जुलाई माह का प्रथम दिवस ! पिताजी अब इस दुनिया में नहीं हैं,
हैं तो उनकी स्मृतियाँ, किसी और रूप में वे अवश्य कहीं होंगे.
पूर्ण हुई एक जीवन यात्रा
या नवजीवन का आरम्भ
एक आश्रय स्थल होता है पिता
वृक्ष ज्यों विशाल बरगद का
नहीं रह सके माँ के बिना
या रह न सकीं वे आपके बिना
सो चले गये उसी पथ पर
छोड़ सभी को उनके हाल....
भर गया है शुभ स्मृतियों से
हृदय का प्रांगण
लगाये सभी होड़ आगे आ जायें
लालायित, उपस्थिति निज की जतलायें
उजाला बन कर जो पथ पर
चलेंगी संग-संग वे सब हमारे
बागीचे से फूल चुनते
सर्दियों की धूप में घंटों
तक
अख़बार पढ़ते
नैनी के बच्चे को बहलाते
लगन से पूजा की तैयारी करते
जाने कितने पल आपने संवारे....
विदा किया है भरे मन से
काया अशक्त हो चुकी थी
पीड़ा बन गयी थी साथी
सो जाना ही था हंस को
त्याग यह टूटा फूटा बसेरा
नूतन नीड़ की तलाश में
जहाँ मिलेगा इक नया सवेरा...
अब उन्हें अपने जीवन
की यात्रा अपने ही भरोसे तय करनी है, परमात्मा के भरोसे भी तय करने का भी तो यही
अर्थ है न, वह उनका अपना आप ही तो है ! क्रिया के तीन दिन बाद वे वाराणसी की यात्रा
पर निकल गये, पिताजी की अस्थियों का विसर्जन करना था. श्री अरविन्द का वेद रहस्य
साथ ले गयी थी. अद्भुत ग्रन्थ है वह, उनके पूर्वजों का इतिहास, उनकी आकांक्षाओं और
अभीप्साओं का संग्रह ! वर्षों पूर्व भी पढ़ा था, मन को एक दिव्य लोक में ले जाता है. वर्षा आज भी हो रही है, छत से पानी टपक रहा है, उसका शोर
ज्यादा है बनिस्बत वर्षा की बूंदों के शोर के. नाइन ओ क्लॉक के दो गुलाबी फूल बड़े
शान से खिले हैं उनके मन व बुद्धि भी इसी तरह खिले रहें, सहज ही आत्मा के गुण
उसमें झलकते रहें, कोई आग्रह न रहे, जीवन एक सुमधुर संगीत से आबद्ध रहे, ऐसी ही
प्रार्थना, ऐसी ही कामना उसके पोर-पोर से उठ रही है.
आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की १७०० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " अरे दीवानों - मुझे पहचानो : १७०० वीं ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत बहुत आभार !
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteस्वागत व आभार ओंकार जी !
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