घर आने के बाद व्यस्ततता कुछ
ऐसी रही कि एक हफ्ता कैसे निकल गया पता ही नहीं चला. आज कई दिन बाद धूप खिली है,
वह झूले पर बैठी है, विटामिन डी का सेवन करते हुए. भोजन बन गया है, जून का इंतजार
करते हुए पिताजी टीवी देख रहे हैं. शब्द फिर जैसे उतरने लगे अपने आप ही..
हवा सांय-सांय की आवाज लगाती
बहती जाती है
पेड़ों के झुरमुटों से
सुनहली धूप में चमक रहा होता है
जब घास का एक एक तिनका
किसी तितली के इंतजार में फूल
आँखें बिछाए तो नहीं
बैठा होता डाली के सिरे पर..
सूनी सड़क पर एकाएक
गुजर जाती है कोई साईकिल
और ठीक तभी दूर से
आवाज देती है गाड़ी
स्टेशन छोड़ दिया होगा किसी ट्रेन ने
हाथ हिल रहे होंगे, प्लेटफार्म और
ट्रेन के कूपों से बाहर हवा में
जाने किस किस के....
आकाश नीला है
और श्वेत बगुलों से बादल
इधर-उधर डोल रहे हैं
एक पेड़ न जाने किस धुन में बढ़ता चला गया है
बादल की सफेद पृष्ठभूमि में
खिल रहा है उसका हरा रंग
जैस सफेद चादर पर हरे बूटे...
रह रह के हवा झूला जाती है झूला
जिस पर बैठ कर लिखी जा रही है कविता
परमात्मा इतना करीब है इस पल कि
नासिका में भर रही है उसकी खुशबू
और कानों में गूंज रही है बादलों की गड़गड़ाहट
अप्रैल के तीसरे साँझ की सलेटी साँझ..कोकिल रह रह कर कू..कूकू..कू..कह उठती है
अमराई में. गुलमोहर की शाखें हवा में भर रही हैं अपने भीतर ओज और सुवास, ऋतू आने
पर खिलने के लिए, नाच रहे हैं पीपल के गुलाबी नव पल्लव, गुड़हल का एक लाल फूल तोड़
कर डाल गया है कोई बच्चा हरी घास पर..झूम रही हैं गुलब की कलियाँ हवा के झोंकों
संग. आकाश बादलों से घिरा है और कालिमा गहराती जा रही है. ठंडे लोहे के झूले का
स्पर्श पैर की तली को शीतलता से भर रहा है. पेड़ अब काले होते जा रहे हैं. हवा जब
माथे से बालों को पीछे सरका देती हैं तो मानो उसी का हाथ हो और तन पर चढ़ जाता है
कोई नन्हा कीट तो लगता है वही मिलने आया है..कितना सुंदर है यह सब..
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