कल दिन भर व्यस्तता बनी रही. सुबह वे बाजार गये, जून
उसके लिए कोलकाता से एक साड़ी और एक कुर्ती लाये हैं, वह उसे सजे-धजे देखना चाहते
हैं. उनका प्रेम उसके लिए अपरिमित है. वे लोग दिसम्बर में बंगलुरू जा रहे हैं, तब
यह वस्त्र काम आयेंगे. सद्गुरू के लिए भी वह इस बार एक सुंदर भेंट लेकर जाएगी, कोई
बहुत ही सुंदर वस्त्र ! आज पिताजी का अख़बार नहीं आया है, टीवी भी नहीं चलाया है,
बैठ-बैठे जाने क्या सोचते रहते हैं. उसका ध्यान पहले से बेहतर हुआ है. कल सुबह
कितना विचित्र स्वप्न देखा था और कल रात को भी एक सुंदर मन्दिर देखा, विशाल मन्दिर
है लेकिन मुख्य मूर्ति के नीचे लिखा है किसी अभिनेत्री का नाम लेकर कि वह फिर आ
रही है. कल के स्वप्न में ऊंची छत पर रखा गोबर की खाद का एक ड्रम नीचे गिर जाता है
और सड़क पर जाकर देखा तो वहाँ से गायब है, अर्थात कूड़ा-करकट दिमाग से विदा हो गया
है, फिर जो शेष बचा उसका दर्शन हुआ. वह अपने घर के द्वार पर है, ध्यानस्थ, भीतर सारा
आकाश और सुंदर बगीचा देख रही है. हरे-हरे पेड़ जो आकाश तक ऊंचे हैं. नीला व सफेद बादलों वाला
आकाश है. वह उड़ सकती है, मन के सोचने मात्र से पल में जहाँ-तहाँ विचरण कर रही है,
शायद ऐसे ही स्वर्ग का दर्शन ध्यान में ऋषियों ने किया होगा. स्वप्न ही तो था वह,
टूट गया तो सब तिरोहित हो गया, लेकिन अपने आप में टिकने की कला तो स्वप्न नहीं है,
वही तो सत्य है. मन भी तो चेतना में उठी लहर ही है पर पागल यह नहीं समझता कि क्रोध
करेगा तो खुद पर ही करेगा, यहाँ कोई दूसरा है ही नहीं ! दूसरे को दूसरा समझना ही
तो सबसे मूल हिंसा है.
सद्गुरू ने आज अष्टावक्र की कथा कही. ध्यान अच्छा रहा, अनंतता का अनुभव हुआ.
अभी-अभी क्लब की एक सदस्या से बात की, जो पति के रिटायरमेंट के बाद जा रही हैं.
उनका जन्म जोरहाट में हुआ, गणित, सांख्यिकी व अर्थशास्त्र में बीएससी की डिग्री
ली. गोहाटी से एमएससी की सांख्यिकी में. एमबीए भी करना चाहा पर विवाह हो गया, फिर
बेटी मुन्मा का जन्म हुआ, फिर बेटा भार्गव. टीचर का जॉब किया. बचपन से ही गणित में
तेज हैं, पति को भी मदद करती हैं. नृत्य का भी शौक है. इन सब बातों को आधार बनाकर
वह उनके लिए विदाई कविता लिखेगी, जो क्लब में पढ़ी जाएगी.
कल रात स्वप्न में दीदी व छोटी भांजी को देखा. कल क्लब में कविता सबको अच्छी
लगी. एक महिला ने नृत्य किया व एक ने गायन भी. आज का दिन कुछ अलग लग रहा है, मन
बेवजह अपने-आप में नहीं है. इसका अर्थ है, संस्कार सोये पड़े रहते हैं, मिटते नहीं
हैं. अभी बहुत मार्ग तय करना है, भीतर नया संस्कार डालना है, जो घट रहा है उसका
साक्षी मात्र रहना है. कोई भी विकार देह पर अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहता है. जो
कुछ भी शारीरिक कष्ट उसे हो रहा है वह इन्हीं विकारों के कारण है. मन को स्वच्छ
करना होगा, अपने ही हाथों अपना नुकसान करना ठीक नहीं है. जीवन को विशाल दृष्टिकोण
से देखना होगा, परिपक्वता लानी होगी. इन्सान वृद्ध होने को आये पर अपने संस्कारों से
छुटकारा नहीं पाता. उसे इस सत्य को औरों के साथ भी घटता हुआ देखना होगा. सभी अपनी-अपनी
सीमाओं में कैद हैं, उसी में दुःख है.
कीचड़ में कमल उगता है, आज यह कहावत अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई. ध्यान से पूर्व मन
जैसे कीचड़ में सना था पर ध्यान के बाद फूल सा पावन हो गया है. परमात्मा उसके साथ
हैं हर पल, यह भाव दृढ़तर हो गया है, न जाने किन अशुभ कर्मों का फल था वह सब जो अब बहुत
पीछे छूट गया है. अब तो प्रकाश है, संगीत है और गीत हैं जो बाहर आने को बेचैन हैं.
भीतर कितना सुंदर संसार है, अनंत प्रेम से भरा, वे बाहर ही ठोकरें खाते रहते हैं.
जब-जब एकांत मिलता है, उसकी साधना बलवती होती है लेकिन व्यस्तता बढ़ने के बाद मन
संसार में ही उलझ कर रह जाता है. इस बार ऐसा नहीं होने देगी. परमात्मा ने उसके
जीवन की डोर अपने हाथों में थामी है, वह उसे कभी भी गिरने नहीं देंगे.
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति महादेवी वर्मा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
Deleteसुन्दर।
ReplyDeleteस्वागत व आभार !
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