Tuesday, March 3, 2015

बुल्लेशाह की काफी


ज्ञान वहीं टिकता है, जहाँ वैराग्य है ! ‘मैं’ मेरी है या तेरी है ? यदि यह ‘मैं’ मेरी नहीं तेरी है तो कैसा बंधन और कैसी मुक्ति ? अहंकार शून्य गुरू के सम्मुख जो स्वयं भी ऐसा हो जाता है वही उसको पा सकता है. अभी कुछ देर पूर्व गुरुमाँ का सुंदर प्रवचन आ रहा था पर अब केबल नहीं आ रहा है. मन जो उच्च स्तर पर पहुंच गया था फिर रोजमर्रा के कार्यों की सूची बनाने में व्यस्त हो गया है, मन को कितना समय लगता है एक स्तर से दूसरे स्तर तक जाने में. पलक झपकने से भी कम समय लगता है. सुबह ‘क्रिया’ के दौरान भी कई बार इधर-उधर की सोचने लगता है. अज सुबह ही चाय पीते समय किसी की खबर सुनकर आलोचना पर उतर आया जबकि वह इस दुनिया में नहीं रही थी. जो इस दुनिया से चला गया उसके लिए कुछ बाकी नहीं रह गया. सद् प्रार्थना  ही चाहिए उसे. पल-पल मन को सचेत रखना है अन्यथा परमात्मा दुर्लभ ही रह जायेगा. बस अब और नहीं, बहुत डोल लिए हिंडोलों में, बहुत पचड़ों में पड़ लिए. अब मुक्त होना है, अपने मन की गांठों को एक-एक कर खोलते जाना है और पुनः न बंधे इसके लिए भी सतर्क रहना है. मन की सौम्यता को नष्ट होने से बचाना है. धर्म की रक्षा करनी है और सत्य का दामन जोरों से पकड़ना है. मन जितना सरल होगा जीवन उतना ही सहज होगा और सहज प्राप्य ईश्वर तब उन्हें उसी तरह मिलेंगे जैसे हवा और धूप !

कल शाम को bang on the door पुनः पढ़ी और समझी भी. जैसे-जैसे वे ज्ञान के सागर में नीचे उतरते जाते हैं मोती और सुंदर होते जाते हैं. गुरू ज्ञान का सागर है और उसके वचन सुनहले मोती हैं जिन्हें उन्हें धारण देना है. जिनकी चमक से उन्हें अपनी आत्मा को चमकाना है फिर वह उनसे छुप नहीं सकेगी, प्रकाशित होगी ही. गुरुमाँ ने बुल्लेशाह की एक काफी पढ़ी, जिसका भाव था कि ‘ध्यान में इतना मग्न हूँ कि मुझे समय का भान नहीं है और न ही कोई मुझे समय का भान कराए अपने हृदय में मैं उस प्रिय का दर्शन करने में मस्त हूँ कि संसारी प्रवृत्ति में लगने की मेरी कोई इच्छा ही नहीं रह गयी है’. परसों गुरूजी का जन्मदिन है, वह बेहद खुश है. शाम को वे उत्सव में जायेंगे, जून लेकिन नहीं रुकेंगे, गुरूजी ने उसे इतना कुछ दिया है कि कृतज्ञता के सिवा उन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है पर वह उनकी आभारी है, बहुत बहुत आभारी !  

आज श्री श्री का जन्मदिन है, आज ही के दिन पैंतालीस साल पूर्व वह तमिलनाडु के पापनासम नामक स्थान पर वेंकटरमण तथा विशालाक्षी के यहाँ जन्मे थे. बचपन से ही भगवद् प्रेम का उनमें उदय हो चुका था. ईश्वर की उसपर अनुकम्पा है कि ऐसे गुरू के दर्शनों का उसे लाभ हुआ है. उनकी ज्ञान गर्भित, सार युक्त प्रेरणा प्रद सत्य वचन हृदय को उच्च केंद्र तक ले जाते हैं. उनके कर्म अकर्म बन जाएँ सदा ईश्वर की सेवा में जुड़े रहें, पुराने कर्मों को काटते चलें, उनके द्वारा मिले प्रारब्ध को वे भोगते चले जा रहे हैं. नया कुछ कर नहीं रहे हैं तो नया जन्म लेने की क्या आवश्यकता है, मन निर्वासनिक हो गया है, मात्र कर्त्तव्य शेष है पर कोई वासना नहीं, कोई भौतिक वस्तु उन्हें  नहीं चाहिए. मानव देह उन्हें इसलिए ही मिली है कि अपने प्रारब्ध को समभाव से भोगते रहें तथा आगे के लिए कोई बंधन न बांधें !




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