Tuesday, June 28, 2016

मंजिल और रास्ता


‘मृत्यु के साथ यदि किसी की मित्रता हो तभी वह धर्म के पथ से विमुख रहकर भी प्रसन्न रहने की आशा रख सकता है. ऐसा हो नहीं सकता तो धर्म का पथ चुनना ही पड़ेगा. सजगता का वरण, समता की साधना भी तभी होती है. भीतर आग्रह हो तो अहंकार शेष है, अहंकार की तृप्ति करनी है तो उसे दुःख सौंपना ही होगा. स्वयं को जानना ही धर्म में अर्थात स्वभाव में स्थित होना है. जो स्वयं को जानता है उसे संसार से कोई अपेक्षा नहीं रहती, वह दाता बन जाता है. वह जानता है कि द्वेष करने से वह स्वयं भी उसी की भांति बन जायेगा जो उसके द्वेष का पात्र है. मन रुग्ण होता है तो शरीर अस्वस्थ होने ही वाला है. नकारात्मक भावनाएं देह पर प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकतीं. जितना जितना कोई स्वयं में स्थित रहता है मुक्ति का अनुभव करता है. मुक्ति विकारों से, द्वेष से, दुखों से, वासनाओं से, क्रोध से और व्यर्थ चिन्तन से !’ आज सद्गुरु को सुनकर लगा वह उसके लिए ही बोल रहे थे.
यह जगत एक दर्पण है, उसमें वही झलकता है जो उनके भीतर होता है. भीतर प्रेम हो, आनन्द हो, विश्वास हो तथा शांति हो तो चारों ओर वही बिखरी मालूम होती है, अन्यथा यह जगत सूना-सूना लगता है. यहाँ किस पर भरोसा किया जाये ऐसे भाव भीतर उठते हैं. भीतर की नदी सूखी हो तो बाहर भी शुष्कता ही दिखती है. लेकिन भीतर का यह मौसम कब और कैसे बदल जाता है पता भी तो नहीं चलता. कर्मों का जोर होता है अथवा तो पापकर्म उदय होते हैं या वे सजग नहीं रह पाते. कोई न कोई विकार उन्हें घेरे रहता है तो वे भीतर के रब से दूर हो जाते हैं. हो नहीं सकते पर ऐसा लगता है. यह होना ठीक भी है क्योंकि भीतर छिपे संस्कार ऐसे ही वक्त अपना सिर उठाते हैं. पता चलता है कि अहंकार अभी गया नहीं था, सिर छिपाए पड़ा था, कामना अभी भीतर सोयी थी. ईर्ष्या, द्वेष के बिच्छू डंक मारने को तैयार ही बैठे थे. अपना आप साफ दिखने लगता है. साधना के पथ पर चलते-चलते जब वे यह सोचने लगते हैं कि मंजिल अब करीब ही है तो अचानक एक घटना ऐसी घटती है जो इशारा करती है कि रुको नहीं, अभी और चलना है. इस यात्रा का कोई अंत नहीं, इसमें मंजिल और राह साथ-साथ चलते हैं. जैसे कोई क्षितिज की तरह पास आता मालूम होता है निकट पहुंचो तो फिर उतना ही दूर..जिसने माना कि उसने जान लिया है उसका ज्ञान चक्षु बंद हो जाता है. वह खुला रहे इसके लिए सतत जिज्ञासु बने रहना होगा, सदा सजग रहना होगा, सदा स्वयं के भीतर झाँकने का काम करना होगा, कौन जाने कहाँ कोई विकार छिपा हो जो सही मौसम की प्रतीक्षा कर रहा हो !

स्वराज चेतना क्या है ? सत्य की खोज और मानव मात्र को जिसकी तलाश है क्या वही नहीं है स्वराज्य चेतना..आज मुरारी बापू की ‘मानस महात्मा’ को कुछ देर सुना. भीतर सद्विचारों की प्रेरणा जगाती है उनकी कथा. उन्हें भी अब कुछ करना होगा, मात्र विचार ही पर्याप्त नहीं है. उसे अपने लेखन को गति देनी होगी. हर कोई अपना-अपना कार्य ठीक से करे तो समाज पुनः अपने मूल्यों के प्रति जागरूक हो सकता है. उनकी परिचिता बुजुर्ग महिला आज गिर गयीं, उनका कंधा अपने स्थान से खिसक गया है, अस्पताल में हैं, वे मिलने गये थे. आज एक सखी की बिटिया का जन्मदिन है, शाम को पार्टी में जाना है. कल सिंगापुर का शेष विवरण लिखा, अभी टाइप करना शेष है. सुबह प्राणायाम के बाद परमात्मा के साथ एक करार किया, वह उसे प्रकट करेगी और वह उसे अप्रकट करेगा. वह उसके जीवन में झलकेगा बाहर और वह भीतर खत्म होती जाएगी. उसका नाम उसकी शक्ति है और उसका पवित्र स्मरण उसका एकमात्र कर्त्तव्य, शेष तो अपने आप होता जायेगा. परमात्मा उनके भीतर सोया रह जाता है और वे बार-बार खुद को दोहराते चले जाते हैं, व्यर्थ का रोना रोते हैं. वह हर क्षण तैयार बैठा रहता है, सत्य सर्वदा सर्वत्र है ! 

Monday, June 27, 2016

आल इज वेल


भजन अभ्यास करने का उद्देश्य है कि आत्मा परमात्मा का अनुभव करे. मन की शांति, देह की निरोगता, सौभाग्य... ये सारी बातें अपने आप ही होने लगती हैं. कल रात टीवी पर कुछ नये कार्यक्रम देखे, सोने गयी तो पीछे वाली लेन से लाउडस्पीकर पर तेज आवाज में बजते गीतों के कारण नींद में व्यवधान पड़ा. सोने-उठने में जैसा अनुशासन जून रखते हैं, वह नहीं रख पाती. आज बाजार जाना है. मृणाल ज्योति के शिक्षकों के लिए नये वर्ष का उपहार- डायरी व पेन, ‘अंकुर’ के बच्चों के लिए भारत व विश्व के मानचित्र तथा घर के लिए सब्जियां व फल खरीदने हैं.

सद्गुरु के वचन अनमोल हैं, वह कहते हैं, साधक चलती-फिरती आग हैं जो सारी बुराइयों को जला कर रख कर देती है, जो बर्फ को पिघला देती है. वे भूल गये हैं कि जीता-जागता प्रकाश उनके भीतर है. मन का विक्षेप, मन की उद्वगिनता तथा मन की कमजोरी तभी उन्हें प्रभावित करती है, जब वे अपने स्वरूप को भूल जाते हैं. श्रद्धा से उनमें समाधि का उदय होता ही है. वीरता के क्षणों में भी पूर्ण होश रहता है. परमात्मा के प्रति समर्पण भी समाधि है ! दृष्टा में पहुंचना ही साधक का लक्ष्य है. वे अगले महीने यहाँ आने वाले हैं. उनके बारे में वे जो भी जानते हैं, उसे ठीक से लिख लेना होगा.


कल माँ की पुण्य तिथि थी. नौ वर्ष हो गये उनके देहांत को. कल भी मंझले भाई ने उन्हें स्वप्न में देखा, उसने भी कई बार उन्हें स्वप्न में देखा है. ऐसे ही एक दिन उनका जीवन भी स्वप्न हो जायेगा. वे भी किसी के स्वप्न में आने वाली छाया मात्र रह जायेंगे. उससे पूर्व उन्हें अपने सत्य स्वरूप को जान लेना है, जान ही लेना है. इस मायामय जगत के आकर्षण इतने लुभावने हैं कि मन टिककर बैठना ही नहीं चाहता, कामनाओं के जाल में इस तरह उलझा हुआ है कि..यश की कामना, समाज के लिए कुछ करने की कामना...अच्छा बनने की कामना..वे एक क्षण को भी कामना से मुक्त नही होते हैं. समाधि के क्षणों में भी कोई जगा रहता है, सबीज समाधि हुई न, कोई रहता है जो उस सुख को अनुभव कर रहा है, दृष्टा बना ही रहता है. उसकी साधना में जैसे एक समतल स्थान आ गया है. सत्संग में जाना भी छूट गया है. सद्गुरु की वाणी सुनती है, पढ़ने का क्रम भी कम हो गया है. लेकिन मन तृप्त है. कोई विक्षेप नहीं है, इसी बात का भरोसा है कि सद्गुरु हर क्षण उनके साथ हैं, वे उनकी आत्मा हैं, वे भीतर का प्रकाश हैं, जो कभी भी कहीं भी नष्ट नहीं हो सकता, तो फिर भय कैसा ? जो उन्हें चाहिए वह पहले से ही मिला हुआ है और जो व्यर्थ है वह मिले या न मिले, क्या फर्क पड़ता है. टाइम पास ही तो करना है इस जगत में, समभाव से निकाल करना है, कोई नया कर्म बंधन बांधना नहीं है, पुराने खत्म होते जाते हैं. कोई आशा नहीं, कोई अपेक्षा भी नहीं, जीवन सहज गति से चलने वाली धारा की तरह बहा जा रहा है. कल क्लब में 3 इडियट्स है, इस फिल्म की बहुत तारीफ़ सुनी है. समाज में कुछ परिवर्तन लाएगी यह फिल्म, यह उम्मीद की जा सकती है. न लाये तो भी कोई हर्ज नहीं, इस सुंदर जगत को जो भी और सुंदर बनाये उसकी प्रशंसा होनी ही चाहिए ! बड़ी ननद की बड़ी बेटी के sms भी सुंदर हैं, नन्हे की कम्पनी का newsletter भी सुंदर है ! उन्होंने सभी को सिंगापुर की तस्वीरों का लिंक भेजा है, देखें, कौन-कौन देख पाता है !

