Sunday, December 21, 2014

साधना के सोपान


जो कण-कण में व्याप्त है, जो घट-घट में बोल रहा है, जो स्वयं चेतन है पर जड़ रूप  में प्रकट हुआ है, वही परमात्मा है. जो निर्गुण होते हुए भी सगुण रूप धरता है, उसी की एकमात्र सत्ता है, वही है जो भीतर तृप्ति का अनुभव कराता है. आनंद स्वरूप, सत्य स्वरूप, शांत और अनंत वह परब्रह्म सर्व व्यापक है, पर वही अपना आप है जिसे ढूँढने न तो कहीं जाना है न शास्त्रों को घोट-घोट कर पढ़ना है, न ही घोर तपस्या करनी है बल्कि मन को सदा उससे संयुक्त रखना है. शांत, सत्य और आनंद स्वरूप उसका ध्यान करना है. वही उसे निकट लायेगा, मन जब उसी के चिन्तन में डूब जायेगा तो न कोई अभाव रहेगा न दुःख, न चाह, सारा विषाद न जाने चला जायेगा. जैसा कि उसका चला गया है और सदाबहार मुस्कुराहट ने अपना घर बना लिया है. अंतरात्मा के तीर्थ को जानकर ही उस रब को जो सदा से ही था, कोई जान सकता है. जब यह दिव्य ज्ञान  हृदय में परिपक्व होगा तब मुक्ति व भक्ति में प्रवेश मिलता है. आज उसने योग शिक्षक से फोन पर बात की, वह कल उनके घर आ रहे हैं. उसके साथ जून भी बहुत खुश हैं, वह उन्हें लेने डिब्रूगढ़ जायेंगे. गुरू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का कोई भी अवसर छोड़ना नहीं चाहिए, जैसे ईश्वर के प्रति, लेकिन क्या कोई अपने प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करता है, ईश्वर तो अपना आप है न, यूँ देखा जाये तो सभी एक हैं, कहीं भेद तो है ही नहीं, शब्दों की भी एक सीमा है उसके बाद वे व्यर्थ हो जाते हैं, रह जाती है सिर्फ एक अनुभूति और वही अनुभूति उसे गुरू के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने को विवश करती है क्योंकि जैसा बाबाजी भी कहते हैं बारह वर्ष की मनमानी साधना करने से जो लाभ नहीं होता वह गुरू के सान्निध्य में कुछ ही दिनों में हो जाता है !

आज दो बजे योग शिक्षक आयेंगे. उसने स्वयं को सचेत किया. ईश्वर किसी को एक क्षण के लिए भी विस्मृत नहीं करते. जहाँ चाह है वहाँ राह है. जहाँ कृष्ण है वहाँ श्री है. कृपा से ही भीतर के शत्रुओं पर विजय पायी जा सकती है और भीतर की शुद्धता ही व्यवहारिक जीवन में सहज बनाती है, सूझ-बूझ देती है. गुरू ने जो ज्ञान दिया है उससे भी कहीं ज्यादा ज्ञान (क्योंकि ज्ञान अनंत है ) अभी उनसे सीखना है, जो उनके प्रति श्रद्धा का भाव रखकर व सेवा करके ही वे पाने के अधिकारी बन सकते हैं. ज्ञान ही किसी को निस्वार्थ बनाता है, उच्च बनाता है. गुरू के प्रति श्रद्धा दिखाते हुए कभी भी स्वयं को उनके आगे योग्य सिद्द करने की भूल नहीं करनी चाहिए, बल्कि अहम् को पूरी तरह भुलाकर, स्वयं को अकिंचन मानकर जाना चाहिए तभी कृपा प्रसाद मिलेगा. गुरू के सामने उपलब्धियों की कोई कीमत नहीं, एक धूलि कण के बराबर हैं. बाबाजी कहते हैं जो प्रभु का नाम अपना लेता है वह कभी डूबता नहीं यदि किसी को मान चाहिए तो गुरू के पास जाना नहीं चाहिए. अहंकार को पोषणा नहीं है पर उसे तोड़ना है. गुरू की आज्ञा का पालन ही उनकी सेवा है.

जहाँ श्रद्धा होती है वहाँ बुद्धि लगती है अर्थात बुद्धि स्थिर होती है फिर संशय का कोई स्थान नहीं. जहाँ प्रेम होता है वहाँ प्रेमास्पद के सान्निध्य की चाह होती है. ईश्वर के प्रति श्रद्धा और प्रेम दोनों हो तो बुद्धि उन्हीं से युक्त होगी और उन्हें पाने की चाह दृढ़ होगी. कल रात जून ने पूछा, साधना किसे कहते हैं, उनके मन में भी ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न हो रहा है. साधना के विभिन्न सोपान हैं, अभी वे पहली या दूसरी सीढ़ी पर ही हैं मगर ईश्वर की झलक उन्हें अपने अंतर्मन में मिलने लगी है. यह हर वक्त की बेवजह मुस्कुराहट, यह खिला-खिला सा चेहरा और हंसती हुई आँखें यही तो बताती हैं न ‘कोई है’, कोई है जिसे उन्होंने खोज लिया है और जिसने उन्हें खोज लिया है. कल वे डिब्रूगढ़ गये, शिक्षक भिन्न लिबास में थे मगर उनकी बातें उतनी हो मोहक थीं. वे तीन परिवार गये थे, भोजन बनाकर ले गये थे. लौटे तो शाम हो चुकी थी. सुबह ‘क्रिया’ की फिर ‘ध्यान’ भी किया लेकिन लग रहा है कि कहीं कुछ है जो छूट गया है. एक कसक सी है जो हर साधक को सालती होगी तभी तो वह अपनी साधना को और निखारता है. प्रेम के दो अंग हैं संयोग और वियोग. सुख और दुःख मगर इसका दुःख भी मिठास भरा है. उनका हर पल वर्तमान में गुजरे. वाणी और विचारों के प्रति प्रतिपल वे सजग रहें, अध्ययन मनन भी लक्ष्य से दूर ले जाने वाला न हो बल्कि लक्ष्य की ओर ले जाने वाला हो पर अपने कर्त्तव्यों से च्युत भी न हों. ईश्वर के मार्ग पर चलना कितना सरल है पर साथ ही कितना कठिन भी. मन पर सदा नजर रखनी होगी. मन न जाने कितने-कितने रूप बनाकर छलता आया है. कभी यह मन आत्मा और ईश्वर का रूप भी बनाकर छल सकता है, पर सत्य कभी छिपता नहीं !


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