सद्गुरु का मिलना दुर्लभ है, मिल
भी जाये तो उसके प्रति पूर्ण समर्पण होना भी कठिन है. मन में अनेकों संकल्प-विकल्प
उठते हैं जो श्रद्धा को हिला देते हैं पर उसके मन में गुरुओं के परम गुरू उस परम
पिता के प्रति प्रेम की ऐसी लहर उठी है जो हर वक्त उसे लपेटे रहती है. उस प्रेम का
उदय तो पहले ही हुआ होगा पर उससे परिचय सद्गुरु की कृपा से ही सम्भव हुआ है. ऐसी
कृपा करने वाले के प्रति भी मन श्रद्धा से भर जाता है. उसे ऐसा प्रतीत होता है कि
उसके जीवन का लक्ष्य निर्धारित हो रहा है. भगवद् प्रेम और संगीत अब ये दो क्षेत्र
ही उसे आकर्षित करते हैं. ईश्वर के लिए गाना और उससे प्रेम करना ये दो कार्य जग
में करने योग्य हैं. कल शाम वे टहलने गये तो बात इसी विषय पर हो रही थी अब जून और
उसके बीच बातचीत का ज्यादातर भाग art of living ही रहता है. कल रात सोने से पूर्व स्वामी विवेकानन्द का एक पत्र पढ़ा जिसमें उन्होंने ईश्वर के प्रति अखंड विश्वास का
वर्णन किया है. ‘यदि कोई अपना सारा भार कृष्ण पर छोड़ दे तो वह उसे भार मुक्त कर
देंगे. ईश्वरीय प्रेम महान है इसकी अनुभूति चेतना के उच्च स्तरों पर ले जाती है.
स्थूल देह अन्नमय कोष है, प्राणमय कोष में जीने वाले को प्राणायाम व भजन कीर्तन बताया
जाता है. मनोमय कोष के भीतर विज्ञानमय कोष है और उसके भीतर आनंद मय, जो थोड़ी ही
ख़ुशी मिलने पर शांत हो जाता है. भिन्न-भिन्न कोशों में स्थित व्यक्तियों को
भिन्न-भिन्न साधन की पद्धति सिखायी जाती है, जिससे ईश्वरीय अंश जागृत होता है.
मौन, ध्यान, उपवास यह तपस्या है, परमात्मा को पाने के लिए यह तपस्या अपने जीवन में
लानी है और ये सहज रूप से जीवन का अंग बनने चाहिए ! और यदि प्रेम सच्चा हो तो ये
सब सहज प्राप्य हैं !’ वह आनन्दमय कोष में स्थित है !
निःशब्द ईश्वर तक पहुंचने के लिए शब्दों की नाव बनानी पडती है पर अंततः शब्द
भी छूट जाते हैं क्योंकि वह शब्दातीत है. ईश्वर का स्मरण करने से जो सुख मिलता है
वह अन्य किसी वस्तु, कार्य या परिस्थिति से नहीं मिलता, अच्छा हो या बुरा दोनों की
आसक्ति छोड़नी होगी जो, जब, जैसा मिले, जब हो उसे पूरे मन से स्वीकारना होगा वृत्ति
में यदि ईश्वरीय प्रेम हो तो वही प्रगट होगा, जो हम मांगेंगे वही तो मिलेगा. मेरा
हो तो जल जाये और तेरा हो तो मिल जाये यह भाव सदा बना रहे तो ईश्वर मन का स्वामी
बन जाता है. कामनाएं अपने आप मिटती जाती हैं, उसी का अधिकार हमारे हृदय पर हो जाये
तो सम अवस्था में रहना आ जाता है, पर आज सुबह जब उनकी नींद देर से खुली तो मन ने
स्वयं को धिक्कारना शुरू कर दिया, वह भी ठीक नहीं था. उन्ही नकारात्मक भावनाओं का
परिणाम है कि उसके पैरों में हल्का खिंचाव है वरना इतने दिनों से किसी भी तरह का
कोई दर्द महसूस नहीं किया. आज सुबह फिर गुरू का स्मरण हो आया, उनकी प्रभुता व
महानता पर जितनी श्रद्धा की जाये कम है, जनहित के लिए अपने को मिटा देना, पर उस
मिटा देने में ही वे सब कुछ पा जो लेते हैं. जब कोई किसी के लिए निस्वार्थ भाव से
कुछ करता है तो ईश्वर जीवन में सुख का सागर बनकर आता है. ईश्वरीय कृपा का साक्षात्
अनुभव उसने किया है पर इस मन को नियन्त्रण में रखना तब कठिन हो जाता है जब प्रभु
का स्मरण नहीं रहता. मन में यदि उसी की लौ लगी रहे तो कोई उलझन नहीं रहती. उसकी
प्रार्थना बस इतनी सी तो है और वर्षों से है, हे ईश्वर ! तू साथ साथ रह या कि वह
उसे कभी न भूले क्यों कि उसके मिलने से बाकी सब अपने आप ही मिल जाता है. उसका एक
पेन नहीं मिल रहा है पर वे उसे भी ढूँढने में उसकी मदद करेंगे. आज बाबाजी भाव
समाधि में चले गये थे.
No comments:
Post a Comment