Sunday, June 26, 2016

कामायनी- मुक्तिबोध की नजर में


‘प्रेम अमृत है, कामना सुरा है ! कामना की सुरा आरम्भ में तो मदहोश कर देती है, सुख का आभास देती है किंतु बाद में सिवाय पश्चाताप के कुछ हाथ नहीं आता’ ! अभी-अभी सुना यह वचन. परसों सरस्वती पूजा है. वह यूनिकोड में टंकण करके अपनी कविता हिन्दयुग्म के पाठकों के लिए भेजेगी. जून लैपटॉप इसीलिए छोड़ गये हैं. आज ही सुबह वह मुम्बई गये हैं, चार दिन बाद लौटेंगे. तब तक उसे अपने भीतर प्रेम की सुवास जगा लेनी है तथा कामना की सुरा का मद उतार फेंकना है ! मौसम पुनः सुहावना हो गया है. नैनी स्टोर की सफाई कर रही है. पिताजी बगीचे में पानी डाल रहे हैं. माँ मटर छील रही हैं, सभी कार्य में  लगे हुए हैं और वह कार्य की योजना बना रही है. नया वर्ष आरम्भ हुए इतने दिन बीत गये, एक भी नई कविता नहीं लिखी. सिंगापुर पर जो लेख लिखना है, उसकी भी शुरुआत नहीं की है. दोपहर को कामायनी पर मुक्तिबोध की पुस्तक पढ़ रही थी. मनु आत्ममोह से ग्रस्त है, वह भी तो आत्ममोह से ग्रस्त होकर ही आलस्य व मूढ़ता का शिकार हो जाती है. भीतर के खालीपन को भरने के लिए उन वस्तुओं का आश्रय लेती है जो स्वयं ही रिक्त हैं. पिछले कुछ सप्ताह ऐसे ही बीत गये, अपने भीतर जाने का अवसर नहीं मिला. बाहर की चकाचौंध देखकर मन बाहर ही भागता रहा. स्वप्न अभी तक सिंगापुर में देखे बाजारों के ही आते हैं. धन का ऐसा प्रदर्शन था वहाँ. हैती में लोग भूख से पीड़ित हैं. लेकिन वहाँ की स्वच्छता देखकर उसने कितने दिवास्वप्न देखे थे, इस नगर को सुंदर बनाने के स्वप्न, पहले अपने घर को बगीचे को सुंदर बनाना है. काम तो कितने सारे हैं. अब जुट जाना है. परसों सभी को संदेश भी भेजेगी. लोहड़ी पर फोन नन्हे के पास था सो नहीं भेज पाई थी.

सुंदर वचन सुने आज. ‘जहाँ प्रेम होता है, वहाँ समर्पण होता है. घट-घट में वह साईँ रमता कटुक वचन मत बोल रे !’ शब्दों का घाव सदा के लिए इन्सान के भीतर घर कर जाता है और जो ऊंची आवाज में बोलता है, उसको भी पछताना होता है. ऊर्जा का नाश होता है सो अलग ! वाणी पर संयम साधक की पहली आवश्यकता है. आज सुबह क्रिया के बाद भीतर अनायास ही मन हुआ कि दोनों पड़ोसियों के बच्चों को सिंगापुर से लायी चॉकलेट दे. ध्यान, प्राणायाम तथा योग का यह कैसा चमत्कार है. वे साधना के द्वारा जब कुछ प्रसाद पा लेते हैं तो मानने लगते हैं कि अब यह कभी नहीं  जायेगा, किन्तु साधना छोड़ते ही मन माया का साम्राज्य स्थापित हो जाता है. सद्गुरु कहते हैं कुछ होने के लिए कुछ न होना सीखना है. खाली होना है. जब कोई स्वयं को कुछ मानता है तो अहम को चोट लगने ही वाली है. जो आकाशवत शून्य है उसे कोई हानि नहीं हो सकती. तब किसी पर कोई अधिकार न होते हुए भी सब अपने होते हैं. वे इस विशाल ब्रह्मांड के आगे शून्यवत हैं, पर  जब अपने भीतर उस शून्य को पा लेते हैं, सारा ब्रह्मांड अपना हो जाता है !


आज वसंत पंचमी है. उसने धानी वस्त्र पहने और पीत स्वेटर. सुबह साढ़े पाँच पर उठी,. कितना प्रमाद ! फिर सभी को संदेश भेजती रही. अभी तक साधना भी नहीं की. एक सखी के यहाँ मूर्ति पूजन होगा, उसने बुलाया है. उनके पीछे वाली लेन में भी पूजा का पंडाल लगा है. रात को वहाँ से तम्बोला खेलने की आवाजें आ रही थीं. मस्ती का माहौल रहा होगा, लेकिन जब तक भीतर की मस्ती का अनुभव नहीं हो जाता, बाहर की मस्ती मात्र कोलाहल बनकर रह जाती है. आह सद्गुरु योगसूत्र पर बोल रहे थे. कल व परसों उनकी बताई विधियों से ध्यान किया, अच्छा अनुभव हुआ. नन्हा उसके लिए गुरूजी की आवाज में रिकार्ड किये हुए ध्यान के कई सीडी लाया था. आज मौसम बहुत अच्छा है. बसंत के आने की सूचना देता हुआ. जून के आने में अभी दो दिन हैं, उनका ऊनी मोजा ठीक करना है, आलमारी ठीक करनी है. नन्हे का सामान भी सहेज कर रखना है. पिताजी की रजाई पर धुला कवर चढ़ाना है, पर सबसे पहले क्रिया व ध्यान करना है.    

Saturday, June 25, 2016

वृक्ष की जड़


‘जब तक वे अपने भीतर ईश्वरीय प्रेम का अनुभव नहीं कर लेते तब तक जगत से प्रेम नहीं कर पाते, तब तक जगत से किया उनका प्रेम उन्हें दुःख ही दे जाता है क्योंकि उस प्रेम में बंधन है, पर जब एक बार उन्हें अपने भीतर प्रेम का अनुभव हो जाता है बाहर सहज ही वह मुक्त भाव से बिखरने लगता है, जैसे कोई फूल अपनी खुशबू बिखेर रहा हो या तो कोई भंवरा अपना संगीत अथवा तो कोई झरना अपनी शीतलता भरी फुहार ! वे तब स्वयं मुक्त होते हैं और किसी को बाँधना भी नहीं चाहते. तब जगत उनका प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह जाता बल्कि उनका अपना अंश हो जाता है, वे इतने विशाल हो जाते हैं कि सारे लोग उनके अपने हो जाते हैं !’ कितने उच्च भाव हैं ये पर कितने सूक्ष्म भी, हाथ से फिसल-फिसल जाते हैं. इतने वायवीय हैं ये भाव, संसार की कठोरता से टकराकर ये कभी-कभी चूर-चूर हो जाते हैं. मन की इच्छा का, आत्मा के ज्ञान का और शरीर के कर्मों का जब मेल नहीं बैठता तो ये भाव भीतर एक कसक भी उत्पन्न कर देते हैं. उस कसक के प्रभाव में यदि वे अक्रिय होकर बैठ गये तब तो बनती हुई बात भी बिगड़ जाती है, नहीं तो सीखा हुआ ज्ञान व्यर्थ प्रतीत होने लगता है. मानव हर समय तो समाधि का अनुभव नहीं कर सकता, नीचे उतरना होता है और जीवन क्षेत्र में काम करना होता है. जो भावना के स्तर पर कितना सत्य प्रतीत होता था वह क्रिया के स्तर पर दूर जा छिटकता है. कबीर की सहज समाधि तब स्मरण हो आती है, जो कहती है जब जैसा तब तैसा रे...अर्थात जिस क्षण मन जिस भाव अवस्था में हो उसे प्रभु प्रसाद मानना चाहिए. तब यह कामना भी शेष नहीं रहती कि जो उन्होंने सोचा है वैसा ही घटे, जो तित भावे सो भली !  बस अपना दिल पाक रहे इसकी फ़िक्र करनी है, शेष भगवद इच्छा !  

नाम का सुमिरन यदि ऊपर के केंद्र में चलता रहे तो शरीर में लघुता बनी रहती है. पिछले कुछ हफ्तों से नियमित ध्यान नहीं हुआ. मौसम भी बेहद ठंडा है. शरीर पूर्णतया स्वस्थ नहीं है. मन पर भी इसका असर पड़ता है. मन इस समय सद्गुरू की वाणी सुनने के बाद शांत है, उत्साह से भरा है और परम के प्रति प्रेम का अनुभव हो रहा है ! नन्हा कल डिब्रूगढ़ चला गया, आज बैंगलोर जायेगा, उस दिन उसने कितना सही कहा कि बदले की भावना ही गलत है, यह भाव ही अपने आप में गलत है. इतना ज्ञान जो पुस्तकों में पढ़ा है, दीवार पर लिख कर टांगा है, व्यर्थ है, यदि वे अपने भीतर के नकारात्मक भावों को निकाल नहीं सकते. क्रोध, उपेक्षा, प्रतिशोध, ईर्ष्या ये सारे भाव भीतर हैं, जो कुछ देर के लिए विचलित कर जाते हैं. क्रोध अहंकार का परिणाम है. नन्हे को देखकर संतोष होता है कि वह उस ज्ञान को जी रहा है, जिसे वह केवल धारण करती है. सहज प्रेम व सेवा का भाव भी उसके भीतर है. तन पर प्रकट होने वाला रोग मन के रोग का परिणाम है, जैसे वृक्ष की जड़ धरती के भीतर है वैसे ही मनुष्य की जड़ उसके मन में है ! मन के विचार, भाव, कल्पनाएँ, सोच, चिन्तन, मनन जैसे होंगे, वैसा ही जीवन उनका होगा ! मन से परे है आत्मा, मन यदि शरीर के पीछे चलेगा  तो वह संसारी है और यदि आत्मा के पीछे चले तो सन्यासी है. जो सीढ़ियाँ ऊपर ले जाती हैं, वही नीचे भी लाती हैं. 

