ज्ञानी कैसा होता है इसका बखान
अभी सुना, बाबाजी आज अपने ब्रह्मानन्द में मस्त थे. उनकी आंखों में कितना संतोष
था, कितना प्रेम और कितना अपनापन ! जब टीवी में देखकर वह अपनी सुधबुध खो देती है,
मन निर्विचार हो जाता है तो उन्हें प्रत्यक्ष देखने व सुनने से कितना लाभ होगा
इसकी कल्पना ही की जा सकती है. वह इतनी सीधी, सच्ची और सरल भाषा में बात कहते हैं
कि कोई अनपढ़ भी समझ ले. वह इतनी ऊंची पदवी को प्राप्त कर चुके हैं तभी इतने सरल व
सहज हैं. उधर गुरुमाँ ने भी बुल्लेशाह की काफी गाकर मन मोह लिया. ईश्वर को पाने की
प्यास हृदय में तीव्रतर हो जाती है जब ऐसा सत्संग मिलता है, पर फिर सांसारिक
उलझनें मन को हर ले जाती हैं. आज सुबह एक परिचिता के यहाँ फोन किया, जहाँ योग
शिक्षक ठहरे हुए थे, कोर्स के दौरान सुदर्शन क्रिया करने की अनुमति लेनी थी. पर
उनसे बात नहीं हो पायी. मन को सभी प्रकार की इच्छाओं से मुक्त करना है चाहे वह
इच्छा सुदर्शन क्रिया की ही हो. आकर्षण का फल सदा ही बुरा होता है चाहे वह आकर्षण
अच्छी वस्तु का या बुरी वस्तु का. ‘क्रिया’ का उद्देश्य तो मन को एकाग्र कर के
बुद्धि को भेदते हुए आत्म दर्शन करना है, जो इस क्षण भी हो सकता है यदि मन को शांत
कर ले. सहज प्राप्य वस्तु को स्वयं ही दुर्लभ बनाकर उसे पाने की चेष्टा ही तो कर
रही है, जैसे कि उसका महत्व बढ़ जायेगा. जैसे वे सहज प्राप्य ईश्वर को, आत्मा को,
भिन्न-भिन्न उपायों से खोजते फिरते हैं. मन को खाली करना है पर उसे भरते रहते रहते
हैं, शब्दों से और विचारों से, जो मानसिक जुगाली का ही काम करते हैं. वह जो शब्दों
से परे है शब्दों से पकड़ में नहीं आ सकता. उसने यह अनुभव किया कि कामना मुक्त होना
कितना शान्तिप्रद है और कामना करना तन-मन में कितनी लहरों को उत्पन्न करता है. जून
आज डिब्रूगढ़ जाने वाले हैं. लंच पर नहीं आएंगे.
इस समय साढ़े ग्यारह हुए हैं, जून आज भी अभी तक नहीं आये हैं. नन्हे को बारह
बजे कोचिंग क्लास में जाना है. वह अभी कुछ देर पूर्व ही व्ययाम करके उठी है. कल
शाम को दो पत्र लिखे, हफ्तों से उनका जवाब देना रह जाता था. मौसम आज बेहद अच्छा है.
सुबह संगीत अभ्यास किया. अगले महीने परीक्षा है. आज छोटी बहन का फोन आया, पंजाब बार्डर पर है. अभी कब तक रहना होगा कहा नहीं जा सकता. युद्ध के बादल छा रहे हैं.
उसने बताया, छोटे भांजे को पचासी प्रतिशत अंक मिले हैं, दो दिन बाद नन्हे का भी
परीक्षा परिणाम आने वाला है, अभी से सभी की निगाहें टिकी हैं, कुछ लोग मिठाई खाने
की बात भी कह चुके हैं. यकीनन परिणाम अच्छा ही होगा. शाम को उन्हें दो जगह जाना
है. हायर सेकेंडरी स्कूल में ‘हिंदी साहित्य सभा’ के लिए तथा बाद में ‘क्रिया’ के
लिए. आज मन शांत है, कल जैसी उथल-पुथल नहीं है. कल सम्भवतः उसे कुछ हो गया था,
गुरू की कृपा से ‘बहुत कुछ’ होने लगा है न उसी में से ‘कुछ’.
आज उसे एक और अनुभव हुआ, अहंकार बहुत सूक्ष्म होता है, कई बार उसे लगता है कि
वह इससे मुक्त हो रही है पर इसकी जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि थोडा सा अनुकूल अवसर
आने पर यह अंकुरित हो जाता है. गुरू कितने उपायों से इसे तोड़ना सिखाते हैं, पर वह
उनसे ही नाराज हो जाती है. ईश्वर मानव के कार्यकलापों के साक्षी हैं, वे हर पल नजर
रखते हैं, वह उपद्रष्टा हैं ! वह यह भी देखते हैं कि किस तरह वे अपने अहम् को पोषते
हैं. यह जो कुछ बनने की, कुछ कर गुजरने की प्रवृत्ति है वह भी अहम् का रूप है. वह
ही उन्हें कार्य करने की अनुमति देते हैं, लेकिन वह अनुमति उनके स्वभाव तथा
पुर्वकर्मों द्वारा नियत किये हुए प्रारब्ध के अनुसार ही होती है. जीवन में जब भी
कभी मानसिक उद्वेग या पीड़ा का अनुभव होता है इसके पीछे उसका अहंकार ही जिम्मेदार
है. अहम् को चोट लगती है तो पीड़ा होती है और यह अहम् सत्य नहीं है मिथ्या है. इसको
परत दर परत वे खोलते जाएँ तो वहाँ कुछ बचता ही नहीं. यह खोखला है, पोला है, इसका
अस्तित्त्व है ही नहीं. वे इसे मान बैठे हैं. इस झूठ ने उन्हें सत्यरूपी ईश्वर से
दूर किया हुआ है गुरू की नजरों में स्वयं को कुछ साबित करना भी अहम का विकृत रूप
है और यह घृणित भी है. गुरू के समक्ष यदि वे अज्ञानी बनकर पूर्णतया खली होकर जायेंगे
तभी तो गुरू कुछ प्रदान कर पाएंगे अन्यथा तो उनका ज्ञान ही उनके रस्ते में आयेगा.
पूर्णत विनम्र होकर ही गुरू को रिझाया जा सकता है !
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