पांच शरीर हैं उनके, पाँचों के
पार वह चिदाकाश है जहाँ पहुंचना है. ईश्वर की स्मृति सदा बनी रहे तभी वे अपने पद
से नीचे नहीं गिरेंगे अन्यथा मन के पुराने संस्कार सदा मोहित करते रहेंगे. ईश्वर
जो इस सृष्टि का रचेता है, जिसका सभी के प्रति सहज स्वाभाविक प्रेम है, जो आत्मा
का हितैषी है, प्रेम वश जो सदा सन्मार्ग पर ले जाने की व्यवस्था करता है. वह
उन्हें सुख-दुःख के द्वन्द्वों से अतीत देखना चाहता है. जब वे उसकी निकटता में
रहते हैं, उसके सामीप्य का अनुभव करते हैं तभी आकाश की भांति पूर्ण मुक्त, स्वच्छ,
अलिप्त रहेंगे, यही उनका सच्चा स्वभाव है. उसकी उपस्थिति का अहसास सुबह ध्यान में
हुआ, हर रोज ही होता है और यही उसकी आंतरिक प्रसन्नता का कारण है. मन कितना शांत
है आज ! कल उन्होंने राखियाँ बनायीं, वह सखी आयी थी. अभी कुछ काम शेष है.
आज सुबह वे पौने चार बजे उठे, नन्हा उसके पूर्व ही उठ चुका था. उन्होंने ‘क्रिया’
की, योगासन आदि किया. ब्रह्म मुहूर्त में साधना करने का सुयोग भी ईश्वर ने ही
बनाया है, वह जो भी करता है उनकी भलाई के लिए ही करता है. वे जो भी करते हैं वह
ईश्वर प्राप्ति हेतु ही तो. शरीर स्वस्थ रखने का प्रयास, मन स्वस्थ रखने का
प्रयास, सभी तो आत्म साक्षात्कार हेतु ही न. भक्ति के अनुकूल जो भी कार्य हों वही
उन्हें अपनाने हैं और जो प्रतिकूल हों उन्हें छोड़ देना होगा. अज गुरू माँ ने
बताया, जिनकी आज्ञा चक्र तक की यात्रा पूरी हो जाती है, वह ‘आत्म साक्षात्कार’ की
ओर कदम बढ़ा चुके हैं अर्थात निकट आ चुके हैं. आज शाम को क्लब में मीटिंग है, उसे
कविता पाठ करना है. कल ऑयल-किरण के लिए
लेख लिखकर दे दिया है.
जीते जी अगर परमात्म सुख का अनुभव करना हो तो औदार्य सुख का अनुभव करना चाहिए,
उदार बनना चाहिए. जो उदार होता है, वह प्रेमी भी होता है, वह सामर्थ्य भी रखता है.
आज बाबाजी अपने गुरू की स्मृति आ जाने से भावुक हो रहे हैं. गुरू की याद ऐसी ही
होती है. वह भी कितनी भाग्यशाली है कि एक बार ही सही उसने निकट से सद्गुरु के
दर्शन किये हैं. भौतिक दूरी अथवा निकटता का उनके लिए कोई महत्व नहीं. श्रद्धा से
उन्हें याद करो तो तत्क्षण वे उपस्थित हो जाते हैं. ईश्वर के प्रति प्रेम वही हृदय
में उत्पन्न करते हैं. ईश्वर के प्रति हृदय में सहज और स्वाभाविक प्रेम होना चाहिए
पर वे अपनी सहजता तो स्वार्थ के कारण पहले ही खो चुके होते हैं, सहज स्वभाव हो तो
भक्ति को उदय होते देर नहीं लगती. सहज स्वभाव ही उनका शुद्ध रूप है जटिल तो उनका
मन उसे बना देता है. व्यर्थ की कल्पनाओं, विचारों और भावनाओं में डूब कर जो अपने
आपको बड़ा ज्ञानी समझता है पर होता नहीं है, अरे, उसे तो यह भी नहीं पता कि कब क्या
सोचना है, कब कौन सा विचार कहाँ से आने वाला है, वह अपने को ही नहीं जान पाता तो
संसार की समस्याओं का निदान कैसे सोच सकता है, तो मन को ठीक करना होगा !
ज्ञान का अंत भक्ति है, भक्ति रसमय, आभामय, मकरंद मय बनाती है. प्रेम हो जाता
है जब गुरू से, ईश्वर से तो प्रेम तारने वाला बन जाता है. देर-सबेर ईश्वर का
साक्षात्कार हो जाता है. मोहनिद्रा से सदा के लिए जागृति हो जाती है. सद्गुरु की
कृपा मिले बिना ज्ञान टिकता नहीं ! ...और आज सुबह क्रिया के दौरान व उसके बाद उसने
गुरुवाणी सुनी, “लगा रह” उस दिन सुना था ‘अभिमानी मत बन’, अर्थात उसे अपने
प्रयासों को त्यागना नहीं चाहिए बल्कि पूरे विश्वास के साथ उसमें लगा रहना होगा.
कल शाम को यह अनुभव हुआ कि only now is eternal ! वर्तमान का साक्षात् अनुभव
हुआ, हर क्षण जैसे शाश्वत हो गया था. वर्तमान में रहने के लिए सबसे अच्छा उपाय है
कि वे क्षण-क्षण में जीना सीखें अन्यथा मन कब भूत या भविष्य के झकोरे में झूलना
शुरू कर देता है पता ही नहीं चलता. कल दोपहर राखियाँ बन गयीं पचास से कुछ अधिक ही
बन गयी हैं. अब २१ जुलाई को होने वाले उत्सव में इन्हें रखना है. सेवा के इस कार्य
में कितना सुख मिला है यह सात्विक सुख है पर इससे भी उसे बंधना नहीं है. अब उसके
सामने एक स्पष्ट लक्ष्य है और जिस रास्ते से उस पर जाना है वह रास्ता भी पूरी तरह
स्पष्ट है. अब चलने की देर है. आत्म साक्षात्कार के उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए
सद्गुरु का आशीर्वाद भी उसके साथ है और कान्हा का प्रेम भी !
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