Thursday, June 23, 2016

पीतल का दीपदान


चार दिनों का अन्तराल ! सुबह एक सखी का फोन आया, वह अब फेसबुक पर नहीं दिखेगी. उसे इस बात का अंदेशा तो था ही. वह हँसते हुए कह रही थी लेकिन उस हँसी के पीछे जरूर थोड़ा सा तो दुःख होगा, चाहे कुछ पलों के लिए ही सही. नये वर्ष पर उसे संदेश भेजने में भी संकोच होगा. वे जीवन को व्यर्थ ही बोझिल बनाये जाते हैं, जबकि जीवन इतना प्रेम, आनंद और सौंदर्य छिपाए है. वह बिखरा है चारों ओर, वे नजर उठाकर देखते भी नहीं ! आज एक और सखी ने कहा उन्हें world space radio लेना चाहिए, गुरूजी की आवाज में रोज सत्संग सुनने को मिलेगा, उसे पता ही नहीं है गुरूजी और वह एक हो गये हैं. अब उनको सुनने के लिए उसे बाहर कुछ भी नहीं करना है. भीतर वही तो बोल रहे हैं. आज सुबह एक फोन आया, पर उठा नहीं पायी, तब वह ध्यान कर रही थी. यूँ भी व्यर्थ की बातचीत से क्या मिलने वाला है. माँ का डर व घबराहट आजकल बढ़ती जा रही है. पिताजी को कुछ देर भी नहीं देखती हैं तो ढूँढने लगती हैं. कल नन्हे से बात की, परसों वह भीग गया था, गला खराब हो गया है.

वर्ष बीतने में मात्र एक दिन रह गया है. पीछे मुड़कर देखे तो सभी कुछ अच्छा रहा, ध्यान में टिकना हुआ, मन विकारों से मुक्त हुआ. आज सभी को नये वर्ष की कविता भेजी. कल फेसबुक पर भी सबको शुभकामना देनी है. मृणाल ज्योति की प्रिंसिपल से बात की, स्कूल के लिए उन्हें दो विशेष कुर्सियां बनवानी हैं, वे विवाह की वर्षगांठ के उपलक्ष में उसके लिए आवश्यक राशि देगें. पीछे वाले  आंगन का हरे बार्डर वाला नया बनवाया सलेटी फर्श बहुत सुंदर लग रहा है. गमले रखने के लिए एक स्टैंड भी वहाँ रखा, सर्दियों भर तो आँगन को साफ-सुथरा रखा जा सकता है. बाहर बैठने के लिए चार बेंत के मूढ़े उन्हें लेने होंगे.

साल का अंतिम दिन ! पिछले कुछ दिनों से एक परिचिता भी उसके साथ योग करने आ रही है, आज भी आई थी. योग सिखाने की उसकी कामना को सफल करने. कल शाम को वे एक मित्र के यहाँ गये, लौटने में देर हुई, कुछ ज्यादा नहीं पर उसका असर अभी तक है. शाम को एक परिचित को जो रिटायर होकर यहाँ से जा रहे हैं, बनारस से लाया पीतल का दीपस्तम्भ, नये वर्ष की कविता तथा कार्ड दिए. उन्होंने कहा, गुरूजी अरुणाचल प्रदेश में आ रहे हैं, यदि वे यानि ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ के लोग उन्हें लाने के लिए कम्पनी द्वारा हेलीकॉप्टर का प्रबंध कर दें तो वे कुछ घंटों के लिए यहाँ भी आ सकते हैं. विचार तो बहुत अच्छा है कि गुरूजी दुलियाजान आयें पर उनके स्वागत के लिए सभी को कई आवश्यक प्रबंध करने होंगे. उसे तो वे हर वक्त निकट ही प्रतीत होते हैं. वह कहते हैं ‘जो मैं हूँ सो तुम हो’ ! इस अभिन्नता को जो महसूस कर ले वह तृप्त हो जाता है !    


  

Wednesday, June 22, 2016

क्रिसमस की कविता


कल क्लब में हसबैंड नाईट है, जून जाने वाले हैं नहीं. उसे तो जाना चाहिए, उनके क्लब का सबसे बड़ा कार्यक्रम है और नहीं तो सजावट ही देखने लायक होगी, सांस्कृतिक कार्यक्रम भी अवश्य ही बहुत अच्छा होगा, वह अकेले ही जाएगी. अभी कुछ देर पूर्व असम में जनमत कराया जाये या नहीं इस बात पर जून और उसके मध्य चर्चा चली, अपने विचारों के प्रति मोह ही इसका कारण है. भीतर अहंकार है जरा सा भी विरोध उसे सहन नहीं होता. क्षण भर के लिए सिर में भार सा महसूस हुआ पर सजग होते ही चला गया स्वप्न में देखे अशोभन दृश्य के समान. गुरूजी कहते हैं वात, पित्त तथा कफ के कुपित होने पर भी चित्त विकार ग्रस्त हो सकता है, लेकिन ये दोष भी तो उनकी बेहोशी से ही जन्मते हैं. उनके भीतर जन्मों-जन्मों की तथा इस जन्म की कामनाएं तो भरी ही हुई हैं, जरा सी असावधानी से वे सतह पर आ जाती हैं. अध्यात्म के पथ पर चलने वाले साधल को निरंतर होश चाहिए !

जून की अंगुली में परसों चोट लग गयी थी जब वह मिक्सर साफ कर रहे थे. उन्हें दर्द हो रहा है इस कारण या शायद अन्य किसी बात पर वह आज दोपहर उसे बिना उठाये आफिस चले गये. आज सुबह क्रिया के बाद कितना अनोखा अनुभव हुआ. काफी देर तक वह भावसमाधि में थी. परमात्मा उनके कितने करीब है, उसमें और उनमें कोई दूरी नहीं है, वह वे हैं और वे वह है. वे हट जाएँ तो वही रह जाता है और भीतर एक संगीत गूँजता रहता है ! इस समय भी गूँज रहा है. आज उसने अपने आप pdf फाइल बनाकर दीदी को कविता भेजी. कल उन्होंने बरामदे में क्रिसमस ट्री सजाया है, आज जून उसकी तस्वीर उतारेंगे. कल पिताजी से बात की, चाचाजी की दसवीं थी, तेहरवीं भी करनी है. वह लिख रही थी की वर्षा होने लगी और झट हाथों ने कविता की डायरी उठा ली, कविता परी उतर आयी हो जैसे उसके अंतर की बगिया में ! शब्द झर रहे थे जैसे बूंदें बरस रही हों बारिश में !

आज शाम वे अपने क्रिश्चियन पड़ोसी के यहाँ जायेंगे, एक उपहार, क्रिसमस कार्ड व एक कविता लेकर. उसकी क्रिसमस पर लिखी कविता छोटी भतीजी के स्कूल के बोर्ड पर लग गयी है. आज वह यहाँ के क्रिश्चियन स्कूल के फादर को भी उसका एक प्रिंट देने वाली है. दीदी व कुछ अन्य लोगों को भी भेजी है, कुछ शब्द जो लय में व्यवस्थित हो गये हों, कितना असर कर जाते हैं. उसे नये वर्ष पर भी एकदम नयी सी कविता लिखनी है, कुछ ऐसी जो पढने वाले के भीतर जोश भर दे. उनके भीतर अपार क्षमता है, वे शक्ति के पुंज हैं ! यूँ ही वे अपने को कोसे चले जाते हैं.

कितना सुंदर है यह जहान, कितना अद्भुत है यह वितान !
भरनी है अनंत गगन में ऊंची एक उड़ान, थक के न बैठो ओ प्यारे विहान !
उसे लगता है वे अपनी ऊर्जा के एक अंश का भी यदि उपयोग करें तो...
बदल के रख दें अपनी किस्मत, नजर उठाके जिधर देख लें, बदले जमाना अपनी फितरत ! 
प्यार के बीज बिखरा दें गर फूल दोस्ती के खिल जाएँ,
दिल से जरा सा मुस्का दें, कितनी राहें मिल जाएँ !
अपने इन दो हाथों में कितनी बड़ी जागीर छुपी है,
मानव के इस नन्हे दिल में जन्नत की ताबीर छुपी है !
करे इरादा एक बार वह सब हासिल कर सकता है,
पल भर में रोती आँखों में मुस्कानें भर सकता है !   

