आँगन में आम के पेड़ से पंछियों की आवाजें निरंतर आ रही हैं. हवा
दरवाजे को धकेल कर बंद कर रही है. प्रकृति निरंतर क्रियाशील है. कल शाम से उसे देह
में एक हल्कापन महसूस हो रहा है, जैसे भार ही न हो और चलते समय एक तिरछापन सा लगता
है, शायद यह वहम् ही हो. मन हल्का हो तो तन भी हल्का हो जाता है. पिताजी आज
अपेक्षाकृत ठीक हैं. आज होली पर पहली कविता ब्लॉग पर पोस्ट की. हर कोई अपनी अहमियत
किसी न किसी तरह जताना चाहता है, हर कोई उसी परमात्मा का अंश जो है, हर कोई पूर्ण
स्वतन्त्रता चाहता है, परमात्मा का भक्त भी पूर्ण स्वतंत्र है. परमात्मा उनके
कितने करीब है, उनसे भी ज्यादा करीब..श्वासों की श्वास में वह है..सुक्षमातिसूक्ष्म..
जून आज देर से आयें शायद, उनके पूर्व अधिकारी आये हैं, शाम को उन्हें भोजन पर भी
बुलाया है. पिताजी बाहर बरामदे में बैठे हैं, जून की प्रतीक्षा करते हुए, चटनी के
लिए धनिया व पुदीना तोड़ लाये हैं बगीचे से.
कल शाम का आयोजन
अच्छा रहा. अतिथि अकेले ही आये, भोजन बच गया. आज सुबह वास्तविक अलार्म बजने से
पहले ही मन में अलार्म की घंटी की आवाज सुनाई दी, जगाने के लिए अस्तित्त्व कितने
उपाय करता है, कभी ऐसे स्वप्न भेजता है कि उठे बिना कोई रह ही नहीं सकता. कल शाम
जून और पिताजी को योग वशिष्ठ पढ़कर पढ़कर सुनाया तो वे प्रसन्न हुये आत्मा के बारे
में जानकर. अभी-अभी दो सखियों को होली के लिए निमंत्रित किया. गुझिया के लिए
तिनसुकिया से खोया भी लाना है. शनिवार को जून ने एक कुर्ती का ऑर्डर किया था नेट
से, आज पहुंच गयी, बहुत सुंदर एप्लिक का काम है उस पर. मौसम बहुत अच्छा है आज,
हल्के बादल हैं और ठंडी सी हवा भी बह रही है. शायद कुछ दूर वर्षा हुई है. परमात्मा
नये-नये रूपों में प्रकट हो रहा है. डायरी के पन्नों पर चमकते हुए प्रकाश कणों के
रूप में, फिर श्वेत धुएं सा कोई बादल तैरता हुआ सा दीखता है, हाथ के चारों ओर नीले
रंग की आभा के रूप में, सब कुछ कितना सुंदर लग रहा है, हवा, धरा, गगन और परमात्मा..
कल रात स्वप्न में ठोस वस्तु को देखते-देखते आकर बदलते देखा, स्वप्न कितने विचित्र
अनुभव कराते हैं.
कल शाम जून ने कहा
शुक्रवार को वे कुछ सहकर्मियों को खाने पर बुलाना चाहते हैं, जबकि उसे होली पर या
उसके बाद ही ऐसा करने का मन था, सो अपने मन की बात कही, कारण क्या था वह उसे स्वयं
भी पता नहीं था, पर भीतर से यही आवाज आ रही थी कि शुक्रवार को ठीक नहीं रहेगा. आज
सुबह जब जून को फोन आया कि उस दिन उन्हें बाहर जाना है तो बात स्पष्ट हो गयी, कोई अंतः
प्रेरणा थी शायद. पिताजी की गर्दन में दर्द है, गर्म पानी की बोतल से सेंक
करते-करते सो गये हैं, भोजन के लिए आवाज देने पर उठे नहीं. जून उनके लिए दर्द कम
करने की दवा ले आये हैं. आजकल वे बैठे-बैठे भी सो जाते हैं, धीरे-धीरे चलते हैं और
ज्यादा वक्त लेटे रहते हैं, शांत हो गये हैं. जीवन धीरे-धीरे सिमट रहा है, उन्हें
देखकर ऐसा ही लगता है. टीवी देखना कम कर दिया है. दोपहर को जून के एक मित्र आये थे
खाने पर, सदा की तरह देर से आये, जल्दी-जल्दी खाकर चले गये. इन्सान का स्वभाव
बदलता कहाँ है, जैसे उसका मन..जो हल्की सी कसक, एक हल्का सा स्पंदन बना ही लेता
है, लेकिन सद्गुरू कहते हैं पता तब ही चलता है जब कोई उसके पार हो जाता है.
सूक्ष्म स्पंदन भी जब नहीं रहते, तब वह अचल, स्थिर सत्ता स्वयं को प्रकट करती है, वह
स्वयं ही स्वयं को देख सकती है. आज ठंड काफी है, जून के आने के बाद वे भ्रमण के
लिए जायेंगे.
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11-05-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2630 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !
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