थी. ढेर सारे अमरूद गिरे
हुए थे. पका हुआ फल स्वयं ही झर जाता है ऐसे ही परिपक्व मन स्वयं ही झुक जाता है,
अपरिपक्व मन हठी होता है. आज नन्हा स्कूल नहीं गया है. कल बड़ी ननद की राखी मिली,
पत्र भी नहीं है और जल्दी में भेजी गयी लगती है. ईश्वर ही सबका रखवाला है और वही
तो अपनों के माध्यम से सबकी सहायता करवाता है. कल एक सखी के यहाँ गये वे, उसके
पतिदेव का जन्मदिन था. उसकी सासूजी से बातें किन. वह इस उमर में भी काफी संयत लगती
हैं. एक सुसंस्कृत महिला..वह भी वृद्धावस्था में ऐसी ही रहेगी. सजग अपने स्वास्थ्य
के प्रति था अपने व्यवहार, अपनी बातों के प्रति भी.
मन पुनः उद्ग्विन हुआ. कारण वही है इच्छा’. कल शाम वे कला प्रदर्शनी देखने
गये. मन ललक उठा कि इनमें से एक तो उनके घर की शोभा बढ़ाए. जून को येन, केन,
प्रकारेण मनाया कि वे एक पेंटिंग खरीदेंगे. लेकिन आज सुबह विचार आया कि अभी तक
वस्तुओं के प्रति आकर्षण कम तो नहीं ही हुआ है सो मुक्त कैसे होगा मन ? जून को
जैसे ही कहा कि इतना जरूरी नहीं है कि पेंटिंग ली ही जाये लेकिन जैसे ही ये शब्द
कहे, मन ने फिर एक दांव फेंका कि छोटी ही ले ली जाये. यानि आकर्षण इतना प्रबल था
कि..मन को समझना बहुत मुश्किल है. पर उसे उस पर नजर रखनी ही है. जून ने जब ऐसा कुछ
कहा जो उसे पसंद नहीं था तो उसे भी समझाने लगी. नैनी देर से आयी तो उस पर भी
झुंझलाई. अर्थात मन पर नियन्त्रण नहीं था. प्रेय और श्रेय दो प्रकार के कर्म होते
हैं. जो कार्य तत्पल सुख दें वे प्रेय है लेकिन भक्त को, साधक को तो श्रेय का
मार्ग अपनाना होगा. पहले तो उसे यह निर्णय कर लेना चाहिए कि वह एक सांसारिक
व्यक्ति है अथवा एक साधिका, यदि साधिका है तो उसे सजग रहना ही होगा. किसी के दोष
देखना बंद करना होगा औरों को सुधारने से पूर्व अपने अंदर की हजारों कमियों को दूर
करना होगा. व्यर्थ का चिन्तन, व्यर्थ की वाणी और व्यर्थ के कार्यों से भी स्वयं को
दूर करना होगा, और ऐसा करना ही अंतत सुख का कारण होगा. क्षणिक सुख का नहीं ऐसा सुख
जो बाद में पछतावे का कारण बने. श्रेयस कार्यों को करने के बाद पछताना नहीं पड़ता.
परम लक्ष्य को प्राप्त करना ही उसका ध्येय होना चाहिए. सदा उसके सम्मुख आदर्श रहे,
क्योंकि मन को तृप्त करना वैसा ही है जैसे अग्नि को ईंधन देना, मन को तृप्त करते
करते वे चुक जायेंगे पर इसे तृप्त नहीं कर सकते जबकि ईश्वर को पाने की इच्छा ही
अपने आप में शांतिदायक है. यह प्रारम्भ में, मध्य में और अंत में भी सुखद है ! यह
मुक्त करती है जैसे वह परमात्मा मुक्त है, हर तरफ व्याप्त ऐसे ही वह उन्हें बनाना चाहता है पर वे हैं कि
देह के घेरे से बाहर आना ही नहीं चाहते !
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