आज उनके नाटक की ड्रेस रिहर्सल है, बाबाजी आ चुके हैं
पर नैनी अपने जीवन की व्यथा सुना रही है. उसके पास कहानियों एक नहीं अनेक हैं,
अपने लम्बे-चौड़े भूतपूर्व परिवार की कहानियाँ, उसके पति ने दूसरी शादी कर ली तो वह
अपने तीन बच्चों को लेकर घर छोड़कर आ गयी, बर्तन मांजकर गुजारा करने लगी. यह कई साल
पहले की बात है फिर उसके पति की दुखद मौत हुई. देवर-जेठ सभी समर्थ थे पर किसी ने
सहारा नहीं दिया यहाँ तक कि जायज हक भी नहीं दिया. ननदें भी अचछे घरों में ब्याही
हैं, उनके बच्चे भी पढ़लिख रहे हैं पर इसके बच्चे बिन पढ़े ही रह गये अब तो बेटियों
की शादियाँ हो गयी हैं. बेटा भी काम तलाश रहा है, कभी मिल जाता है कभी नहीं मिलता.
आज भी सर्दी ने उसे परेशान किया हुआ है, विश्वास पूर्ण हृदय ले ईश्वर से शक्ति के
लिए प्रार्थना की ताकि आज और कल अपने कर्त्तव्य का पालन कर सके. इतना विश्वास तब
तो नहीं होता जब वह स्वस्थ होती है. कबीरदास ने सच ही कहा है- दुःख में सुमिरन सब
करे, सुख में करे न कोई.. जून आज सुबह समझा कर गये हैं कि वह अपना ख्याल रखे. वह
उसका बेहद ख्याल रखते हैं, कल उसके साथ उन्होंने ‘संघर्ष’ फिल्म देखी. फिर वह क्लब
गयी. मौसम आजकल ठीकठाक है, न बेहद वर्षा न बेहद गर्मी.
आज शनिवार है, शाम को नाटक
है, स्वास्थ्य पूरी तरह तो नहीं सुधरा है पर शेष पात्रों को आभास तक नहीं हुआ सो स्पष्ट
है कि आवाज और अभिनय पर पकड़ पूर्ववत् ही है. कल क्लब में तीन घंटे से भी ज्यादा
वक्त लग गया, आज भी तीन-चार घंटे तो देने ही होंगे. जून और नन्हे को उसकी
अनुपस्थिति का धीरे-धीरे अभ्यास हो रहा है. आज मौसम अच्छा है रात भर वर्षा होती
रही. पहले-पहल नींद कुछ अस्त-व्यस्त सी रही पर बाद में आ गयी. काफी देर तक नाटक के
संवाद बिन बुलाये मेहमान की तरह चक्कर लगते रहे. स्वप्न में वह घंटों नेपाल के राजा
से बातें करती रही, उनके राज्य में विद्रोह करने वाले नेताओं, क्रांतिकारियों से
भी मिली. जून ने कल पिता से बात की, उनके घर में नये मालिक आ गये हैं, अब वह उनका कहाँ
रहा ?
आज गोयनकाजी ने महावीर
स्वामी और गुरुनानक का उदहारण देते हुए विपासना का महत्व समझाया. महावीर ने कहा
है, जो भीतर है वही बाहर है और जो बाहर है वही भीतर है. बाहर की सच्चाई को बुद्धि
के स्तर पर समझा जा सकता है पर भीतर के सत्य को अनुभूति के स्तर पर ही समझना होगा.
नानक ने कहा है, “थापिया न जाई, कीता न होई, आपे आप निरंजन सोई” भीतर की सच्चाई को
देखने के लिए कुछ आरोपित नहीं करना है न ही कुछ करना है, जो अपने आप है वही हरि है
! कबीर ने भी इस प्रश्न के उत्तर में, कि
हरि कैसा है ? कहा, जब जैसा तब वैसा रे...जिस क्षण हमारे अंतर की स्थिति जैसी होगी
हरि उस क्षण वैसा ही होगा. प्रतिपल अंतर को साक्षी भाव से देखते रहना ही विपासना है. यदि मन में विकार भी जगा है
तो उसे देखना है कि उसके प्रति कैसी संवेदना जगी है. उस संवेदना के मूल का ज्ञान
होने से वह स्वतः ही नष्ट हो जाती है और ऐसे धीरे-धीरे विकार जड़ से दूर होते हैं,
दमन करने से जड़ भीतर ही रह जाती है और वह विकार पुनः-पुनः सर उठाते हैं. उसे यह सब
सुनना अच्छा लगता है, लगता है अपनी विचार
शक्ति को जितना ऊंचा बनाएगी उतना ही जीवन उन्नत होगा. वह कहाँ है और क्या करती है
यह उतना महत्व नहीं रखता जितना कि उसका मन कहाँ है और वह कैसी भावना से कर्म करती
है, इसका महत्व है.
No comments:
Post a Comment