Saturday, June 25, 2016

वृक्ष की जड़


‘जब तक वे अपने भीतर ईश्वरीय प्रेम का अनुभव नहीं कर लेते तब तक जगत से प्रेम नहीं कर पाते, तब तक जगत से किया उनका प्रेम उन्हें दुःख ही दे जाता है क्योंकि उस प्रेम में बंधन है, पर जब एक बार उन्हें अपने भीतर प्रेम का अनुभव हो जाता है बाहर सहज ही वह मुक्त भाव से बिखरने लगता है, जैसे कोई फूल अपनी खुशबू बिखेर रहा हो या तो कोई भंवरा अपना संगीत अथवा तो कोई झरना अपनी शीतलता भरी फुहार ! वे तब स्वयं मुक्त होते हैं और किसी को बाँधना भी नहीं चाहते. तब जगत उनका प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह जाता बल्कि उनका अपना अंश हो जाता है, वे इतने विशाल हो जाते हैं कि सारे लोग उनके अपने हो जाते हैं !’ कितने उच्च भाव हैं ये पर कितने सूक्ष्म भी, हाथ से फिसल-फिसल जाते हैं. इतने वायवीय हैं ये भाव, संसार की कठोरता से टकराकर ये कभी-कभी चूर-चूर हो जाते हैं. मन की इच्छा का, आत्मा के ज्ञान का और शरीर के कर्मों का जब मेल नहीं बैठता तो ये भाव भीतर एक कसक भी उत्पन्न कर देते हैं. उस कसक के प्रभाव में यदि वे अक्रिय होकर बैठ गये तब तो बनती हुई बात भी बिगड़ जाती है, नहीं तो सीखा हुआ ज्ञान व्यर्थ प्रतीत होने लगता है. मानव हर समय तो समाधि का अनुभव नहीं कर सकता, नीचे उतरना होता है और जीवन क्षेत्र में काम करना होता है. जो भावना के स्तर पर कितना सत्य प्रतीत होता था वह क्रिया के स्तर पर दूर जा छिटकता है. कबीर की सहज समाधि तब स्मरण हो आती है, जो कहती है जब जैसा तब तैसा रे...अर्थात जिस क्षण मन जिस भाव अवस्था में हो उसे प्रभु प्रसाद मानना चाहिए. तब यह कामना भी शेष नहीं रहती कि जो उन्होंने सोचा है वैसा ही घटे, जो तित भावे सो भली !  बस अपना दिल पाक रहे इसकी फ़िक्र करनी है, शेष भगवद इच्छा !  

नाम का सुमिरन यदि ऊपर के केंद्र में चलता रहे तो शरीर में लघुता बनी रहती है. पिछले कुछ हफ्तों से नियमित ध्यान नहीं हुआ. मौसम भी बेहद ठंडा है. शरीर पूर्णतया स्वस्थ नहीं है. मन पर भी इसका असर पड़ता है. मन इस समय सद्गुरू की वाणी सुनने के बाद शांत है, उत्साह से भरा है और परम के प्रति प्रेम का अनुभव हो रहा है ! नन्हा कल डिब्रूगढ़ चला गया, आज बैंगलोर जायेगा, उस दिन उसने कितना सही कहा कि बदले की भावना ही गलत है, यह भाव ही अपने आप में गलत है. इतना ज्ञान जो पुस्तकों में पढ़ा है, दीवार पर लिख कर टांगा है, व्यर्थ है, यदि वे अपने भीतर के नकारात्मक भावों को निकाल नहीं सकते. क्रोध, उपेक्षा, प्रतिशोध, ईर्ष्या ये सारे भाव भीतर हैं, जो कुछ देर के लिए विचलित कर जाते हैं. क्रोध अहंकार का परिणाम है. नन्हे को देखकर संतोष होता है कि वह उस ज्ञान को जी रहा है, जिसे वह केवल धारण करती है. सहज प्रेम व सेवा का भाव भी उसके भीतर है. तन पर प्रकट होने वाला रोग मन के रोग का परिणाम है, जैसे वृक्ष की जड़ धरती के भीतर है वैसे ही मनुष्य की जड़ उसके मन में है ! मन के विचार, भाव, कल्पनाएँ, सोच, चिन्तन, मनन जैसे होंगे, वैसा ही जीवन उनका होगा ! मन से परे है आत्मा, मन यदि शरीर के पीछे चलेगा  तो वह संसारी है और यदि आत्मा के पीछे चले तो सन्यासी है. जो सीढ़ियाँ ऊपर ले जाती हैं, वही नीचे भी लाती हैं. 

No comments:

Post a Comment