हिन्दयुग्म में कविताएँ


कामना संसार की होगी तो कभी पूर्ण नहीं होगी, राम की होगी तो पूर्ण हुए बिना रह नहीं सकती. राम तो मिलेगा ही संसार भी पीछे-पीछे आएगा. जीवन में कितनी बार इस बात का अनुभव हुआ है जब भी उसने अपना सुख संसार पर निर्भर किया, धोखा ही मिला, जैसा चाहा वैसा नहीं हुआ, आशा कितनी बार निराशा में बदली. इस सत्य को यदि वे सदा याद रख सकें और किसी से कोई अपेक्षा न रखें तो मुक्त रह सकते हैं. अपने भीतर ही सुख की खोज करें जो बिखरा ही हुआ है, जो अनंत है. जो असीम है, जो सहज ही प्राप्त है ! उसने सोचा, यदि मानव को वह मिल जाये तो उसका जीवन क्या रुक नहीं जायेगा ? यदि उनकी लालसा सुख की है और सुख उन्हें बिना कुछ किये यूँ ही मिल जाये तो वे कुछ करना ही क्यों चाहेंगे, तो इसका उत्तर भी भीतर से आया कि जिस तरह सुख सहज प्राप्त है, कर्म करने की इच्छा भी स्वाभाविक है, उस स्थिति में उनके कर्म तो होंगे पर वे स्वार्थ से भरे नहीं होंगे, वे बांधने वाले नहीं होंगे, वे उन्हें कष्ट नहीं देंगे, वे भी आनंद को बढ़ाने वाले होंगे. यदि ऐसा है तो क्यों नहीं हर कोई अपने भीतर जाकर उस सुख राशि को खोज लेता ? हर कोई स्थिर बैठना नहीं जानता, भीतर जाना नहीं सीखता, बाहर ही बाहर उसे इस तरह बांधे रखता है कि कोई भीतर है भी इसका भी उसे भरोसा नहीं होता, दिन-रात जो बाहर ही रहता है, उसे पता ही नहीं चलता कि उसके भीतर भी एक आकाश है, जहाँ सूरज उगता है. वह अपने भीतर के हिरण्यमय कोष से अनजान ही रह जाता है. भीतर की दुनिया उसे दूर की, रहस्यमयी सी प्रतीत होती है, जबकि बाहर से उसका दिन-रात का नाता होता है. बुद्धि की सीमा जहाँ समाप्त होती है, हृदय का आरम्भ होता है ! लेकिन वे अपनी बुद्धि पर हद से ज्यादा भरोसा करते हैं. हर कोई दूसरे को मूर्ख तथा स्वयं को बुद्धिमान समझता है. छोटी से छोटी बात में भी वे अपने अहम की पुष्टि चाहते हैं. अहंकार की जड़ इस बुद्धि में ही है, जो उन्हें पश्चाताप के सिवा कुछ देकर नहीं जाती. हृदय में प्रवेश होते ही बुद्धि का चश्मा उतर जाता है. तब कोई छोटा-बड़ा नहीं रहता.   

आज नन्हा आने वाला है, उसने पिछली बार उन्हें स्मरण दिलाया था कि इतने सालों में वे आगे नहीं बढ़े हैं, उनके विवादों का कारण भी वही है और डायलाग भी वही हैं. इस बार भी वह किसी कटु सत्य की ओर इशारा करेगा. बच्चे माता-पिता को बारीकी से परखते हैं. वह स्वयं की कमियों को नहीं देख पायेगा, जैसे वे स्वयं को पूर्ण मानने की गलती कर बैठते हैं. नये वर्ष का आरम्भ हो चुका है, उसकी नये वर्ष की कविता कितने लोगों ने पढ़ी, नेट के माध्यम से उसे कितने पाठक मिले हैं. कितना कुछ लिखना अभी शेष है. यूनिकोड में लिखना भी सीख लिया है, जरा भी कठिन नहीं है. अभी लोहरी व गणतन्त्र दिवस की कविता लिख सकती है तथा विवाह की वर्षगांठ के लिए भी. ‘हिन्दयुग्म’ में कितनी कविताएँ पढने को भी मिलती हैं. हजारों लोग लिख रहे हैं. प्रभु ने उसे भी लेखन की शक्ति दी है, जिसे निखारना, संवारना उसका कर्त्तव्य है, अन्यथा यह उसका अपमान होगा. हर दिन कुछ न कुछ लिख सके ऐसा प्रयास इस नये वर्ष में होना चाहिए, और नहीं तो डायरी ही रोज लिखे, पत्र लिखे चाहे भेजे नहीं. गुरूजी को पत्र लिखने का कार्य भी आजकल छूट गया है. अपनी आध्यात्मिक प्रगति का लेखा-जोखा भी इसलिए रुक गया है, जो यह मान लेता है कि पा लिया है, जान लिया है उसका ज्ञान चक्षु बंद हो जाता है !



Tuesday, June 21, 2016

मार्क ट्वेन का अनुभव


आज सुबह क्रिया के दौरान कई शुभ संकल्प उठे. पता नहीं कहाँ से विचार आते हैं और कहाँ खो जाते हैं. ‘मृणाल ज्योति’ के भविष्य के बारे में एक लेख लिखने का संकल्प, वहाँ के लिए सिंगापुर से कुछ विशेष खरीद कर लाने का संकल्प. पड़ोसियों के लिए क्रिसमस का सुंदर उपहार भी लाना है. ईसामसीह पर एक कविता लिखे तो कितना अच्छा हो... इस समय और कुछ याद नहीं आ रहा है, लेकिन उस समय तो जैसे बाढ़ ही आ गयी थी. कहीं यह मन की चाल तो नहीं. वह बचे रहना चाहता है. इसलिए अच्छी-अच्छी बातें खोज निकालता है ठीक ध्यान से पूर्व ! चाचाजी को श्रद्धांजलि स्वरूप एक लेख लिखना आरम्भ किया है. चचेरे भाई से बात की वह बाहर था, पंडित जी से कल के उठाले के बारे में बात करने आया था. मन्दिर में एक कमरा है वहीं पर कार्यक्रम होगा, समाज ऐसे वक्त पर ही नजर आता है. उसने भाई के लिए सोचा, पिता के जाने के बाद शायद वह समर्थ हो सके, अपने भीतर की शक्तियों को जगा सके. परसों छोटा भाई चचेरे भाई के साथ हरिद्वार जायेगा उनकी अस्थियाँ लेकर.  

आज फिर वर्षा का मौसम बना हुआ है, ठंड बढ़ गयी है. जून अप्रैल में लेह जाने की बात भी कह रहे हैं, समय बतायेगा, क्या होता है ? दोपहर के डेढ़ बजे हैं. ओशो ने मार्क ट्वेन के जीवन की एक घटना का जिक्र किया. जब वह फ़्रांस गये तो उनका नाती उनके साथ था. मार्क ट्वेन को फ्रांसीसी भाषा नहीं आती थी. वह भाषण के दौरान अपने नाती को देखकर ताली बजाते व हँसते जिससे किसी को पता न चले कि उन्हें भाषा का ज्ञान नहीं है. बाद में उनके नाती ने कहा कि उन्होंने तो उसकी फजीहत करवा दी. जब उनकी तारीफ होती तो वह ताली बजाता तभी मार्क ट्वेन भी ताली बजाते. वे भी बहुत सारे काम देखा-देखी करते हैं और उस परमात्मा की फजीहत करवाते हैं. यह बात और है कि परमात्मा की कोई फजीहत हो ही नहीं सकती !

आज नेट गायब है. उसने सोचा इस समय घर पर सभी व्यस्त होंगे, आज चाचाजी का उठाला है. जीवन अवश्य था उनके भीतर पर पिछले कुछ समय से वे सही अर्थों में जीवित नहीं कहे जा सकते थे. समाज से कटे हुए, अस्वच्छ वातावरण में, वही वस्त्र पहने दिनों गुजारने वाले, लेकिन दूसरी ओर जो रोज नहाते हैं, सबसे मिलते-जुलते हैं लेकिन भीतर क्रोध से भरे हैं, विषाद से ग्रस्त हैं, उन्हें भी तो जीवन से वंचित कहा जा सकता है. जीवित तो वही है जो भीतर जागा हुआ है, आनन्द में है और जो सभी के भीतर एक ही चेतना का दर्शन करता है. वह सबको वे जैसे हैं देख सकता है !


फिर एक अन्तराल, ठंड वैसी ही है जैसी कि दिसम्बर के इस महीने में होनी चाहिए ! अभी-अभी एक सखी से बात की अब से वह उसके साथ मृणाल ज्योति का काम करेगी. इस हफ्ते वे बच्चों को ध्यान करायेंगे. बच्चे ध्यान में जल्दी उतर सकते हैं, ऐसा संत कहते हैं. आज उसने पढ़ा, यह ब्रह्मांड गोलीय है, उसका न आदि है न अंत. आकाश से परे है चेतना.. ध्यान के बिना उस तत्व को जाना नहीं जा सकता. आज लेडीज क्लब की एक सदस्या के लिए उसने एक विदाई कविता लिखी. कल पिताजी को चाचाजी पर लिखा आलेख भेजा. उसे लगता है अब गद्य लिखने में उसे कम प्रयास लगता है. पद्य लिखना अब छूटता ही जा रहा है. कितना काम पड़ा है करने को पर बहुत सा समय इधर-उधर के कामों में चला जाता है. बहुत सारे संकल्प भीतर उठते हैं, कोई जगा हुआ उन्हें निरंतर देखा करता है, वही आत्मा है ! 

