Tuesday, August 28, 2012

जीवन की डोर मृत्यु के हाथों में



कल अंततः वह चिर-प्रतीक्षित टेलीग्राम मिला. भेजे जाने के पूरे पांच दिन के बाद, अभी कुछ देर पूर्व वे लोग आये थे जिनके साथ उसे जाना है, उन्हें भी तार मिला है. जून स्टेशन पर लेने आएँगे. कल भी कुछ लोग आये, उसने सोचा कि माँ या छोटे भाई को पत्र लिखे पर लिखना शुरू किया ही था लगा हाथों में शक्ति ही नहीं है, वह बात लिखे ऐसा सोचते ही इतनी जोर से रुलाई आयी कि थोड़ी देर के लिये पड़ोस में चली गयी मन को हटा कर दूसरी बातों में लगाने के लिये. रात को नींद बार-बार उचट जाती थी, इस वक्त भी हाथों की ताकत कम हुई लगती है, लगता है ब्लडप्रेशर घट गया है. अब वहाँ जाकर ही ठीक होगें मन व तन दोनों. उसने सोचा पत्र भी अब वहीं जाकर लिखेगी.

अभी कुछ देर पूर्व ही वह और सोनू एक परिचित के यहाँ से लौटे हैं. सुबह ही उनका फोन आया था कि वे दोपहर का भोजन उनके साथ करें, उन्होंने भी पूछा कि अपने घर पर कोई पत्र लिखा है या नहीं, ऐसा नहीं कि वह लिखना नहीं चाहती, पर क्या लिखे, कैसे लिखे ? कुछ समझ नहीं आता. जून को भी उसने कि पत्र नहीं लिखा, अब दो-तीन दिन बाद तो वे मिलेंगे ही. कल उसकी असमिया सखी ने भी कहा था कि वह लंच उसके साथ करे, सभी बहुत ध्यान रख रहे हैं, पर रह-रह कर आँखें भर आती हैं, दुःख जितना गहरा हो उसका घाव उतना ही देर से भरता है, और यह घाव तो जीवन भर भरने वाला नहीं है.

नन्हें ने उसकी डायरी के इस पेज पर आड़ी-तिरछी पंक्तियों में पहले से ही कुछ लिख दिया है. अभी कुछ मिनट पहले उसने माँ-पिता को पत्र लिख ही दिया और पोस्ट करने के लिये पड़ोस में देकर आयी है. मन फिर बोझिल हो गया है, और आज सुबह पांच बजे होंगे शायद, जब वह उठी थी, तो सीधी खड़ी नहीं हो पा रही थी. अभी भी चलने पर लगता है कि आगे की ओर गिर रही है. क्या चक्कर है यह, जिंदगी ही एक घनचक्कर है. भाई ने उन सबको धोखा दिया, साथ चलेगा ऐसे सपने दिखाकर बीच राह में छोड़ कर चला गया. कभी-कभी वह सोचती है अब तो वह मुक्त है चाहे जहाँ आ जा सकता है, हो सकता है यहीं कहीं आसपास हो और जो वह लिख रही है वह पढ़ रहा हो, अब तो बहुत सजग रहना होगा, वह तो सब जान जायेगा शायद मन की बात भी. नन्हा अभी सो रहा है अभी सात भी तो नहीं बजे, कल रात वह जल्दी सो गयी थी शायद नौ बजे से भी पहले.
क्रमशः

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