कबीर के जीवन में भक्ति की
पराकाष्ठा है, वह अपने गुरू से, साहेब से बहुत प्रेम करते हैं. उनके जीवन में
ज्ञान की पराकाष्ठा है, वह कर्म योगी भी हैं, जीवन भर चदरिया बुनने का काम करते
हैं. कबीर का सारा जीवन इस त्रिवेणी को जन-जन तक पहुँचने में लगा और उसके सद्गुरू
जी तो ध्यान, ज्ञान, प्रेम, सेवा, भक्ति, कर्म, कीर्तन और न जाने कितने-कितने पथों
का संगम कर रहे हैं. अद्भुत है उनका जीवन. स्टेज पर फूलों की बरसात करते हुए जब वह
नृत्य करते से चलते हैं, मस्ती में झूमते भजन गाते हैं, आत्मविभोर होकर स्वयं पर
फूलों की वर्षा करते हैं. समाधिस्थ होकर शंकर की मुद्रा बना लेते हैं तो
हजारों-हजार व्यक्ति उनके भीतर के इस प्रेम को छूकर मुग्ध हो जाते हैं.
गुलाब में नई कलियाँ आई हैं, पर उसके पूर्व उसे कटना पड़ा,
सिर दिए बिना फूल कहाँ खिलते हैं, भीतर भक्ति के फूल खिलाने हों या बाहर कर्म के,
भीतर ज्ञान के फूल खिलाने हों या बाहर सेवा के. उन्हें अपने अहंकार को मिटाना ही
होगा, तभी जीवन में संगम उतरेगा, तीर्थ का पदार्पण होगा, अंतर्मन शांत होगा, आत्मा
की खबर लायेगा, दौड़-दौड़ कर फिर बाहर सुनाएगा. कैसी अनोखी शांति से उसका मन आजकल
ओतप्रोत रहता है, कुछ रिसता रहता है चुपचाप, उसे कहने का लिखने का भी मन नहीं
होता, वह निस्तब्धता इतनी भली लगती है कि उसे तोड़ने की इच्छा नहीं होती. कई-कई दिन
हो जाते हैं डायरी खोले. कविता भी कई दिनों से नहीं लिखी. भीतर सन्नाटा है, पर कहीं
आनन्द को पीने का चाव उसे अकर्मण्य तो नहीं बना देगा. लिखना-पढ़ना भी यदि छूट जाये
तो जीवन में क्या बचेगा. परसों उन्हें यात्रा पर निकलना है, तब तो समय पंख लगाकर
उड़ेगा. ज्ञान की पिपासा भीतर बनी रहे, पर ज्ञान की परिणति तो मौन में ही है. वह
मौन भीतर उतरा है. सद्गुरु की कृपा से. अब कुछ पाना शेष नहीं पर देने की तो अभी
बारी आई है. यह सेवा का मौसम उतरा है भीतर. आज एक सखी ने अपनी सासुमाँ को उससे फोन
पर शिकायत करते सुन लिया और बहुत क्रोध में आ गयी, पर नूना की शांति उसे छू गयी और
उस वक्त वह शांत भी हो गयी ! ईश्वर उसे ज्ञान के पथ पर लाये !
वे ईश्वर का ध्यान तभी तो कर सकते हैं जब उसे जान
लें, पहचान तो सद्गुरु ही कराते हैं और एक बार उसकी पहचान हो जाये तो वह ध्यान से
उतरता नहीं है. और तब लगता है कि जिन्हें दो मान रहे थे वे दो थे ही नहीं एक ही सत्ता
थी. कहीं कोई भेद नहीं. तब लगता है, जो भी सहज प्राप्य हो, हितकर हो वही धारण करने
योग्य है. तब सारे संशय भीतर से दूर हो जाते हैं, अंतर्मन खाली हो जाता है. कोई
आग्रह नहीं, जैसे छोटा बच्चा होता है सहज प्रेरणाओं पर जीता हुआ, अस्तित्त्व तब
माँ हो जाता है, ब्रह्मांड पिता होता है, सारे वृक्ष, पर्वत, आकाश तब सखा हो जाते
हैं और सारे लोग भी एक अनाम बंधन में बंधे अपने लगते हैं.
No comments:
Post a Comment