‘मृत्यु के साथ यदि किसी की मित्रता हो तभी वह धर्म के पथ से विमुख रहकर भी प्रसन्न रहने की आशा रख सकता है. ऐसा हो नहीं सकता तो धर्म का पथ चुनना ही पड़ेगा. सजगता का वरण, समता की साधना भी तभी होती है. भीतर आग्रह हो तो अहंकार शेष है, अहंकार की तृप्ति करनी है तो उसे दुःख सौंपना ही होगा. स्वयं को जानना ही धर्म में अर्थात स्वभाव में स्थित होना है. जो स्वयं को जानता है उसे संसार से कोई अपेक्षा नहीं रहती, वह दाता बन जाता है. वह जानता है कि द्वेष करने से वह स्वयं भी उसी की भांति बन जायेगा जो उसके द्वेष का पात्र है. मन रुग्ण होता है तो शरीर अस्वस्थ होने ही वाला है. नकारात्मक भावनाएं देह पर प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकतीं. जितना जितना कोई स्वयं में स्थित रहता है मुक्ति का अनुभव करता है. मुक्ति विकारों से, द्वेष से, दुखों से, वासनाओं से, क्रोध से और व्यर्थ चिन्तन से !’ आज सद्गुरु को सुनकर लगा वह उसके लिए ही बोल रहे थे.
यह जगत एक दर्पण है, उसमें वही झलकता है जो उनके भीतर होता है. भीतर प्रेम हो, आनन्द हो, विश्वास हो तथा शांति हो तो चारों ओर वही बिखरी मालूम होती है, अन्यथा यह जगत सूना-सूना लगता है. यहाँ किस पर भरोसा किया जाये ऐसे भाव भीतर उठते हैं. भीतर की नदी सूखी हो तो बाहर भी शुष्कता ही दिखती है. लेकिन भीतर का यह मौसम कब और कैसे बदल जाता है पता भी तो नहीं चलता. कर्मों का जोर होता है अथवा तो पापकर्म उदय होते हैं या वे सजग नहीं रह पाते. कोई न कोई विकार उन्हें घेरे रहता है तो वे भीतर के रब से दूर हो जाते हैं. हो नहीं सकते पर ऐसा लगता है. यह होना ठीक भी है क्योंकि भीतर छिपे संस्कार ऐसे ही वक्त अपना सिर उठाते हैं. पता चलता है कि अहंकार अभी गया नहीं था, सिर छिपाए पड़ा था, कामना अभी भीतर सोयी थी. ईर्ष्या, द्वेष के बिच्छू डंक मारने को तैयार ही बैठे थे. अपना आप साफ दिखने लगता है. साधना के पथ पर चलते-चलते जब वे यह सोचने लगते हैं कि मंजिल अब करीब ही है तो अचानक एक घटना ऐसी घटती है जो इशारा करती है कि रुको नहीं, अभी और चलना है. इस यात्रा का कोई अंत नहीं, इसमें मंजिल और राह साथ-साथ चलते हैं. जैसे कोई क्षितिज की तरह पास आता मालूम होता है निकट पहुंचो तो फिर उतना ही दूर..जिसने माना कि उसने जान लिया है उसका ज्ञान चक्षु बंद हो जाता है. वह खुला रहे इसके लिए सतत जिज्ञासु बने रहना होगा, सदा सजग रहना होगा, सदा स्वयं के भीतर झाँकने का काम करना होगा, कौन जाने कहाँ कोई विकार छिपा हो जो सही मौसम की प्रतीक्षा कर रहा हो !
स्वराज चेतना क्या है ? सत्य की खोज और मानव मात्र को जिसकी तलाश है क्या वही नहीं है स्वराज्य चेतना..आज मुरारी बापू की ‘मानस महात्मा’ को कुछ देर सुना. भीतर सद्विचारों की प्रेरणा जगाती है उनकी कथा. उन्हें भी अब कुछ करना होगा, मात्र विचार ही पर्याप्त नहीं है. उसे अपने लेखन को गति देनी होगी. हर कोई अपना-अपना कार्य ठीक से करे तो समाज पुनः अपने मूल्यों के प्रति जागरूक हो सकता है. उनकी परिचिता बुजुर्ग महिला आज गिर गयीं, उनका कंधा अपने स्थान से खिसक गया है, अस्पताल में हैं, वे मिलने गये थे. आज एक सखी की बिटिया का जन्मदिन है, शाम को पार्टी में जाना है. कल सिंगापुर का शेष विवरण लिखा, अभी टाइप करना शेष है. सुबह प्राणायाम के बाद परमात्मा के साथ एक करार किया, वह उसे प्रकट करेगी और वह उसे अप्रकट करेगा. वह उसके जीवन में झलकेगा बाहर और वह भीतर खत्म होती जाएगी. उसका नाम उसकी शक्ति है और उसका पवित्र स्मरण उसका एकमात्र कर्त्तव्य, शेष तो अपने आप होता जायेगा. परमात्मा उनके भीतर सोया रह जाता है और वे बार-बार खुद को दोहराते चले जाते हैं, व्यर्थ का रोना रोते हैं. वह हर क्षण तैयार बैठा रहता है, सत्य सर्वदा सर्वत्र है !