दीदी को फोन किया, कार्ड भेजा तथा फेसबुक पर शुभकामना दी, उनके
फोटो देखे तथा उन पर कमेन्ट भी किया यानि उनके जन्मदिन में वह भी शामिल रही
क्योंकि उसके सिवा कुछ है ही नहीं, वह ही है इस सृष्टि के कण-कण में..उसकी आँखों
के सामने एक हल्की सी परत देखी दे रही है शायद यह बढ़ती हुई उम्र के कारणआँखों का
कोई रोग हो..इसके कारण कोई परेशानी देखने में नहीं हो रही है. आज माली ने घास काटी
है, हरा-भरा बगीचा बहुत सुंदर लग रहा है. उस दिन संध्या को शीतल पवन में बैठकर जो
कविता लिखी थी उसे एक पाठक ने सराहा है ! आज भी आकाश में बादल हैं पर हवा में
हल्की तपन भी है. भीनी-भीनी फुहार भी पड़ रही है. पंछी भी चहचहा रहे हैं, यानि की
कविता लिखने के लिए सारे उद्दीपन मौजूद हैं ! आज ध्यान में अनोखा अनुभव हुआ. भीतर एक
उस बिंदु पर जाकर यह लगा कि वही है.. जिसको बाहर तलाशा था वही खोजने वाला है..और
उसका असर हुआ कि एक मुक्तता, एक निश्चिंतता सी छा गयी है..उसके सिवा कुछ भी तो
नहीं है ! फिर कैसी कामना..कैसा राग और कैसा द्वेष ? जब दो हैं ही नहीं तो कैसा
खोजना और कैसा पाना..कैसी मुक्ति और कैसा बंधन ? जून का स्वास्थ्य ठीक हो रहा है,
नन्हा भी अपने काम से संतुष्ट है, परमात्मा है तो सब कुछ जैसा है वैसा ही होना
चाहिए था या जैसा होना चाहिए था वैसा ही है !
फिर वही झूला, वही बगीचे की हरी घास और खिले हुए
गुलाब ! फिर वही बरसात का मौसम ! भीनी-भीनी सी फुहार ! फिर वही भरी दोपहरी और ये
डायरी के पन्ने ! फिर वही माँ की बेवजह परेशानी और बातें..जैसे कि रात हो गयी है
मच्छरदानी लगी हो तो वे सो जाएँ. फिर वही हवा की आवाज पीपल के पत्तों का
झूमना..शीतल पवन के झोंको से भीतर तक एक सिहरन का अनुभव करना..फिर वही दिन में रात
होने का मंजर..पूरब दिशा से काले बादलों का उमड़ते-घुमड़ते आना..हल्की-हल्की
बूंदा-बांदी और फिर वही दूर से कोयल की कूक...कितनी हसीन है यह दुनिया और कितना
सुंदर है ब्रह्म का यह मूर्त रूप...यह धरा यह गगन और आकाश से उतरती वर्षा परी..यह बारिश
की टप-टप करती बूंदें..
आज सुबह रोज की तरह उगी, जून और वह प्रातः भ्रमण के
लिए गये. लौटते समय उन्होंने कहा कि वर्षा होती रही तो क्या तब भी वे पूर्व
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार दोपहर को तिनसुकिया जायेंगे. निर्दोष सा प्रश्न था
जिसका उत्तर होना चाहिए था कि देखेंगे, पर उसके संस्कार ( वाणी दोष के ) इतने
प्रबल हैं (उपदेश देने के भी) कि कह दिया, उनके भीतर एडवेंचर स्पिरिट कम होती जा
रही है, बल्कि खत्म होती जा रही है, उत्साह नहीं है, उत्साह नहीं रहा तो जीवन
मृत्यु के समान है, इतने बड़े-बड़े शब्दों की बमबारी कर दी व्यर्थ ही और तत्क्षण ही
समझ में आ भी गया कि कुछ गलत हो गया है. मन उदास था गोयनकाजी बोलते हैं कि ऐसे में
शरीर में संवेदना होने लगती है दुखद संवेदना, उसी को लिए-लिए ध्यान कक्ष में आयी
तो खिड़की बंद थी जो जून ने मैना पक्षी से बचने के लिए की थी, जो कई दिनों से भीतर
घोंसला बनाने के लिए आ जाती थी. फिर मन ने झट प्रतिक्रिया की, बंद कमरे में
प्राणायाम करना उचित नहीं है कहकर वह बरामदे में आ गयी. संवेदना को देखना तब सहज
हो गया और धीरे-धीरे सब कुछ भीतर स्पष्ट हो गया. उसके क्रोध और अहंकार ने ही उसे
सताया, जून का इसमें जरा सा भी दोष नहीं था और तब भीतर यह बोध जगा कि नीरू माँ ठीक
कहती हैं असजग रहे तो जो भीतर रिकार्ड है वही तो बाहर निकलेगा.
आशा और उम्मीद से भरी बहुत बढ़िया कहानी. . ढेरो शुभकामनाएं।
ReplyDeleteस्वागत व आभार अरुण जी !
ReplyDelete