Friday, December 18, 2015

शरद का उत्सव


कैसी अजीब सी गंध कमरे में भर गयी है. जिसका स्रोत पता नहीं चल रहा है. भीतर भी कभी-कभी धुंध छा जाती है, कोहरा छा जाता है जिसका स्रोत अज्ञान के सिवा और क्या हो सकता है. ऐसे लगता है जैसे कुछ खो गया है, पर क्या है उनके पास जो खो सके और यदि खो भी जाये तो उस पर दुखी हुआ जाये इसकी क्या आवश्यकता है. क्योंकि अब खुद के सिवाय सभी कुछ एक दिन खो ही जाने वाला है. खुद तो वे ही हैं, वह खो नहीं सकता, बल्कि वह खो जाये तो बात बन जाये जो जन्मों से बिगड़ी हुई है ! कैसी जड़ता छा गयी है, कुछ ऐसा हो भीतर चेतना खिल जाये !

पिछले कई दिनों से डायरी नहीं खोली. सुबह बीतती है ध्यान व पढ़ने में, दोपहर को पढ़ना-पढ़ाना. शाम को टीवी, टहलना और बस सारा दिन बीत जाता है. जून पिछले हफ्ते बृहस्पति वार को लौटे तब से व्यस्तता थोड़ी सी बढ़ी है, पर इससे पहले बुधवार को भी नहीं लिख पाई थी. आज वर्षा हो रही है, कल तेज धूप निकली थी, जैसे प्रकृति में परिवर्तन होता रहता है, वैसे ही मन का मौसम है, पर वह आकाश जिसमें परिवर्तन होता दीखता है, एक सा है ऐसे ही वह आत्मा जिसमें मन टिका है, सदा एक सा है, वे वही चिदानन्द आत्मा हैं, सो उन्हें मन के बदलते मौसम से परेशान होने की क्या जरूरत है. मनसा-वाचा-कर्मणा वे जो भी क्रिया करते हैं, उनके लिए व सभी के लिए हितकर हो !

आज सुबह साढ़े चार पर उठी, सभी आवश्यक कार्य किये. जून सुबह छह यूरोपियन देशों के बारे में आवश्यक सूचनाएं लाये हैं, जिन्हें पढकर उन देशों के बारे में जानकारी तो प्राप्त करनी ही है एक लेख भी लिखना होगा, जो जालोनी क्लब की पत्रिका में छपेगा जिसके हिंदी भाग की जिम्मेदारी उसे दी गयी है. टीवी पर मुरारी बापू की कथा आ रही है. वह कह रहे हैं, मानव जहाँ है परमात्मा वही  हैं, साधक अपने से दूर होता है परमात्मा से दूर नहीं हो सकता. आज सुबह सद्गुरू को भी शरद उत्सव में भाग लेते देखा, समाधि में लीन हो गये थे, उनके अंग विशिष्ट मुद्रा में स्थिर हो गये थे. अद्भुत रस का प्राकट्य हो रहा था. कोई कितना मौलिक है, प्रमाणिक है, इसका पता चले तो यह भी ज्ञान होता है कि परमात्मा कितना अन्तर में प्रकट है !

पूजा और विजयादशमी का उत्सव समाप्त हो गया. आज सुबह समय पर उठी, कोई ऐसा स्वप्न जो याद रहे कल रात नहीं देखा. पिछले दिनों एक स्वप्न देखा था जिसमें एक रास्ते पर चलते-चलते एक मधुमक्खियों का छत्ता तथा हजारों मधुमक्खियाँ दिखीं, जिनसे घिरने की बाद भी शरीर पर कुछ भी नहीं हुआ क्योंकि शरीर आत्मा का था. हवा की तरह हल्का और पारदर्शी. उड़ता था वह तन हवा में छत तक पहुंच कर नीचे उतर आता था. कितना अद्भुत स्वप्न था. वह आत्मा है यह भाव दृढ़तर होता जा रहा है. भीतर कितनी शांति छाई रहती है जैसे सारी दौड़ समाप्त हो गयी है. क्योंकि वह परमात्मा हर क्षण हर स्थान पर सदा ही साथ रहता है. वे उसे महसूस नहीं कर पाए क्योंकि वे सदा उसे बाहर खोजते थे, जबकि वह भीतर था और सदा रहेगा.


जून दिल्ली गये हैं, परसों लौटेंगे. कल क्लब में मीटिंग है. आज शाम को रिहर्सल के लिए जाना है, इस बार उनके एरिया का कार्यक्रम है. उससे पहले एक सखी आएगी सासु माँ से मिलने. दिन ऐसे बीत रहे हैं जैसे किसी की प्रतीक्षा हो, हर वक्त उस एक की प्रतीक्षा तो रहती ही है. उस ब्रह्म की, उस तत्व की, उस परम सत्य की, उस ज्ञान की, उस परम शांति की.. जिसकी झलकें तो जाने कितनी बार मिली हैं पर अब भी मन तो बना ही हुआ है, वह विकारों से मुक्त भी कहाँ हुआ है ! गुरु का ज्ञान ही उस सत्य की पहचान कराएगा. गुरु पहले परम अज्ञानी बनाता है तभी परमात्मा का ज्ञान फूटता है.   

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