टैगोर की गीतांजलि



नन्हे से बात करके हमेशा बहुत अच्छा लगता है. उसकी कम्पनी तरक्की कर रही है. nabbo solutions नाम है उसका, तथा turbodor.in उसके वेबसाइट का नाम है. अगले वर्ष तक सम्भवतः वे संख्या में बढ़ जायेंगे, अभी कुल ७-८ लोग हैं और काम बढ़ेगा तो लोग भी चाहिए. वह जनवरी में आयेगा तब विस्तार से बतायेगा, अभी तो फोन पर हर दिन कोई न कोई बात बताता है. मार्च-अप्रैल में वे उसके पास जायेंगे, जब माँ-पिताजी घर जायेंगे. माँ की सेहत पहले से ठीक है, बस मानसिक रूप से वह कुछ असुरक्षित महसूस करती हैं. पिताजी अपने को व्यस्त रखते हैं और खुश भी !

कितना कुछ पढ़ने को एकत्र हो गया है, ढेर सारी पत्रिकाएँ हैं ही. नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’, चित्रा बनर्जी की ‘illusions of palace’, रवीन्द्र नाथ टैगोर की ‘गीतांजलि’ भी लाइब्रेरी से लायी है. हिंदी पुस्तकालय से लायी आठ पुस्तकों में से ‘मीरा’ पर आधारित उपन्यास पढ़ना आरम्भ किया है. दिसम्बर का आरम्भ हो गया है. अभी-अभी एक बुजुर्ग परिचिता का फोन आया, वह अपनी बहू के व्यवहार से दुखी हैं, वह भी उनके व्यवहार से दुखी होगी. कल दोपहर को नैनी आई थी, वह अपनी नई मालकिन के बर्ताव से दुखी थी, यकीनन मालकिन उसके आचरण से दुखी रही होगी. यहाँ उनके घर में काम करने वाली नैनी भी दुखी है अपने पति से, जो उससे नाराज है. इस जगत में सभी तो दुखी दिखायी देते हैं. कोई एक-दूसरे को नहीं समझता. लेकिन यही तो होना ही चाहिए. जब सभी की बुद्धि पर मोह का पर्दा पड़ा हो तो कोई खुश कैसे रह सकता है. उनका मन ही दुःख का जनक है और मन नाम है अहंकार का, अहंकार पुष्ट होता है अपनी छवि को पुष्ट करने से, छवि पुष्ट होती है अपने बारे में सत्य-असत्य धारणाएं पालने से. इच्छाओं की पूर्ति होती रहे तो भी ‘मैं’ पुष्ट होता है. अपने में कोई सद्गुण हो या न हो पर होने का वहम हो तो भी अहम पुष्ट होता है और यह अहंकार दुःख का भोजन करता है. जब वे अपने ही बनाये भ्रम को टूटते देखते हैं तो भीतर छटपटाहट होती है, यह सब सूक्ष्म स्तर पर होता है इसलिए कोई इसे समझ नहीं पाता. वही समझता है जो अपने भीतर गया हो जिसने मन का असली चेहरा भली-भांति देखा हो, जो मन को ही स्वयं मानता हो वह कैसे इसे पहचानेगा. इसलिए जगत में कोई दोषी नहीं है अथवा तो सभी दोषी हैं. संतजन यही तो कहते आए हैं, जो जगा नहीं है, वह दुःख पाने ही वाला है !


लगभग दो हफ्ते पहले जो स्वप्न देखा था आज वह सत्य हो गया. सुबह छह बजे छोटे भाई का फोन आया कि बड़े चाचाजी का कल रात को देहांत हो गया. उनके पुत्र से बात हई तो उसने कहा, रात को बारह बजे उठकर उसने देखा तो उनके हाथ-पाँव ठंडे थे तथा आँख नहीं खोल रहे थे, पता नहीं कब उनके प्राण निकल गये थे. रात को ही एक बुजुर्ग महिला को वह ले आया था जो रिश्ते में स्वर्गीया चाचीजी की मामी हैं. आस-पास की महिलाएं भी आ गयी हैं तथा छोटी बहन को सांत्वना दे रही हैं. उसके पति भी आ गये हैं. 

Sunday, June 19, 2016

स्वप्न और स्वप्न


जून का व्यवहार उसके प्रति ज्यादा प्रेमपूर्ण हो गया है, सदा ही रहता है, बस कभी-कभी वह अपने पूर्वाग्रहों के कारण नाराज हो जाते हैं. सिंगापुर जाने के लिए उन्होंने टिकट बुक करवा ली है. अगले वर्ष के प्रथम माह के पहले सप्ताह में वे जायेंगे. नन्हा यहीं रहेगा. आज सुबह एक अजीब स्वप्न देखा. किसी खुले स्थान में जहाँ चारों ओर छोटे-छोटे पत्थर बिखरे हुए हैं, वह है तथा पिताजी जैसा कोई व्यक्ति है, वह धोती-कुरता पहने है, भीड़ पता नहीं क्यों अचानक बेकाबू हो जाती है और लोग एक-दूसरे पर पत्थरों की बौछार करने लगते हैं. वे भी निकलने का प्रयास करते हैं, वह व्यक्ति भागता है, पर गिर पड़ता है और उसके नाम के साथ राम कहते हुए उसके सामने अपना दम तोड़ देता है. वह उसके हाथों पर टिका है, कितना अजीब स्वप्न है यह, अतीत का कोई दृश्य या भविष्य की चेतावनी ! आज छोटी बहन से बात की, वह भी उस अंतहीन सुख की तलाश में है, अपने मन को समझने का प्रयास कर रही है. संसार तो उन्हें उलझाने का प्रयास करता ही रहेगा, पर जिसे एक बार अपने भीतर एक ऐसी दशा का का अनुभव हो गया है जहाँ कोई हलचल नहीं है तो वह मुक्त है. उसे ‘तुम्हारे लिए’ कविता याद करनी है, इस बार क्लब में पढ़ने के लिए.

आज सुबह प्राणायाम के बाद मन जैसे रहा ही नहीं, केवल शुद्ध चेतना ही शेष रही जो असीम अनंत आकाश में उड़ान भर रही थी, बहुत देर तक उस अनुभव की याद बनी रही, भीतर तक जैसे ठंडक भर गयी थी. आज बड़ी भांजी के देवर व उसकी पत्नी के लिए एक कविता लिखी, कल उसे भेजेगी,  जब जून उसे चित्र या बार्डर आदि से सजा देंगे.


नवम्बर का अंतिम दिन ! समय कितनी जल्दी बीत जाता है, उम्र के एक-एक दिन को काल निगल ले जाता है. क्लब की पत्रिका के लिए उसे अन्य चार कविताएँ मिली हैं, अपनी लिखी एक कविता तथा एक छोटी नाटिका.. .जालोनी क्लब की पत्रिका के लिए यात्रा विवरण देगी तथा ‘आयल किरण’ कम्पनी के राजभाषा अनुभाग की पत्रिका के लिए पर्यावरण पर लिखी कविता. नये वर्ष के आने में मात्र एक महीना शेष है. वे हर बार नये साल के लिए कितने स्वप्न देखते हैं, कितने नियम बनाते हैं, कितने लक्ष्य तथा उद्देश्य रखते हैं, कुछ दिनों तक उनकी चमक शेष रहती है फिर सब पूर्ववत हो जाता है. स्वप्न देखने तथा ऊंचे-ऊंचे लक्ष्य बनाना तो वे फिर भी छोड़ नहीं सकते. वह भी नये वर्ष में कुछ विशेष करना चाहती है, मृणाल ज्योति की अधिक से अधिक सहायता करना, एक नई किताब लिखना, एक योग कक्षा चलाना. लेडीज क्लब के लिए योग व प्राणायाम का एक कैम्प लगाना. ध्यान सिखाना और शिविर अटैंड करना. गुरूजी से मिलना. इस समय अन्य कुछ स्मरण नहीं आ रहा है पर शुभ संकल्प कई बार आते हैं जो इस सूची में जुड़ते जायेंगे !

Saturday, June 18, 2016

हरियाली और हवा की गुपचुप


अभी दो नहीं बजे हैं, आकाश बादलों से घिरा है, ठंड भी बढ़ गयी है. उसने लंच के बाद जून के जाने पर कम्प्यूटर ऑन किया. छोटी व बड़ी बहन के मेल थे. सद्गुरु का विस्डम संदेश भी था. दिनोंदिन जिसकी भाषा परिष्कृत होती जा रही है या वह ज्यादा गहराई से समझने लगी है, कितने कम शब्दों में कितना सटीक उत्तर वे देते हैं, अद्भुत है उनका ज्ञान, अद्भुत हैं वे ! परसों एक बुजुर्ग परिचिता का जन्मदिन है, उनके लिए कविता लिखी है. परसों ही सत्संग भी है, जून को उसका वहाँ जाना पसंद नहीं है और उनकी इच्छा के खिलाफ कुछ करने का अर्थ है घर में अशांति का पदार्पण ! उसका मन (आश्चर्य है कि अभी तक वह बचा है) विद्रोह कर रहा है. आज सुबह सुना था इच्छा शक्ति उमा कुमारी इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती, यही तो विडम्बना है. इच्छा से मुक्त होना हो तो उसे समर्पित कर देना चाहिए ! जहाँ कामना है वहाँ सुख नहीं, वहाँ आनंद नहीं, वह भी अपनी सत्संग में जाने की कामना ईश्वर को समर्पित करती है, आगे वही जानें !

