Wednesday, May 24, 2017

बड़ा सा घर


नये घर में उनका तीसरा दिन है. परसों दोपहर बाद वे सभी सामान लेकर यहाँ आ गये थे. पिछले दस दिनों से यानि बुद्ध पूर्णिमा के दिन से उन्होंने शिफ्टिंग का काम शुरू किया. उसी दिन से डायरी के पन्ने कोरे हैं. पहले दिन पूजा का कमरा यानि योग का कमरा ठीक किया. दूसरे दिन किताबें लाये, तीसरे दिन पिताजी के कमरे का सामान. एक दिन छुट्टी की, फिर पांचवें, छठे, सातवें दिन अन्य सामान और अंत में आठवें दिन शेष सारा सामान. अभी तक घर में कुछ न कुछ काम निकल ही आ रहा है, कोई बाथरूम लीक हो रहा था, कोई ट्यूब लाइट काम नहीं कर रही थी. धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा. आश्चर्य है कि उन्हें एक बार भी वह घर याद नहीं आया, ऐसा लग रहा है जैसे वे इसी घर की प्रतीक्षा कर रहे थे. यह उनके स्वप्नों का घर था, बाहर का लॉन इतना बड़ा है कि आराम से एक विवाह की पार्टी हो सकती है. उनके गमले जो वहाँ सिमटे सकुचाये से थे, यहाँ खिल के अपना वैभव दिखा पा रहे हैं, उनके साज-सज्जा के सामान यहाँ कितनी मुखरता से अपना सौन्दर्य प्रदर्शित कर रहे हैं. इतना बड़ा और इतना सुंदर घर उसे ईश्वर की कृपा का अनुभव करा रहा है. इस घर में यह बाहर का बरामदा बैठने के लिए अच्छी जगह है, ऊपर पंखा भी है, सामने ‘नाइन ओ क्लॉक’ के फूल खिले हैं. कुछ ही दिनों में सामने की लंबी क्यारी में लगे जीनिया के फूल खिल जायेंगे. पिताजी अभी तक अस्पताल में ही हैं, उनका स्वास्थ्य सुधर नहीं रहा है, अब दोनों ननदों के आने की प्रतीक्षा है. लगभग दो हफ्तों बाद वे दोनों आ रही हैं, सम्भवतः उन्हें देखकर उनकी तबियत में कुछ सुधार आये.
कल शाम एक मित्र परिवार आया पहली बार इस घर में. नयी नैनी ने पहले दो गिलास शरबत बनाया फिर दो कप लाल चाय. रोज सुबह भी वह नींबू वाली ग्रीन चाय का एक कप लाती है उसके लिए. आज मौसम अच्छा है भीगा-भीगा सा, महादेव का अंतिम भाग आने वाला है. आज बहुत दिनों बाद वह विद्यार्थी आया अपनी नई साईकिल पर, आखिर वह समर्थ हुआ अपने आप कहीं जाने में. सुबह कितनी ठंडी थी, रात भर वर्षा होती रही. सुबह हरी घास पर टहलते हुए कई सारे स्नेल जीव बाहर किये, नन्हे पौधों को खा लेते हैं ये, आज बगीचे में मिट्टी डाली जा रही है. हेज के किनारे जमीन काफी नीची हो गयी थी. सद्गुरू कहते है, जीवन के अंत में यही पूछा जायेगा कितना ज्ञान प्राप्त किया और कितना प्रेम बांटा...उसके भीतर प्रेम का जो सहज स्रोत था वह आजकल शांत पड़ा है. प्रेम का स्वरूप बदल गया है, वह मौन में ही प्रवाहित होता है. दो महीने हो गये हैं उसे मृणाल ज्योति गये हुए, पिछले दिनों सेवा की भावना जैसे भीतर सिकुड़ गयी थी. पिताजी को इस हालत में देखकर भी कुछ न कर सकने का भाव अजीब सा है. विचित्र है मानव मन, अहंकार भी कितने-कितने रूपों में सम्मुख आता है. उसे कार की आवाज आयी, लगता है जून आ गये.
कल रात तेज वर्षा हुई, बगीचे में हेज के किनारे पानी भर गया है. इस समय धूप निकली है. जून अस्पताल गये हैं पिताजी के लिए दही और दाल के पानी का भोजन लेकर. आजकल उनका यही आहार है. मानव अपने अंतिम काल में कितना बेबस व निरीह हो जाता है, वे पूरी तरह से सोच और समझ तो रहे हैं पर बोल नहीं पाते. डाक्टरों की सहायता से उनके अंतिम समय को कुछ आरामदेह बनाया जा  सकता है, पर कष्ट से उन्हें मुक्ति नहीं दिला सकते. कल शाम जून ने नन्हे से होने वाली दुल्हन के लिए चेन खरीदने के लिए कहा, उसे थोड़ा नहीं काफी अजीब लगा. उसे अपने मन पर कभी-कभी बड़ा आश्चर्य होता है, कब कैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा, उसे खुद भी पता नहीं चलता. यह मन नामकी वस्तु दुनिया में सबसे अजूबी है. आज सुबह की साधना में काफी देर मन टिक गया, कितना कुछ दिख रहा था, मन ही रूप धरकर आ रहा था, पर वह साक्षी बनकर देख रही थी. पता नहीं भविष्य में क्या लिखा है, भविष्य नामकी कोई वस्तु होती भी है या सिर्फ कल्पना ही है, हर क्षण जो उनसे मिलता है, वह तो वर्तमान ही बनकर मिलता है. कल जो बीत गया वह भी और कल जो आएगा वह भी.   


2 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25-05-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2636 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !

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