Wednesday, December 2, 2015

प्रेमचन्द का साहित्य



टीवी पर भक्ति की लहर बहाते हुए भजन गायक गा रहे हैं. आज सुबह क्रिया के बाद भीतर से जैसे किसी ने कहा कि ध्यान में अद्वैत का पालन होता है, जब आत्मा और परमात्मा के मध्य कोई अंतर नहीं रहता, दोनों एक हो जाते हैं. जब साधक चिंतन-मनन करते हैं अथवा मौन रहते हैं तब द्वैत रहता है. जीवात्मा के रूप में वे मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार के साथ होते हैं, तब वे परमात्मा के अंश हैं. मन लहर है तो आत्मा सागर है, मन बादल है तो आत्मा आकाश है. जब वे व्यवहार जगत में होते हैं, अर्थात वाणी या तन से कुछ काम कर रहे होते हैं तब उस परमात्मा के दास हैं. वह साकार भी है और निराकार भी. उसकी मूर्ति भी उसका साकार रूप है और उसकी बनायी ये चलती-फिरती मानव मूर्तियाँ भी, उनका कर्त्तव्य है इन्हें सुख देना, किसी भी प्रकार से कोई कष्ट न पहुँचाना ! सेवक को अपना सुख-दुःख नहीं देखना है, उसका अहंकार भी मृत हो गया है, क्योंकि वह तो परमात्मा का अंश है, वह शून्य है, ऐसा उन्हें हर पल स्मरण रहे तो सदा वे परमात्मा के साथ हैं !

नन्हे की फ्लाईट छूट गयी, अब वह गोहाटी होकर आएगा ! जून उसे लेने जायेंगे एयरपोर्ट. इस बार जब वह आएगा तो उसे इस बात को समझना ही होगा कि किस प्रकार जीवन जीने की कला सीखी जाती है और हर प्रकार की मुश्किलों से कोई बच सकता है. इस समय सवा दस हुए हैं, टीवी पर भक्ति गीत आ रहा है. प्रार्थना करने से क्या मन वश में हो जाता है, क्या परमात्मा उनके लिए कुछ  कर सकता है जब तक वे स्वयं अपना उद्धार नहीं करते. उनके संकल्प दृढ नहीं होते तभी एक ही गलती बार-बार दोहराते हैं. भजन करने से उतनी देर तो मन स्थिर रहता है, कुछ देर उसका असर भी रहता है. फिर जब-जब उसका स्मरण होता है, मन पावन हो जाता है, लेकिन इस समय उसका मन कुछ बेचैन सा है, जैसे कुछ छूट गया हो. उसे लगता है कि जो भी कार्य करने हैं, उन्हें ठीक से कर नहीं पा रही है, जैसे लिखने के लिए कितना कुछ है पर कुछ भी क्रम से नहीं हो पा रहा है, फिर सोचती है क्या यह आवश्यक है कि वह स्वयं को एक बंधन में बांधे, अपनी प्रतिभा का सही उपयोग नहीं कर पाने पर ( क्या वह वास्तव में प्रतिभा है भी ?) स्वयं को दोषी ठहराए, क्यों न वह सहज होकर जिए, पर सहज होकर जीने के लिए भी अनुशासन की बहुत आवश्यकता है !  

‘कलम का सिपाही’ आज पूरी पढ़ ली, पिछले कुछ दिनों से पढ़ रही थी. प्रेमचन्द का बचपन, उनकी संघर्ष भरी जीवन कथा, उनका अनोखा ज्ञान, साहित्य के प्रति उनकी निष्ठा, किस्सा गढ़ने का उनका अनोखा अंदाज, भाषा पर पकड़, भीतरी विश्वास, फक्कड़पन, गरीबों के प्रति गहरा प्रेम, भोलापन, सादगी और आत्मीयता ! उनके इतने सारे गुणों का परिचय कराती यह पुस्तक बहुत अच्छी लगी. प्रेमचन्द पर एक छोटा सा लेख लिखेगी इस किताब के आधार पर. वह ईश्वर को नहीं मानते थे पर प्रेम उनके भीतर पगा था. वह भाग्यवादी नहीं थे, कर्मकांड में उनका जरा भी विश्वास नहीं था, उन्होंने संस्कृत नहीं पढ़ी पर गीता की स्थित प्रज्ञता उनके भीतर भरी थी, अनोखा था वह इन्सान ! उनकी किताबें उनको अमर कर चुकी हैं, भारत ही नहीं विश्व के साहित्य में अपना स्थान बना चुकी हैं. साहित्य के माध्यम से जन जाग्रति लाने का उनका इरादा कितना दृढ़ था, गरीबी का बोझ सर पर था ही और स्वास्थ्य भी उतना ठीक नहीं था, पर भीतर जो ज्ञान था वह कलम की नोक से कागजों पर अंकित होता जा रहा था. वे भूत की गरिमा के गायन में कभी नहीं लगे, वे वर्तमान को ही देखते थे, उसे ही जीते थे और उसी को सुधारने का प्रयत्न करते थे, अपने वक्त की नब्ज पर उनकी गहरी पकड़ थी !


नन्हे ने उसका पत्र पढ़कर कहा, पढ़ने के लिए ठीक है पर मानने के लिए नहीं, अर्थात ज्ञान केवल सुनने की वस्तु है अपनाने की नहीं ! वे सभी तो यही करते हैं, भीतर तो ज्ञान है पर व्यवहार में नहीं उतर पता, जो व्यवहार में न उतरे वह ज्ञान तो बोझ ही है ! तन यदि स्वस्थ न हो तो मन पर उसका प्रभाव पड़ेगा पर मन यदि पूर्ण स्वस्थ हो तो तन को भी स्वस्थ कर सकता है, मन आत्मा का ही अंश है और आत्मा परमात्मा का ! मन अंततः परमात्मा को ही चाहता है, जगत का कितना भी सुख उसे मिले वह प्यासा ही रहेगा. अनंत को चाहने वाला सीमित से प्रसन्न रहे भी तो कैसे ? अभी उसका मन उस अलौकिक सुख की कामना करता है तभी ध्यान में डूबना चाहता है पर जब इस सुख की चाह भी नहीं रहेगी तब भीतर एक नया सूरज उगेगा, वह सच्चा आत्मबोध होगा, अभी तो एक झलक भर मिली है !   

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