आज बाबाजी का प्रवचन बहुत प्रभावशाली था, सुबह गुरु माँ
ने भी वही बात कही थी कि जिस तरह एक के भीतर परमात्मा का नाम है, वह भला बनने की
चाह रखता है, किसी के अपशब्द या दिया गया अन्य कोई कष्ट उसे सुख-दुःख का अनुभव
कराता है, उसी तरह दूसरा भी (जिससे उसका संबंध है, या व्यवहार है) उसी पथ का राही
है. किसी के लिए परायेपन की भावना नहीं आनी चाहिए, जो एक के लिए अप्रिय है वही
दूसरे के लिए भी अप्रिय है, जो एक को सुखकर है वही दूसरे के लिए भी सुख का कारण
है. एक बात बाबाजी ने जोड़ दी, अपने साथ न्याय का व्यवहार करना चाहिए और दूसरे के
साथ उदारता का. आज सुबह वे उठे तो धूप बहुत तेज थी पर अब बादल आ गये हैं. कल सुबह
वे चार बजे उठे और पाँच बजे क्लब पहुंच गये पर वहाँ इक्का-दुक्का लोग ही थे. फिर
वर्षा भी शुरू हो गयी, कुछ देर और प्रतीक्षा करने के बाद वह वापस आ गयी, रेस देर
से शुरू हुई होगी. जून को उसका दुबारा वहाँ जाना पसंद नहीं आया, शायद उसके लिए यही
उचित रहा हो.
जब तक मन पर रंग नहीं चढ़ा
है तब तक ही करना शेष है, रंग मैले कपड़े पर नहीं चढ़ता, गुरु रंगरेज होता है जो मन
की चादर को धोकर साफ करता है, फिर प्रेम के रंग से रंगता है. “राम पदार्थ पाय के
कबिरा गाँठ न खोल, नहीं पतन नहीं पारखी नहीं ग्राहक नहीं मोल” आज गुरु माँ ने
रंगरेज का उदाहरण देते हुए समझाया. उसे लगा यह तो सम्भव जान नहीं पड़ता, वह तो गले
तक संसार में डूबी हुई है फिर क्योंकर इससे मुक्त हो सकती है और यही कारण है कि
कुछ दिनों तक तो ऐसा लगता है कि आध्यात्मिक ऊँचाई तक पहुंचने के मार्ग पर कदम बढ़
रहे हैं पर फिर दुनियादारी के कार्यों में मन ऐसा रम जाता है कि ईश्वर उससे दूर
चला जाता है. आज एक सखी का जन्मदिन है उसने छह बजे बुलाया है, अम्बियाँ मंगाई हैं,
सुबह उससे बात करके अच्छा लगा, वह स्वयं तो कभी फोन नहीं करती, बेहद व्यस्त रहती
है. आज बाबाजी के प्रवचन में काश्मीर के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला भी आये हैं,
उनके कहने पर सभी काश्मीर की शांति की प्रार्थना कर रहे हैं. अपने दिव्य संकल्प की
शक्ति पर उन्हें विश्वास है. कल शाम बहुत दिनों के बाद उसने कुछ नया लिखने का
प्रयास किया, कुछ पुरानी कविताएँ पढ़ीं, कुछ अच्छी भी लगीं. उसकी किताब इस माह के
अंत तक छप जानी चाहिए थी पर प्रकाशकों के वादों पर भरोसा करना ? उचित नहीं है.
अगले हफ्ते नन्हे का स्कूल भी खुल रहा है, उसे लिखने का ज्यादा वक्त मिलेगा, वैसे
तो यह पूरा वर्ष ही उन्हें व्यस्त रहना है उसके साथ-साथ.
मन में छोटे-छोटे
सुखों-दुखों की कहानी चलती रहती है और प्रेम की आग इन को जलाकर भस्म कर देती है,
प्रेम ईश्वर का, सच्चाई का पीड़ा भी देता है पर उस पीड़ा में भी आनंद है, सद्गुरु ही
यह आग दिलों में जगाता है, हृदय में श्रद्धा उत्पन्न होती है, मन उड़ना भूल जाता
है, स्थिर हो जाता है ! लेकिन सन्त का सान्निध्य इस जन्म में उसे मिलना बहुत कठिन
है, निकट भविष्य में यह सम्भव नहीं दीख पड़ता, कुछ वर्षों बाद क्या होता है, कौन कह
सकता है ! यह आवश्यक भी नहीं कि मात्र गुरू के दर्शन से ही ज्ञान प्राप्त हो जाता
है. आज उन्हें अपना गुरु स्वयं बनना है, उनके भीतर ही ईश्वरीय प्रेरणा विद्यमान
है, देर-सबेर जो मंजिल तक पहुंचाएगी ही, कभी-कभी रास्ता भटक गये हैं ऐसा लगता है.
कई-कई दिन एक ही जगह खड़े निकल जाते हैं लेकिन उस वक्त भी मन को कोई कचोटता तो रहता
है. आज भी पिछले तीन दिनों की तरह तेज धूप निकली है, नैनी ने आम के पेड़ से आम तोड़
दिए हैं, अचार बनाने के लिए जून से मसाले भी मंगाने हैं. कल दीदी व बंगाली सखी को
इमेल भेजे. कल उस सखी के यहाँ खाना स्वादिष्ट था, वैसे भी बहुत दिनों के बाद वहाँ
जाकर अच्छा लगा.
No comments:
Post a Comment