दोपहर के दो बजे हैं. बगीचे में झूले पर वह बैठी है, धूप और छाँव दोनों ने जिस पर इस समय अपना अधिकार जमा रखा है. उसके पैर धूप में है शेष भाग छाया में है पर सिर की चोटी पर धूप की तपन का अनुभव हो रहा है, हल्की हवा भी बह रही है. सामने मैजंटा रंग के फूल खिले हैं बायीं ओर एक बड़े प्लास्टिक के गमले में साइकस जाति का एक पादप अपने पूरे गौरव के साथ उगा है. उसका सिर  थोडा भारी है और पेट भी, सम्भवतः वस्त्रों के कारण या सर्दियों की शुरुआत में पौष्टिक भोजन के कारण ! कल शाम को सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, वे संध्या भ्रमण के लिए निकले तो उसने सत्संग में जाने की बात कही, जून ने चुप्पी ओढ़ ली, उसने कहा, उन्हें उसकी जरा भी परवाह नहीं है. पर बाद में लगा यह ठीक नहीं था. उसके भीतर दो व्यक्तित्त्व हैं, एक पूर्ण तृप्त है, वह रहस्यमय है, वह होते हुए भी नहीं के बराबर है, एक दूसरा है जो जग में सबके साथ हिलमिल कर रहना चाहता है. वहाँ जाने अथवा न जाने से उसे कोई हानि या लाभ होगा ऐसा भी नहीं है. हानि-लाभ की अब कोई बात ही शेष नहीं रह गयी है. भजन गाते-गाते भाव में डूबना उसका सहज स्वभाव है, बस इतना ही. सो वह इस नीले आकाश के नीचे चमकते हुए प्रकाश में हरियाली और हवा की इस गुपचुप को सुनते हुए पंछियों के सुर में सुर मिलाकर अपने आप को जीवन की धारा में निर्विरोध बहने के लिए छोड़ देती है ! जो हो सो हो...एक तितली उसके वस्त्रों पर आकर बैठ गयी है, उस पर फूल बने हैं, वह शायद फूल की खोज में ही आई है और रस न मिलने पर भी कैसे आराम से बैठी है.

आज फिर वही कल का सा समय है, झूले पर धूप-छाँव का खेल चल रहा है, जैसे जीवन में प्यार और तकरार का खेल साथ-साथ चला करता है. जून के साथ उसका रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है. शाम को चार बजे मृणाल ज्योति जाना है, विश्व विकलांग दिवस के लिए मीटिंग है. उसके बाद वे उन बुजुर्ग महिला से मिलने जायेंगे जिनका जन्मदिन है.


Wednesday, June 15, 2016

एकांत - एक का अंत


वे कैसे बेहोशी में जीये चले जाते हैं. ऊपर-ऊपर से सब ठीक लगता है पर सब लीपा-पोती ही है, जरा सा खरोंचो तो भीतर की सच्चाई का अहसास हो जाता है. भीतर ज्वालामुखी है, जहर है, क्रोध की आग है, ईर्ष्या है, जलन है और न जाने क्या-क्या है. सारी शुभकामनायें एक झूठ है, सारा स्नेह एक दिखावा है, इन्सान अपने लिए जीता है, अपने स्वार्थ सिद्ध होते रहें तभी तक उसके संबंध सुमधुर हैं. सदियों से, हजारों सालों से संतजन सत्य ही कह रहे हैं. इस संसार से जो आशा लगाता है, उसके हिस्से में दुःख के सिवाय कुछ भी नहीं आता. दुःख से यदि मुक्ति चाहिए तो अपनी आत्मा का आश्रय लेना होगा, परमात्मा का आश्रय लेना होगा, सद्गुरु का आश्रय लेना होगा. जीवन की कटु सच्चाई को कोई जितना शीघ्र समझ ले उतना ही अच्छा है. यहाँ सारे नाते स्वार्थ पर टिके हैं, इन्सान अकेला ही आता है, वह अकेला ही रहता है, और अकेला ही जाता है. इस अकेलेपन को एकांत बनाकर जो अपने भीतर चला जाये और वहाँ सत्य को पा ले तभी उसका जीवन सफल है, वरना तो चिता की आग तक जाते-जाते उसके मन में चिंता की आग कई बार जल-जल कर बुझेगी और बुझ-बुझ कर जलेगी ! इस आग को बुझाने वाला शीतल जल केवल भीतर ही मिल सकता है, उसे तो उस जल का पता मिल गया है !  

आज नई ड्रेस पहनी है जो खास सर्दियों के लिए जून लाये हैं, वह चार-पांच दिनों के लिए गुवाहाटी गये हैं. वह इस कमरे में हैं जहाँ कम्प्यूटर टेबल लगा दी है, जो उनका योग-ध्यान कक्ष है, तथा नन्हा घर आने पर वह यहीं रहना पसंद करता है. पिछली बार आया था तब उसने असमिया, बंगाली तथा पाकिस्तानी गीतों का एक अच्छा संग्रह नेट से किया. आज कुछ देर तक सुना.


जून कल आ रहे हैं, फ्रिज में सब्जियां भी खत्म हो रही हैं और दालें भी, अपने आप भी बाजार जा सकती है पर सोचती है कि एकाध समय यदि कुछ विकल्प ढूँढ़कर काम चलाया जाये तो अच्छा रहे, सभी कुछ हर समय मौजूद हो तो आदमी का मस्तिष्क जड़ हो जाता है. आवश्यकता आविष्कार की जननी है. शाम को यूँ तो क्लब की तरफ से बाल दिवस के लिए उपहार लेने जाना है. इस बार लेडीज क्लब सामान्य बच्चों के लिए केवल एक फिल्म दिखा रहा है और विशेष बच्चों के लिए सैंडविच, उबले अंडे, चार्ट पेपर, साबुन, टॉवल व एक बाथ टब भी दे रहा है, साथ ही कुछ गेंदें व गुब्बारे भी ! बबल मेकर भी दिया जा सकता है. अगले दिन वे भी बाल दिवस मनाएंगे ‘अंकुर’ के बच्चों के साथ, केक या अन्य़ कोई मिठाई वह घर से बना कर ले जा सकती है. उन्हें पेपर प्लेट्स भी खरीदनी होंगी. इस समय माँ-पिताजी चाय पीकर आराम कर रहे हैं. माली बगीचे में काम कर रहा है, चारों ओर सन्नाटा है, एक शांति ! उसके भीतर भी गहन शांति है, तभी भीतर का संगीत सुनाई दे रहा है. आज ध्यान में एक नवीन अनुभव हुआ, कुछ क्षणों के लिए स्वयं का बोध भी जाता रहा. सद्गुरु का शिव सूत्र सुना, कितना अद्भुत ज्ञान है, बात तो वही एक है, लेकिन उसे कहने के हजार-हजार तरीके हैं. सदियों से संत कहते आ रहे हैं, लेकिन हर किसी का ढंग अनोखा है, एक ही चेतना अनंत रूपों में विराज रही है. वह स्वयं अद्भुत है तो उसका बखान करने वाले भी अनोखे क्यों न हों ?

जन्मदिन की कविता


अक्तूबर का अंतिम दिन, श्रीमती गाँधी की पच्चीसवीं पुण्यतिथि ! अभी कुछ देर पहले दीदी से बात की. छोटा भांजा स्वीडन से स्वाइन फ्लू जैसे लक्षण लेकर लौटा है. बड़ी भांजी को सासूजी तथा माँ दोनों ने कहा था कि शुरू के तीन महीनों में ज्यादा घूमना-फिरना ठीक नहीं है पर वे पहले से ही टिकट कटा चुके थे, जो डर था वह सही निकला. दीदी ने पिताजी, छोटे भाई, बहन सभी की बातें बतायीं. पिताजी ने उन्हें मेल भेजा है इस उम्र में वे भी कम्प्यूटर से परिचित हो रहे हैं. उन्होंने उसे भी अवश्य भेजा होगा.
उसकी एक सखी का जन्मदिन इसी महीने है, उसके लिए एक कविता लिखनी है. वह अपने बेटी की चिंता करती है, सास की फ़िक्र करती है. घर की चिंता करती है. सबकी सेहत का ध्यान रखती है, घर की सजावट का ध्यान रखती है. ये सोचते ही उसने लिखना शुरू किया-

धूप गुनगुनी हवा में ठंडक
फूलों वाला आया मौसम,
जन्मदिवस के लिए खुशनुमा
मंजर लेकर आया मौसम !

दिन का चैन रात की नींदें
जिस चिंता में उड़ गयीं अपनी,
उस चिंता को भूल हँसी का
जश्न मनाने आया मौसम !

घंटों लगें रसोईघर में
सेहत सबकी ठीक रहे,
गोभी, मटर, सलाद सभी को
खौलाने का आया मौसम !

रंगों से सज गयीं दीवारें
दरवाजे भी चमक उठे अब
कांच के बर्तन धो-पोंछकर
चमकाने का आया मौसम !

इसकी चिंता, उसकी चिंता
दुनिया भर की सिर पे चिंता
जन्मदिवस का पा तोहफा
मुस्काने का आया मौसम !

नवम्बर का आरम्भ हुए छह दिन हो गये हैं. आज पहली बार डायरी खोली है. परसों मृणाल ज्योति गयी थी, एक अध्यापिका ने कहा बच्चों की पुरानी साइकिलें यदि मिल सकें तो अच्छा है. क्लब के बुलेटिन में लिखने के लिए सेक्रेटरी को संदेश भिजवा दिया है उसने. क्लब के कार्यक्रम में वह उसकी कविता ‘तुम्हारे कारण’ पढ़वाना चाहती हैं. एक कविता उसे पत्रिका में छपने के लिए भी देनी है.


