Wednesday, March 4, 2015

कृष्ण की गीता


ज्ञानी गुरू की कृपा के बिना संसार सागर से पार होना असम्भव है, गुरू का हाथ उनके सिर पर रहे तभी उनका कल्याण होगा. कल के उत्सव में उसने एक कविता पढ़ी, जो सभी ने पसंद की, पर यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि गुरूजी ने ही उसे प्रेरित किया. कल उनकी पुस्तक पढ़ी. ज्ञान कितना अनमोल है यदि कोई इसे समझे, तो ही !
दोपहर को पन्द्रह-बीस मिनट ही सोयी पर भारीपन छा गया है, जबकि इससे अधिक देर तक ध्यान करने से भी थकान मिट जाती है. ध्यान में अवश्य ऐसी कोई बात है. आज सुबह बाबाजी ने अपने पुराने अनुभवों का जिक्र किया, उन्होंने विपरीत परिस्थियों में सात वर्ष गुजारे. ईश्वर प्राप्ति के लिए कठिन साधना करनी पडती है और आग में तपकर जब वह ज्ञान प्राप्त कर सके तो संत के पद पर लोगों ने उन्हें बैठाया. गुरू पद को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है, और शिष्य बनना सम्भवतः उससे भी कठिन. अपने अहम् को मिटा देना होता है. विनम्र होकर ही गुरू से कोई कुछ पा सकता है. वरन अपने मिथ्या  अभिमान से वह स्वयं ही दबता रहेगा. अध्यात्म के मार्ग पर चलना बहुत कठिन है पर उतना ही मधुर भी...मानसिक तप करते करते मन को अपना दास बनाना है. मन ही उन्हें ऊंचाइयों पर ले जायेगा. मन की एक न सुनते हुए ज्ञान की सुनें, विवेक की सुनें तो सही मार्ग से विचलित नहीं होंगे. उसने घड़ी की ओर देखा, अब शाम के खाने की तैयारी का वक्त है.

परमात्मा की शरण में जाने पर हृदय अपने आप पावन होने लगता है. प्रज्ञा स्थूल होने पर ही अकरणीय कर्म कर बैठती है, बुद्धि यदि परमात्मा में स्थिर हो तभी प्रज्ञा सूक्ष्म होगी, यानि ईश्वर को ईश्वर से ही जाना जा सकता है. मन में न जाने कितने जन्मों के संस्कार हैं, जिनकी छाप इतनी गहरी है कि उसे मिटने में समय तो लगेगा ही. ध्यान के समय निर्विचारता की स्थिति आये उसके पूर्व लम्बे रस्ते से गुजरना होगा. कुछ देर के लिए ऐसा लगता है मन खो गया है पर जैसे ही यह भाव आता है फिर कहीं से कोई विचार प्रकट हो जाता है. ध्यान में बैठना लेकिन बहुत अच्छा लगता है. अज गुरुमाँ कहा कि संगीत अपने आप में कठिन साधना है और इसमें वर्षों लग सकते हैं. सुरों को मन में बैठना ही सबसे कठिन है. इस माह परीक्षा के बाद वह संगीत अध्यापक से विदा ले लेगी और पहले स्वयं रियाज करके जितना सीखा है उसे ही पचाना है. कल रात जून को नींद नहीं आयी, उसकी भी नींद थोड़ी डिस्टर्ब रही. शुभ-अशुभ की स्मृति न रहे, शुभ-अशुभ में प्रीति न रहे तो मन शांत रहेगा. कृष्ण ने कहा है, यदि सारे कर्मों को निष्काम भाव से करते हुए चित्त को उसमें लगाये रखेंगे तो वह बुद्धियोग प्रदान करेंगे. सभी परिस्थितियों में समभाव बनाये रखना भी चित्त को प्रभु में लगाये कहने जैसा ही है. अज वह न व्यायाम कर सकी न ध्यान, उसकी एक पुरानी छात्रा आयी थी, कलकत्ता में रहकर पढ़ी क्र रही है. आज सुबह क्रिया के बाद मन बेहद शांत था, बल्कि मन था ही नहीं, सिर्फ एक मौन था !

पिछले दो दिन डायरी नहीं खोली, शनिवार और इतवार इधर-उधर के कामों में कैसे बीत गये पता ही नहीं चला. कल शाम वह aol के भजन में गयी, योग शिक्षक आये थे, जब उन्होंने गुरू वन्दना शुरू की, उसका मन कृतज्ञता से आप्लावित हो गया. आज गुरुमाँ ने ध्यान की विधि बतलायी. विचार यदि आते हैं तो उनसे लड़ना नहीं है, असंग रहना है. एक विचार आता है वह चला जाता है, अगला अभी आया नहीं है. उस क्षण में स्थिर रहना है. गुरुमाँ नित नये तरह के वस्त्र पहनती हैं, बहुत प्यारी लगती हैं. कभी न कभी  इस जीवन में उनसे भेंट हो, यह उसकी हार्दिक इच्छा है और ईश्वर उसकी इच्छाएं सदा पूरी करते आये हैं ! बाबाजी ने बताया किस तरह संकल्प शक्ति को बढ़ाते जाना है. आत्मा में सुना, सब कारणों के कारण कृष्ण हृदय में रहते हैं, शुभ-अशुभ कर्मों तथा विचारों के साक्षी है. वही कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं. शरीर, मन और बुद्धि की दासता को त्याग कर जब कोई कृष्ण के प्रेम का बंधन स्वीकारता है तो सारा का सारा विषाद न जाने कहाँ चला जाता है !




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