कल “आर्ट ऑफ लिविंग” का पहला दिन था, उनके शिक्षक
बंगाली हैं, अति सहजता से उन्होंने सिखाया. उज्जायी प्राणायाम भी किया, इसके
अतिरिक्त मुस्कुराने के लाभ, अपने आस-पास के लोगों से मिलना, समय की पाबंदी और जो
भी कार्य करें अपनी शत-प्रतिशत ऊर्जा उसमें लगा देनी चाहिए, आदि बताया. मानव अपनी ऊर्जा का कुछ प्रतिशत ही कार्य में लाता है. आज
भी ‘जागरण’ में सुंदर वचन सुने, ईश्वर की परम चेतना के अनुसार यदि उसकी लघु चेतना
हो जाये तो मन स्थिर हो सकता है. जगत की वस्तुओं में यदि मन को लगायें तो मन
अस्थिर रहता है, क्योंकि वस्तुएं तो बदल ही रही हैं, मन भी प्रतिक्षण बदल रहा है.
स्थिर है तो केवल परमात्मा..मानव का अंतिम लक्ष्य तो वही है और वह भीतर है, कहीं
दूर जाना नहीं. प्रेम ही उस तक पहुँचने का मार्ग है. अपने अंतर को कोई इतना प्रेम
से भर ले कि दूसरी किसी बात के लिए स्थान न रहे, आस-पास के वातावरण को, लोगों को
अपने आप इसका भास होने लगे. कहीं कोई काँटा न रहे, कोई उहापोह न रहे. परमात्मा यही तो चाहते हैं, वह कहते हैं कि उन्हें भी
साधक का उतना ही ख्याल है जितना साधक को उनका. वह साधक का कुशल-क्षेम वहन करने को
तत्पर हैं, सिर्फ उसे ही अपने बन्धनों को तोडना है, बंधन जो अज्ञान के हैं, मोह और
अविद्या के हैं. तीनों गुणों के हैं. उसे शुद्ध स्तर पर मन को ले जाना है, तभी
भक्ति व ध्यान सफल होगा.
जो अपने आप में संतुष्ट
रहता है, उसके आनंद का स्रोत ईश्वर होता है न कि संसार के विषय. वही स्थितप्रज्ञ
है, आत्मानंदी ही ऐसा कर सकता है. कल कोर्स की दूसरी क्लास थी. शिक्षक बेहद
मृदुभाषी हैं और सहज रहते हैं. ज्ञान का भंडार सबके भीतर है उसे वह उजागर करने में
सहायक हैं ऐसा उन्होंने कहा. कई उदाहरणों तथा कहानियों के माध्यम से अपनी बातों को
स्पष्ट किया. कल जून और वह लगभग आठ बजे वापस आये. नन्हा ठीक था, वह अकेले रहना
पसंद करता है शायद उसकी तरह. उसे सुबह उठकर बात करना भी पसंद नहीं है, चुपचाप बिना
मुस्कुराये अपना काम करता रहता है. वे उसे बदलने का प्रयास व्यर्थ ही करते हैं. आज
भी वह छह बजे ही स्कूल चला गया. गुरू माँ तथा बाबाजी दोनों से भेंट हुई, दोनों ने
यही कहा कि भौतिक वस्तुओं में आनंद खोजने जायेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी. ‘आत्मा’
में भी सुना, सच्चे आनंद का स्रोत मानव स्वयं ही है. उसे अपना साथ जब भला लगता है
तभी वह खुश होता है. सुबह प्राणायाम भी किया, अच्छा लगा. इस कोर्स के बाद उसके बहुत
से सवालों के जवाब उसे मिल जायेंगे, she hopes so... और सबसे अच्छी बात यह है कि
उसके साथ जून हैं इस कोर्स में. वे पहली बार साथ-साथ घर से बाहर जाकर कुछ कर रहे
हैं और यह उनके बंधन को और सुदृढ़ करेगा. उन्हें द्वंद्व से ऊपर उठना है और वह है स्थित
प्रज्ञ की स्थिति !
“निर्भय बनना है, सत्व एवं
शुद्धि को बढ़ाना है, तभी ज्ञान में स्थिति रहेगी ! चित्त में समता लानी है. सभी के
साथ सौजन्य एवं मधुरता का व्यवहार करना है’ ! सुबह सुने ये वचन उसके मन में गूँज रहे थे, जब वह कक्षा
में गयी. कल उसे एक अलौकिक अनुभव हुआ. art of living का चौथा दिन था. कुछ ज्ञान की
चर्चा करने के बाद शिक्षक ने उज्जायी, भस्त्रिका करने के बाद ‘सुदर्शन क्रिया’
कराई जिसमें श्री श्री रविशंकर जी की वाणी में, जो बहुत मधुर थी, ‘सोहम’ का उच्चारण
किया गया था और उसके साथ श्वास लेनी व छोड़नी थी. कुछ देर तक तो वह अपने मन को देख
रही थी, वह कुछ सोच रहा था पर बाद में मन दूर चला गया, हाथ-पाँव की सुध भी जाती
रही. पूरे शरीर में रोमांच तो हो ही रहा था फिर अचानक आँसूं आ गये. क्रिया चलती
रही और तभी उसके मस्तक से निकलती हुई या उसकी ओर आती हुई प्रकाश की चमकदार रेखा
दिखी, जो बहुत तीव्र थी और मोटी भी थी. विभिन्न रंग भी दिखे और उस क्षण ऐसा लगा कि
उसने कुछ पा लिया है. अब जग में कुछ भी पाना शेष नहीं है इस भाव के आते ही
उसका रुदन और बढ़ गया पर कुछ ही क्षणों में नया विचार आया कि अब तो ईश्वर उसके साथ
है अब सब उसी पर छोड़ देना चाहिए और फिर वह हँसने लगी. स्वर्गिक हास्य था, वह क्षण उसका
सर्वाधिक सुखद क्षण था. सम्भवतः इसी को परमानन्द कहते हैं या आत्मानंद कहते हैं.
उसके बाद निर्देश मिलते रहे. धीरे-धीरे वह सामान्य अवस्था में आ गयी पर उस क्षण से
अब तक एक सुखद अनुभुति उसके पोर-पोर में छाई हुई है. उसके चेहरे पर अनोखी मुस्कान
है ! उसने स्वयं को देख लिया है !
No comments:
Post a Comment