कल छोटी भांजी, चचेरी बहन व एक सखी की बिटिया से बात की तीनों कितनी भिन्न हैं पर तीनों ही एक सूत्र में बंधी हैं, वह सूत्र है सुख-दुःख का सूत्र, देखा जाये तो वे सभी आपस में ऐसे ही बंधे हैं ! छोटी ननद का फोन आया है, वह अस्वस्थ है, घबराहट होती है तथा कमजोरी है. रक्तचाप भी घटता-बढ़ता रहता है, डाक्टर ने थायराइड का टेस्ट बताया है. अपने तन को स्वस्थ रखना कभी-कभी बहुत कठिन हो जाता है. सब कुछ सामान्य होते हुए भी कोई अस्वस्थ हो सकता है. उसकी सखी ने कहा उसके जन्मदिन पर जो कविता उसने लिखी थी, वह सभी रिश्तेदारों को भेज दी थी, सभी ने तारीफ़ की है. लिख रही थी कि जून आ गये, शाम को क्लब में फिल्म है, उसका पोस्टर लाये थे, ‘लाइफ पार्टनर’ वे शाम को गये, पूरी फिल्म नहीं देख पाए, शेष भाग पड़ोसिन को फोन करके पूछा.  उसने अपने बगीचे के (कोल) केले भिजवाये हैं. दो तीन दिन पूर्व उनके यहाँ भी एक गुच्छा तोड़ा गया था, पक जाने पर भिजवायेगी. 

Thursday, June 9, 2016

आँखों की बीनाई


अभी कुछ देर पहले वह जून के सहकर्मी के यहाँ होकर आई. उनकी पत्नी अपने पिता की मृत्यु पर ग्यारहवां मना रही हैं पूरे उत्साह से, पति बाहर देश गये हैं. कल सुबह वह मृणाल ज्योति गयी थी. बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी योगासन, प्राणायाम कराया. लड्डू बांटे, एक सखी उसके साथ थी. आज कितने वर्षों बाद उसने जून को एक पत्र लिखा, वे उससे नाराज हैं और हर बार की तरह उसकी दृष्टि में नाराज होने का कोई कारण नहीं है. हरेक के सोचने का तरीका भिन्न होता है, दृष्टिकोण भिन्न होता है. उनकी नजर में गृहणी की जो तस्वीर बनी हुई है कि पति घर आये तो पत्नी उसका स्वागत करती हुई घर पर ही मौजूद मिले, पति के घर पर रहते वह अकेले कहीं न जाये. यह तस्वीर बहुत पुरानी हो गयी है. उन्होंने स्वयं ही इंडिया टुडे में एक लेख पढ़ने को उसे कहा था, जमाना बदल रहा है, अब महिलाओं को घर की चाहरदीवारी में बंद नहीं रखा जा सकता. दूसरी बात यह कि पिछले दस-बारह वर्षों से  वह ध्यान का अभ्यास कर रही है. आर्ट ऑफ़ लिविंग का कोर्स किये उन्हें आठ वर्ष हो गये. उसके सोचने का ढंग बदलना स्वाभाविक है. उसके लिए परिवार का अर्थ केवल चार-पांच प्राणी ही नहीं रह गया है. सारी दुनिया ही उसका परिवार हो गयी है, अगर उसका थोड़ा सा प्रयास किसी के काम आ सकता है तो उसे करके जो आंतरिक ख़ुशी मिलती है उन्हें इसका अंदाजा नहीं है. वह किसी के काम आ सकें तभी उनके होने की सार्थकता है. रही बात सत्संग की तो उसने पहले ही सोच लिया था जब समय बदल जायेगा तब भी वह महीने में एक या दो बार जाएगी. उनके विवाह को दो दशक से अधिक हो गये हैं, एक लम्बी यात्रा उन्होंने साथ-साथ तय की है, कहीं-कहीं कांटे भी मिले हैं लेकिन ज्यादातर फूलों का संग रहा है. उसने जून से कहा, वे जो अपने स्वभाव से विवश होकर नाराज होने पर चुप्पी ओढ़ लेते हैं, इससे उनके कितना नुकसान होता है इसका उन्हें पता ही नहीं. यह सिर्फ आदत है और कुछ नहीं. पहली बार यदि किसी के मन ने निर्णय लिया कि यह बात ठीक नहीं है बस इसके बाद बात उसके हाथ से निकल जाती है. भीतर विषैले हार्मोन्स अपने काम करना शुरू कर देते हैं, बेचैनी उसे उनके कारण ही हो रही होती है, पर वह सोचता है, बाहर जो घटा वह उसके दुःख के लिए जिम्मेदार है. ध्यान में उसने इसका अनुभव स्वयं किया है, इसलिए ही उसने दुखी होना छोड़ दिया है. वह उन्हें हर रूप में हर हाल में बिना किसी शर्त के प्रेम करती है. उनके भीतर भी प्रेम का सोता छिपा है उसे मुक्त होने दें, सहज रहें और अपने मन को इतना विशाल बनाएं कि कोई उससे बाहर न रहे ! फिर उन्हें दुःख की छाया भी न छू पायेगी. अंत में उसने उन्हें सदा प्रसन्न रहने की शुभकामनाएं दीं. 

Cataracts होने की शुरुआत है उसकी दायीं आँख में, कल वे डिब्रूगढ़ गये थे. डा. अग्रवाल ने बताया, कुछ दिनों से देखने में पढ़ने में परेशानी हो रही थी. आँखों में हल्का दर्द भी था. चश्मा बनने भी दिया है. प्रोग्रेसिव लेंस है, दूर का और पास का दोनों एक साथ. जून को भी दायीं आँख में कमजोरी के कारण दवा डालने को दी है. जो उसे दिन में चार बार डालनी थी पर भूल गयी. जून उसके लिए ‘आंखों के लिए योग’ का CD लाये हैं तथा नेट से cataracts पर जानकारी भी. रामदेव जी बता रहे हैं सुबह उठकर आँखों पर ठंडे पानी के छींटे मारने से तथा बाल्टी में आँखें खोलने व बंद करने से आँखें स्वस्थ रहती हैं. लौकी का जूस तथा आंवले का रस लेने से भी आँखें ठीक रहती हैं. कैट्रेक का मुख्य कारण है ओक्सिडेटिव स्ट्रेस जिसको दूर करने का उपाय है एंटी ओक्सिडेंट, जिसका स्रोत है विटामिन ए, सी, इ तथा ल्यूटिन और फल व सब्जियाँ.


Tuesday, June 7, 2016

वसीयतनामा


कई बार मन में विचार आया है कि उसे अपनी वसीयत लिख देनी चाहिए. मन ही मन कई बार लिख भी चुकी है. सर्वप्रथम मृत्यु की बात. अंतिम श्वास अस्पताल में नहीं अपने घर पर ही ले. यदि कोई रोग हो जाये तो बिना कारण देर तक दवाओं के सहारे जिलाने का प्रयत्न नहीं किया जाये. उसकी सभी वस्तुएँ, आभूषण आदि दान कर दिए जाएँ. मृणाल ज्योति तथा आर्ट ऑफ़ लिविंग ये दो संस्थाएं इसे ग्रहण करें ! जहाँ तक सम्भव हो मानव को अपने हाथों से ही दान करके जाना चाहिए ! आज दशहरा है, सत्य की विजय असत्य पर. राम की विजय रावण पर. दुर्गा की शक्ति लेकर राम आत्मा ने रावण अहंकार पर विजय पाई और सीता भक्ति को प्राप्त किया लक्ष्मण वैराग्य की सहायता से...

शक्ति पूजन से हुए कृतार्थ
रामात्मा ने पाया संबल,
अहंकार रावण का कर वध
सीता का प्रेम मिला निर्मल
जय दुर्गा ! जय राम दिलाई
विजयादशमी की बधाई !

आज सुबह एक अनोखा अनुभव हुआ. श्वासों के रूप में अनंत का अनुभव. सुना था कि प्राण परम हैं,  सच तो है श्वास है तभी तक तो आत्मा इस देह के साथ बंधी है. श्वासें कितनी हल्की हो गयी हैं तब से, कितनी मधुर और सुगंध से भरी श्वासें ! सद्गुरु कहते हैं कम्प रहित श्वास ही ध्यान है, सो एक बार पुनः ध्यान घटा है. श्वास स्थिर हुई है तो मन कितनी आसानी से ठहर गया है. प्राणायाम आज पूर्ण हुआ ऐसा लगता है. नासिका के अग्रभाग में सारा रहस्य छिपा है एक बार एडवांस कोर्स में सुना था. श्वासें कितना आनंद छिपाए हैं अपने भीतर, श्वास-श्वास में उसी का नाम छिपा है, सोहम्  छिपा है. ये सारी शास्त्रोक्त बातें सत्य प्रतीत हो रही हैं. कभी-कभी श्वास रुक जाती है, कभी अति सूक्ष्म हो जाती है, कितना अद्भुत अनुभव है यह !


