Friday, May 29, 2015

शिशु के नयन


कल शाम को बहुत दिनों के बाद पिताजी से बात की, अच्छा लगा, उन्हें भी अवश्य लगा होगा. कल  योग शिक्षक भी साप्ताहिक भजन में आये थे, उन्हें सर्दी लगी हुई थी पर भावपूर्ण माँ के भजन उन्होंने गाए. उसे माँ शारदा तथा संत श्री रामकृष्ण का स्मरण सत्संग में हो रहा था, सो रात को स्वप्न में उनके दर्शन किये, उनके चुप रहते हुए भी भीतर से जैसे कोई बोल रहा था, जैसे माँ बोल रही थी, अद्भुत था वह स्वप्न ! आज सुबह क्रिया में भी नवीन अनुभव हुआ, क्रिया के बाद ‘सोहम’ शब्द स्पष्ट सुनाई दे रहा था, नाद के बारे में पिछले दिनों पढ़ा भी है. उसे ऐसा लग रहा है अब पिछले कुछ दिनों से आध्यात्मिक यात्रा सुचारू रूपसे चल रही है. वह कान्हा तो अच्छा लगता ही था, रामचरितमानस पढ़ते-पढ़ते तुलसी के राम भी अब अच्छे लगते हैं. कितना प्रेम है राम के अंतर में और कितना प्रेम है तुलसी के हृदय में राम के लिए. भारतीय संस्कृति में धर्म मात्र पढ़ने के लिए अथवा विचारों के लिए ही नहीं है उसे जीवन में उतारने के हजारों ढंग हैं, धार्मिक होने को एक संकीर्ण अर्थ में जब लोग लेते हैं तभी विवाद होता है, धार्मिकता का अर्थ तो है उदारता, सहिष्णुता, प्रेम, करुणा और उस परम आत्मा का साक्षात्कार..इसी जीवन में अपने इन्हीं नेत्रोंसे..उसको जानना और उससे बल पाना, परहित के लिए, यही सद्गुरु बताते हैं !

कल वे अस्पताल गये, एक सखी ने बिटिया को जन्म दिया है, उसको एक नाम नूना ने भी दिया है. उसकी आँखें बहुत स्वच्छ हैं, उनमें से जैसे आत्मा झलकती है. सद्गुरु ने कहा था छह महीने तक बच्चा पूर्णतया निर्दोष होता है, वह ब्रह्म स्वरूप ही होता है. इसी भावना से जब कोई बच्चे का पालन करे तो उसे आनंद का अनुभव होता है. उस आनंद को शब्दों में व्यक्त करना असम्भव है. कल रात को उसने माँ को स्वप्न में देखा, वह किसी स्टेशन पर बैठी है तब अचानक माँ आ जाती हैं. वह भी जानती हैं कि वह शरीर नहीं हैं, नूना भी जानती है कि वह सूक्ष्म शरीर में हैं, पर वह पहले की तरह ही लग रही हैं, पूर्णतया स्वस्थ भी, फिर वह बातें भी करती हैं. वे घर आते हैं, दीदी भी हैं, मेहमान भी हैं, वे सभी को खाने की वस्तुएं देते हैं, माँ को भी, फिर चम्मच गिरने की आवाज आती है तो वह दीदी को कहती है, उन्हें पीने के लिए पानी से भरा गिलास भी देती है. माँ सभी को देख रही हैं, सब उन्हें देख रहे हैं, पर वह ठोस नहीं हैं. उसी स्वप्न में एक कौआ आकर सोये हुए लोगों पर चोंच से आक्रमण करता है, माँ उसे निस्पृह भाव से देख रही हैं. ईश्वर कहते हैं वे स्वयं को गंवाए नहीं, बिखेरें नहीं, आत्मा मन की कल्पनाओं के नीचे सुप्त है, पर है वही जिसकी सबको तलाश है. मौसम अब गर्म होने लगा है. रात को नींद पहले सी नहीं आई. एसी में सोना उसे नहीं सुहाता, हर वर्ष शुरुआत में ऐसा होता है फिर धीरे-धीरे अभ्यास हो जाता है. पर तितिक्षा को तो धारण करना ही होगा. आज जून ने वेज सैंडविच बनाया, बहुत स्वादिष्ट था, नन्हे को भी पसंद आएगा. दीदी ने उस दिन बताया भांजी की बात लगभग तय हो गयी है, उसके लिए दो किताबें भी ली हैं उन्होंने !

पिछले दिनों बहुत कुछ घटा बाहर भी और भीतर भी, बाहर की प्रतिध्वनि भीतर तक सुनाई दी और भीतर की बाहर तक. अब वस्तुएं कुछ स्पष्ट आकार लेती प्रतीत हो रही हैं. जब कोई देहबुद्धि से मुक्त होना चाहता है तो ऐसी बातों का प्रभाव मन पर क्यों लेता है जो उसके विपरीत होती हैं. अहंकार ही इसका कारण है. आलोचना होने पर अहंकार को चोट लगती है और फौरन प्रतिक्रिया होती है, जाहिर है मन के स्तर पर ही होगी, आत्मा के स्तर पर हो ही नहीं सकती. आलोचना को स्वीकार करने का यह अर्थ भी है कि बात सही है और वह इससे मुक्त होना चाहता है. इतनी चेतना रहे तो अंत ठीक होगा, वह एक-एक करके अपनी त्रुटियों को दूर करता चलेगा. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि साधना में कोई व्यवधान न पड़ने पाए, चाहे कुछ भी हो वह स्वयं को कितनी भी आलोचना का शिकार होते पाये या प्रतिक्रिया करते, क्योंकि साधना के पथ पर हर कार्य ईश्वर की इच्छा के अनुसार ही होता है, वह साधक को बेहतर बनाना चाहता है, उसे स्वयं भी यही करना है और ईश्वर इसमें मदद करता है.


2 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को शनिवार, ३० मई, २०१५ की बुलेटिन - "सोशल मीडिया आशिक़" में स्थान दिया गया है। कृपया बुलेटिन पर पधार कर अपनी टिप्पणी प्रदान करें। सादर....आभार और धन्यवाद।

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  2. स्वागत व आभार तुषार जी..

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