Wednesday, March 8, 2017

चने की दाल की कढ़ी


याद आता है बहुत दिन पहले ओशो को सुना था जिसकी तीसरी आँख खुलने वाली होती है उसे पहले एक आंख स्वप्न में या ध्यान में दिखाई देती है, उस दिन स्वप्न में गुरूजी ने जो उसे इतनी बड़ी सी आँख दिखाई थी वह संभवतः इसी की पूर्व सूचना थी जो दो-तीन दिन बाद उसने अनुभव किया, अपने भीतर का आकाश और चाँद-तारे..उनके भीतर कितने रहस्य भरे पड़े हैं. उस दिन की वर्षा जिसमें मन तो भीग गया पर तन सूखा ही रहा ! आज एकादशी है, उसका अंतर इतना हलका महसूस कर रहा है जैसे अभी हवा में उड़ जायेगा. कल शाम को टहलते समय भी भारहीनता का अनुभव हो रहा था. आज भी मौसम सुहावना है. वर्षा अभी थमी है. दीदी आज यात्रा पर निकल रही हैं उनसे बात हुई, छोटी बहन व मंझली भाभी से बात की. उस दिन की कविता शायद शायद कुछ ही समझ सकें, जिसका अनुभव न किया हो उसे समझना मुश्किल तो है ही. परमात्मा की अमृत वर्षा बरस ही रही है, जब शिष्य तैयार होता है तो गुरू अपने-आप प्रकट हो जाता है. यह बात बिलकुल सच्ची है, वह इसकी गवाही दे सकती है. कल की पुरानी कहानी में बात ‘धन’ तक आ पहुंची है, अब भरपूर धन है उसके पास, परमात्मा ने हर तरह से उसे मालामाल कर दिया है, वह बरस ही रहा है अनवरत...

आज सुबह ध्यान में बैठी तो चालीस मिनट में ही उठ जाना पड़ा. देह में भारीपन लग रहा था, शरीर को स्वस्थ रखने में ही कितनी ऊर्जा चली जाती है उनकी. कल शाम वह स्कूल गयी थी, एक बच्चे के पैर पर काफी फुंसियों के निशान थे, गर्मी के कारण कमरे में गंध भी थी. पंखा शायद नहीं था या था ध्यान नहीं दिया, पर चल नहीं रहा था. निर्धनता का अभिशाप सबसे बुरा है, लेकिन जहाँ तक अभी शिक्षा नहीं पहुँची, सडकें नहीं पहुँचीं, बिजली नहीं पहुँची, वहाँ अमीरी कैसे पहुंच सकती है. कल ब्लॉगर रश्मिप्रभा जी ने कहा कि एक दिन के लिए शासनडोर की बागडोर आपके हाथ में आ जाये तो आप क्या करेंगे. करने को कितना कुछ है, यहाँ  कभी कुछ पूर्ण होता ही नहीं. जून आज पिताजी की आँखें दिखाने तिनसुकिया जायेंगे.

आज आखिर वह चने की दाल की कढ़ी बना रही है जिसकी रेसिपी अख़बार में पढ़कर पिताजी ने कई बार बताई है. आज भी मौसम अच्छा है. सुबह वर्षा के कारण वे टहलने नहीं जा सके, शाम को जायेंगे. उसका ध्यान आजकल गहरा नहीं हो पा रहा है, वैसे तो मन हर पल ही ध्यानस्थ रहता है, सब कुछ स्वप्न जो लगता है, न जाने कब जीवन की शाम आ जाये और यह स्वप्न टूट जाये, इससे पूर्व ही असंग हो जाना बेहतर है. अनंत काल उनके पीछे है और अनंत काल उनके आगे है, अनंत को पाना हो तो इस वर्तमान के नन्हे से पल में जागना होगा जिसके एक क्षण पूर्व भी अनंत है और एक क्षण बाद भी अनंत है, तो वहाँ भी वही हुआ. आज सुबह एक पंक्ति मन को छू गयी थी, ‘घर खो गया है’
आज शरणार्थी दिवस भी है इसी पर कुछ लिखेगी. एक और वाक्य मन में गूँजा कि ‘जो उन्हें मिला ही हुआ है, उसे वे न देखने का नाटक करते हैं और बाहर भी उसी को खोजते हैं, जो छूट ही जाने वाला है उसे पकड़ने का निरर्थक प्रयास करते हैं’. मानव की पीड़ा का यही कारण है, सार को असार में खोजते हैं, असार में कुछ असार भी नहीं तो सार कैसे मिलेगा. जो अभी बीज है उसमें फूल खोजते हैं, पहले उसे बोना होगा धरा में, शीत, ताप सहना होगा.


2 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "जैसी करनी ... वैसी भरनी - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. बहुत बहुत आभार ब्लॉग बुलेटिन !

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