Monday, December 14, 2015

अश्वत्थ की महिमा


यह जगत अश्वत्थ है, जो आज है, जैसा है, वैसा कल नहीं रहने वाला है, जो चंचल है, चलायमान है, संवेदनशीलल है. जैसे पीपल का पेड़ है जिसके पत्ते अस्थिर हैं, हल्की सी हवा में ही डोलने लगते हैं. चित्त का अर्थ है विचारों का प्रवाह, यह प्रतिपल बदल रहा है, एक ही चित्त कभी दोबारा नहीं पाया जा सकता. इस धारा के पीछे खड़े होकर यदि कोई जगत को देखे तो वह भी खंड-खंड दिखाई पड़ता है. यह संसार साधन स्वरूप है, आत्मा देह के बिना कुछ भी करने में असमर्थ है. मोक्ष के लिए आत्मा को संसार से होकर ही जाना पड़ता है. यह संसार उन्हें साधना करने के लिए मिला है, यह साधना तब शुरू होती है जब अतिथि के रूप में सद्गुरू का जीवन में प्रवेश होता है. चित्त एकाग्र होना सीखता है, जो अबदल है उसे जानने के लिए ध्यान करना होगा. ध्यानस्थ हुआ मन जब खो जाता है तब उसकी झलक मिलती है जिसे ईश्वर कहते हैं. आज उसने उनसे सुना, सबमें ईश्वर है, ईश्वर में सब हैं तथा सब ईश्वर हैं. ईश्वर चार अवस्थाओं में में हर जगह है. पहली-घन सुषुप्ति, दूसरी जैसी वृक्षों में हैं, तीसरी स्वप्नावस्था और चौथी जागृतावस्था. जब किसी को यह ज्ञान होने लगे कि इस सृष्टि में जो कुछ भी है, वह ईश्वर ही है, ईश्वर से भिन्न कुछ भी नहीं है, तो ही उन्हें सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ है, ऐसा मानना चाहिए.

कल फिर उसके अहंकार को ठेस लगी, ईर्ष्या का भाव भी उपजा. इसका अर्थ है कि अहंंकार अभी साबित बचा है. इसका अर्थ है कि प्रेम अभी सार्वभौम नहीं हुआ है. जो उसे कष्ट पहुँचाने की क्षमता रखता है उसके हाथ में मानों अपनी चाबी दे रखी है उसने. या तो वह ऐसे व्यक्ति या स्थान से दूर हो जाए और या तो अपने हृदय को विशाल बनाए. उसके हृदय की क्षुद्रता ही तो दिखाता है भीतर उपजा क्रोध ! ऐसा क्रोध जो नितांत व्यक्तिगत है, जो मन की कल्पनाओं से उपजा है, जो छलावा है, जो प्रेम का विकृत रूप है. जो उसे दूसरों की तथा अपनी दृष्टि में भी नीचे गिराता है ! ऐसा पहले भी हुआ है, यह एक पैटर्न बनता जा रहा है, यह दुनिया में न जाने कितने युगों से होता आ रहा है, पर इससे उसे मुक्त तो होना ही होगा, जहाँ निश्छलता न हो, सत्य न हो, प्रेम न हो, वहाँ संबंधों की औपचारिकता मात्र ही शेष रह जाती है. ऐसे में उपेक्षा ही एक मात्र उपाय है. उपेक्षा भी नहीं उदासीनता, निरपेक्षता, एक तटस्थता तथा ऐसी भावना जहाँ भीतर कोई द्वेष नहीं हो, जहाँ सहज प्रेम तो हो पर वैसा ही जैसा सारे ब्रह्मांड के लिए होता है. फूलों, आकाश, नदियों के लिए होता है, जहाँ शुभकामनायें तो हर पल निकलती हैं पर उनके पीछे कोई चाह नहीं होती. इस जगत से उनका ऐसा ही नाता होना चाहिए. तटस्थता से भरा, वे दें पर लेने की चाह के बिना !

मन भी कभी-कभी अजनबी बन जाता है, पर वह तो अपने मन को अच्छी तरह जानती है, यह अन्यों के मनोभाव भांप जाता है. स्वयं कभी स्मृति, कभी कल्पना में खोया रहता है. सद्गुरु कहते हैं भक्ति वह वर्तमान का पल है जो अपने आप से जोड़ता है. वर्तमान में ही परमात्मा है, वर्तमान में ही प्रेम है, प्रेम को नष्ट करती है स्मृति या कल्पना ! वे जब भूत को याद करके कोई क्रिया करते हैं तो मन बंटा रहता है अथवा भविष्य में होने वाले लाभ को देखकर करते हैं तो भी वे पूर्णतया सजग नहीं होते. शुद्ध वर्तमान उनकी सारी शक्ति को जगा देता है, मन को एक जगह लाता है. वही मुक्ति का क्षण है !

पिछल तीन दिनों से डायरी नहीं खोली, नीरू माँ कह रही हैं कि अंतर्सूझ जब प्रकट होती है तो मानना चाहिए कि उपहार स्वरूप मिली है, उसका अभिमान नहीं होना चाहिए. बुद्धि न जाने कितनी बार घटती-बढती है पर अंतर्सूझ जिसे मिल जाये वह घटती नहीं, वह अनुभवों का निचोड़ है, पिछले दिनों मन विकार ईर्ष्या से ग्रस्त हुआ, रचनात्मक कार्य कम हुआ. सत्संग कम हुआ, चक्रों में जो एक ही चेतना कभी सकारात्मक कभी नकारात्मक भावों में प्रकट होती है, वह अपना रंग दिखाती रही. साक्षी होकर उसको देख पाने के कारण मन में द्वंद्व नहीं रहा, निर्णय लेने में देर नहीं लगी. एक सखी का कल आपरेशन हो गया. सम्भवतः उसे इस स्थिति का सामना नहीं करना पड़ेगा. आज सद्गुरू ने कहा कि ज्ञानी को यदि अहंकार हो जाये तो वह प्रेम नहीं कर सकता और प्रेमी को यदि अहंकार हो जाये तो वह ज्ञानी नहीं है. उनका अहंकार ही उन्हें दूसरों से अलग देखने की बात सिखाता है. वे अपने को जब तक शरीर मानते हैं तब तक इससे मुक्त होना सम्भव नहीं है. स्वयं को वे जब तक आत्मा न मानें अहंकार नहीं मिटेगा. आत्मा की कोई पहचान नहीं, वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वह अपना अस्तित्त्व सबसे अलग नहीं रख सकती. वह सर्वत्र है, वह परम चेतना है, वह अभी तक अपनी उपाधि से मुक्त नहीं हो पाई है तो शरीर से अलग होना तो दूर है. ध्यान के समय जो वास्तविकता है वह व्यवहार के समय कहीं खो जाती है !   





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