गुरू के प्रति प्रेम मन से
शुरू होता है और आत्मा तक पहुँचता है. गुरू से मिला ज्ञान अथवा प्रेम ही इस प्रेम
को उपजाता है, उसके प्रति कृतज्ञता और आभार की भावना भी प्रेम का ही दूसरा रूप है.
कल शाम उन्होंने योग शिक्षक से बात की. कल दोपहर उसकी आंखों में रह रह कर आंसू भर
आते थे, यह आद्रता अंतर में कहाँ छुपी थी उसे स्वयं भी पता नहीं था, जो गुरू स्मरण
से सारी सीमाएं तोड़कर बह निकली है. सम्भवतः यह सारी सृष्टि के लिए है जो ब्रह्म का
ही दूसरा रूप है, बल्कि ब्रह्म स्वरूप है, सभी के भीतर वही प्रकाश है जो गुरू के
भीतर है पर उनके भीतर का प्रकाश उनके चेहरे पर झलकता है, क्योंकि वह ईश्वर के निकट
हैं. सब प्राणियों के प्रति उनके भीतर प्रेमपूर्ण भाव है, प्रसन्नता की मूरत हैं.
निस्वार्थ भाव से इस जगत के कल्याण में लगे हैं. उनकी आँखों में ईश्वर का प्रकाश
है. नूना ने सोचा, ऐसी ही भावना उनके हृदयों में उत्पन्न हो, उनका अभ्यास और
वैराग्य दृढ़ हो. शाम को वे योग शिक्षक से मिलने जायेंगे. उनका मुख्य कर्त्तव्य है
अपने सच्चे स्वरूप को जानना, जिसे भुला दिया है उसको याद करना. वह स्मरण इतना सहज
हो जैसे धूप और हवा और जल अपने सहज रूप में सदा रहते हैं, झरते हुए, बहते हुए,
बिखरते हुए वैसे ही उनका मन उसकी याद में झरता रहे, बहता रहे, पिघलता रहे, द्रवित
होता रहे. कुछ स्थूल न बचे, कोई ठोसपना नहीं...सब कुछ बह जाये...
कल शाम वे क्लब गये, बेसिक कोर्स चल रहा था. पुरानी स्मृतियाँ उसके मानस पटल
पर आ गयीं. उन्होंने सितम्बर में यह कोर्स किया था, आठ महीने होने को हैं. उसके
जीवन के वे सुनहरे दिन थे. उन्ही दिनों उस परमपिता का अनुभव हुआ था, वह जो सत्य
स्वरूप है, जो सदा से है, सदा रहेगा, जो सबका आधार है, जिसकी सत्ता से उनकी धड़कनें
चल रही हैं. जो उनके भीतर है, उनके हर क्षण का साक्षी है, जो उन्हें सदा प्रेरित
करता है, जिसका न आदि है न अंत, वह न स्थूल है न सूक्ष्म. वह जिसे वे इन्द्रियों
से देख नहीं सकते जो मन की गहराइयों में भी अव्यक्त है. वह जो सुख का स्रोत है,
प्रेम और ज्ञान का सागर है, वह जो सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है. वही शब्द है,
वही नाद है, वही प्राण है और वही इन सबका आधार...ऐसे परमात्मा जिसकी स्मृति से
उसका अंतर कमल की भांति खिल उठता है, एक अनजानी सी ख़ुशी की लहर पोर-पोर में समा
जाती है, उनका स्मरण ही इतना प्रभाव डालता है तो उनका दर्शन कितना असर डालता होगा
यह कल्पना से भी बाहर है. उनसे जो जुड़ा है वह गुरू पूजनीय है और उस गुरू से जो
जुड़े हैं वह योग शिक्षक शाम को उनके यहाँ भोजन पर आ रहे हैं.
कल रात्रि आठ बजे शिक्षक आये, दस बजे गये, दो घंटे कैसे बीत गये पता ही नहीं
चला. उनकी बातें मन को छूती हैं, ज्ञानप्रद हैं. नन्हे और जून को कोर्स करने व
सत्संग में जाने को उत्साहित किया, दोनों प्रभावित नजर आ रहे थे. नन्हे को ‘महाभारत’
पढ़ने को कहा है. अभी कुछ देर पहले पड़ोसिन सखी से बात की. कल की मीटिंग की बहुत
तारीफ़ क्र रही थी, श्लोक, गीत व गेम सभी अच्छे थे. अभी-अभी गुरुमाँ का प्रवचन
सुना. बहुत स्पष्ट शब्दोंमें बोलती हैं.
चाह चूड़ी चाह चमारण, चाह नींचा दी नीच
तू तां बुलया शाह सी, जो चाह न होती बीच
योग वशिष्ठ में कहा गया है जिसके हृदय से सब अर्थों की आस्था चली गयी है,
अर्थात जो जगत में रहते हुए भी यह जानता हो कि सब सपना है, सब माया का खेल है,
आत्मशांति तभी मिलती है जब यह ज्ञान होता है. श्री श्री के हृदय में भी यही ज्ञान
है और तभी वह इतना काम कर पाते हैं. वे भी ज्ञान में स्थित रहें, अविद्या को दूर
करें तभी आत्मिक सुख पा सकते हैं और तब कोई भौतिक आकांक्षा नहीं रह जाती क्योंकि
उस एक के सिवा प्राप्त करने को क्या है ? प्रवृत्ति और निवृत्ति का ज्ञान प्राप्त
करना है. उसका दिया उसको अर्पण करके ग्रहण करना है.
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