Monday, December 8, 2014

गुरू कृपा का अनुभव


शरण में आये हैं हम तुम्हारी, दया करो, हे दयालु भगवन !”
..और उस ज्योति स्वरूप ईश्वर को उसने देखा है, अनुभव किया है, वह उसके साथ था और उस वक्त उसे अनुपम आनंद का अनुभव हुआ, ऐसा अकल्पनीय सुख जो किसी भी अन्य स्थिति में नहीं मिल सकता. वह उससे बातें कर रही थी और वह उसे आश्वासन दे रहा था. यह सम्भव हुआ श्री श्री रविशंकर जी  द्वारा भेजे शिक्षक द्वारा सिखाई गई सुदर्शन क्रिया से. अब यह कुंजी उसके हाथ लगी है. यह अनुपम खजाना उनके ही भीतर है उसे पाने की कुंजी. ईश्वर का भजन अब कानों को अमृत के समान लगता है. बाबाजी के आँखों के आंसुओं का अर्थ और गुरू माँ के चेहरे की अनुपम मुस्कान का रहस्य भी अब खुल रहा है. अपने गुरू की याद आते ही जो उनकी आँखें रुआंसी हो जाती हैं. गुरू की महिमा का गान क्यों गाया गया है, क्यों निगुरे को चैन नहीं, यह सब कितना स्पष्ट है. उसके साथ कुछ बहुत-बहुत अद्भुत घटा है, इसके लिए वह परमात्मा की कृतज्ञ है और उन सभी की कृतज्ञ है जिनके कारण उसे यह अनुभव मिला है, ऐसा अनुभव जिसने भीतर तक आनंद की एक धारा बहा दी है. उसकी पुकार सुन ली गयी है. कल शाम को उन्होंने पुनः सुदर्शन क्रिया की, उसके पहले प्राणायाम भी किया. शिक्षक से उसकी बात भी हुई, उसके प्रश्न का उत्तर उन्होंने बाद के लिये छोड़ दिया, लेकिन उसे मालूम है कि वह जानते हैं उसने क्या पाया है ! और जो उसने पाया है वह उन्होंने भी पाया है तभी वह सेवा के इस महान कार्य से जुड़े हैं. उसे जिस मंजिल की तलाश थी वह मिल गयी है, अब कुछ पाना शेष नहीं है, कुछ भी नहीं, अब तो सिर्फ लुटाना है !

जीवन के धागों को सुलझाते हुए चलना चाहिए, अपनी मनुष्यता को सदा जागृत रखना चाहिए. मनुष्य के भीतर सम्भावनाएं असीम हैं, स्वयं को हर पल सम्भालते हुए अन्यों को भी प्रेरणा देनी चाहिए. गुरू कृपा से वेद-पुराणों का ज्ञान स्वयंमेव मिलने लगता है. वाणी पर संयम रखना बहुत जरूरी है, शब्द ब्रह्म है. व्यर्थ चिन्तन, व्यर्थ चर्चा, व्यर्थ कर्म नहीं करना चाहिए. प्रतिपल व्यवहार ही दिखाता है कि वे संसार से ऊपर उठे हैं या नहीं. जीवन में बुद्धि का महत्व उतना है जितना विमान में चालक का होता है यदि बुद्धि ईश्वर का चिन्तन करे तो परिनिष्ठित होती है. अध्यात्मिक विषयों का ध्यान करें तो बुद्धि शुद्ध होती है. जब इन्द्रियों का उपयोग ईश्वर की संतुष्टि के लिए हो तो कर्म बंधन का कारण नहीं होते, तब ईश्वर कुशल-क्षेम का भार अपने ऊपर ले लेता है और मानव को मुक्त कर देता है, मुक्त होना कितना भला है. कोई चिंता नहीं, कोई फ़िक्र नहीं. वह है न उसका प्रिय जो उन्हें बेहद-बेहद चाहता है. अचानक ही उसे शास्त्रों के अर्थ समझ में आने लगे हैं, अनायास ही उसकी वाणी में मधुरता आ गयी है, अपनी आवाज स्वयं को भली लगती है क्योंकि वह आवाज उसे भी सुनाई पड़ रही हैं, जो बातें पहले गूढ़ लगती थीं उनका रहस्य खुलता जा रहा है. बाबाजी की कई बातों का अर्थ सब स्पष्ट होता जा रहा है. अभी उसके रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है उसका अहम् और इसे छोड़ना होगा.

साधक का एकमात्र लक्ष्य उस परमब्रह्म को प्रसन्न करना है, आसक्ति व विरक्ति दोनों से विमुक्त वह जीवन को सहज रूप में जीता है,. वह यह जानता है कि परम पिता हर क्षण उसके साथ है उसका अभिन्न अंग है, अतः पग-पग पर वह सचेत रहता है ताकि उसके मधुर प्रेम को प्राप्त करता रहे. संसार उसे लोभी, कपटी व अहंकारी बनाता है और ईश्वर उसे उदार बनाता है !





2 comments:

  1. शायद इसी कारण से गुरू को ब्रह्मा, विष्णु और देव महेश्वर कहा गया है और गोविन्द से भी श्रेष्ठ बताया गया है!!

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  2. सही कहा है आपने... स्वागत व आभार...

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