आज गर्मी बहुत ज्यादा है जैसे मई-जून का महीना हो, पसीना सूखता ही नहीं है, धूप से या किसी अन्य कारण से सिर में हल्का दर्द है. कल शाम वे जून के एक सहकर्मी के यहाँ गये, उनके ससुर का देहांत हो गया था, लगा ही नहीं कि किसी ऐसे परिवार से मिल रहे हैं जहाँ एक दिन पूर्व मृत्यु घटी है. सभी संयत थे और सामान्य व्यवहार कर रहे थे. बचपन में देखती थी कि मृत्यु होने पर लोग दहाड़ें मारकर रोते थे. अब मौत को भी सहजता से स्वीकारने लगे हैं लोग, परिपक्वता की निशानी है. कल उस परिचिता के यहाँ रात्रि भोज है, जिसके ससुर का देहांत पिछले दिनों हुआ था. तैयारियों में लगे होंगे सभी और कुछ दिनों में ही सामान्य हो जायेंगे. उनका जीवन यूँ ही चलता रहेगा, नये-नये शरीर धारण करते रहेंगे. आज ओशो की आत्मकथा का वह अंश पढ़ा जहाँ वह अपने भीतर गौतम बुद्ध की आत्मा का प्रवेश होना स्वीकार करते हैं. कितना विचित्र रहा होगा उनका अनुभव !

Monday, June 6, 2016

शारदीय नवरात्रि


आज से नवरात्रि का उत्सव आरम्भ हुआ है, वह एक संदेश लिखना चाह रही है जो दुर्गा पूजा के साथ-साथ नवरात्रि तथा विजयादशमी का भी संदेश देता हो. शक्तिस्वरूपा देवी से वे शक्ति की प्रेरणा पायें, शरदकाल के आश्विन शुक्ल पक्ष में प्रकृति के अनुसार सादा भोजन कर शरीर व मन को पुष्ट करें. विजयादशमी पर अपनी विजय के लिए निश्चिन्त हो जाएँ, दुर्गापूजा का उत्सव कितना उत्साह व उमंग अपने साथ लाता है. ये सारी बातें छोटे से संदेश में समा जाएँ ऐसा उसका प्रयास रहेगा.

आज ईद है. मुस्लिम लोगों का उत्सव जो रमजान के पूरे एक महीने बाद आता है. आज ही नवरात्रि का तीसरा दिन भी है. कल शाम एक परिचिता के ससुर का डिब्रूगढ़ में देहांत हो गया. जून ने सुना और फिर भी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार क्लब गये फिल्म देखने, या तो उनको दिल की कोई खबर ही नहीं है या वे इससे बहुत ऊपर उठ गये हैं अर्थात मृत्यु उनके लिए सामान्य घटना है. वह पूरी फिल्म नहीं देख पाई. हिंसा और अभद्रता के सिवा उसमें कुछ भी नहीं था. यही आजकल समाज में हो रहा है सम्भवतः. सुबह वे उस परिचिता के यहाँ गये तो पहले ही मृत शरीर को ले जाया जा चुका था. उसकी सास बहुत रो रही थीं, और इक्यानवे वर्षीय अपने लम्बे समय से अस्वस्थ पति की मृत्यु का शोक ही नहीं मना रही थीं, बल्कि इलाज ठीक से न होने की शिकायत कर रही थीं, आने वाले लोगों से अपने ही पुत्र की शिकायत. इतनी उम्र बिता लेने के बाद भी लोग कितने अज्ञानी बने रहते हैं !


टीवी पर मुरारी बापू गोपी गीत मानस पर व्याख्यान दे रहे हैं. वह राम और कृष्ण में कोई भेद नहीं देखते. ब्रह्म एक है वह सर्वव्यापक है पर कभी-कभी वह मानव रूप धर के आता है, अपनी सारी कलाओं के साथ ! आज एक और मृत्यु की बात सुनी. एक परिचिता को ब्रेन ट्यूमर हुआ था, डेढ़ वर्ष पूर्व लंग कैंसर हुआ था. अंतिम समय में वह बिलकुल निष्क्रिय हो गयी थी, बोल भी नहीं पाती थी. बातूनी सखी के अपनी व्यथा सुनाई, वह अपने शरीर से परेशान है जो रोगों का घर है. जीवन में दुःख है, जीवन रहस्यमय है. यहाँ आनंद भी उतना ही है, कब क्या मिलेगा कुछ कहा नहीं जा सकता ! असमिया सखी ने अपने एक नैनी की व्यथा कथा सुनाई, वह उसके लिए कुछ सहायता राशि एकत्र करना चाहती है. उसके इलाज के लिए तथा जब तक वह ठीक नहीं हो जाती उसके भोजन आदि के लिए. उसके हृदय में दुखियों का दर्द करने का जज्बा भरा है, ईश्वर की कृपा हुई है ! जून ने आज उसकी तीन किताबें AIPC के लिए खुर्जा भेजी हैं, कोई रोशनारा हैं जो दिल्ली में कवयित्री सम्मेलन करने जा रही हैं. आज बड़ी ननद को कल्याण पत्रिका भी भेजनी है. नन्हे की MCA की किताबें भेज दीं. जून आजकल बहुत व्यस्त हैं फिर भी ये सारे काम कर दिए. जिन दिनों वे व्यस्त रहते हैं, ज्यादा खुश रहते हैं ! परमात्मा को कुछ करना शेष नहीं है, पर वह कार्यरत है ! 

Friday, June 3, 2016

आत्मा नर्तकः


आज सुबह गुरुकृपा का बादल बरसा. कैसा अनोखा अनुभव था, सारे संदेह मिट गये. आत्मा की कैसी स्पष्ट अनुभूति ! मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार से परे अपने सही स्वरूप की प्रतीति हुई, ऐसा लगा जैसे एक पर्दा हट गया हो. कृतज्ञता के अश्रु झलक आये, फिर झरनों की सी खिलखिलाहट भी भीतर भर गयी. शरीर पृथक है, प्राण पृथक है, वे साक्षी स्वरूप आत्मा हैं, चैतन्य शक्ति हैं जो शांति स्वरूप है, आनन्द व सुख स्वरूप है, पावन है, दिव्य है, सारे अवगुणों की सीमा जहाँ समाप्त हो जाती है, सारा अज्ञान मिट जाता है, वहाँ उस प्रकाश पूर्ण सत्ता का आरम्भ होता है. सदियों से जन्मों से मन जिस अंधकार में भटक रहा था वह जैसे नूर मिलते ही छंट गया है, अब कोई भ्रम नहीं रहा, कोई कामना नहीं रही, कोई वासना नहीं रही, अब शेष है तो केवल एक चिर स्थायी शांति जो आनंद से भरी है, अनोखी है यह अवस्था ! सारा अतीत जैसे किसी और के साथ घटा था, वह कोई और था, इसे ही सद्गुरू मृत्यु कहते हैं, वह जो व्यक्ति पहले था उसकी मृत्यु हो गयी यह जो व्यक्ति अब है यह बिलकुल ही नया है, समय से पूर्व कुछ नहीं होता. पकते-पकते मन झर गया है, अब इस देह से जो भी होना है, वह परमात्मा के द्वारा ही होना है, क्योंकि वह तो अब है ही नहीं ! जन्म जन्मांतरों के गुनाह योग अग्नि में जल जाते हैं, भीतर गहराई में जो ज्ञान छिपा है तभी बाहर आता है जब गुनाहों की, विकारों की परतें जल जाती हैं, तब वे पहली बार विश्राम को उपलब्ध होते हैं !  

आज पुनः क्रिया के बाद अनोखा अनुभव हुआ, परमात्मा के साथ अपनी एकता का अनुभव ! बचपन से किये गये सारे दुष्कृत्य एक-एक कर याद आए और माया के प्रभाव में किये वे सारे कर्म एक साथ ही जल गये. मन हल्का हो गया है कोई अतीत रहा ही नहीं, जो कुछ भी उनसे अज्ञान दशा में होता है, ज्ञान मिलते ही उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता, तभी संत कहते हैं कि इस संसार में अन्याय जैसा कुछ भी नहीं, सभी न्याय है. पिछले जन्मों के भी कई अनुभव पिछले कुछ महीनों में हुए. अस्तित्त्व हर क्षण उन पर नजर रखे है, वह चाहता है कि जीव उसके साथ एक हो जाये. भीतर एक पुलक भर गयी है. गीत और नृत्य सहज ही होने लगते हैं. सभी के भीतर यही आनंद छिपा है, सभी एक न एक दिन इसी आनंद को अनुभव करेंगे. अभी वे स्वयं को मन, इन्द्रियों के घाट पर पाते हैं, उड़ने का तरीका नहीं जानते. चिदाकाश में उड़े बगैर ही वे इस दुनिया से चले जाते हैं. मन्दिर मस्जिद भी लोग जाते हैं तो अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए !

चेतना नित नूतन है. पल-पल बदल रही है. जो घड़ी अभी आई है वह न पहले कभी थी न आगे कभी आएगी, फिर भी वह अनादि है. कितना सुंदर है यह ज्ञान ! परमात्मा सर्वव्यापक है, वह सर्वकालिक है, सर्वदेशीय है, इस क्षण भी वह उन्हें घेरे हुए हैं, कैसी पुलक उठ रही है !


सद्गुरु के प्रति अहोभाव से मन भर गया है. जिनको न कुछ पाने को शेष रह गया ही न कुछ करने को, वही संत जन अहैतुकी कृपा या सेवा कर सकते है. वे जो कुछ करते हैं वह आनंद के लिए,  जिसे वह मिल गया हो अब उसके लिए कुछ पाना शेष नहीं रहता ! प्रतिपल उनका मन आनन्द की खोज में लगा रहता है, ऐसा आनंद जो अनंत राशि का हो तथा जो कभी न छिने न. जिन्हें वह मिल गया उन्हें कुछ करने को शेष रहता नहीं, लेकिन फिर भी वह करते हैं, क्योंकि वह अन्यों को आनंद देना चाहते हैं ! वे केवल कृपा करते हैं, अकारण हितैषी होते हैं, सुहृद होते हैं !