आज उसे याद आ रहा है कि
पहली बार जब सद्गुरू को देखा था तो देखते ही वह स्तब्ध हो गयी थी, उनके वर्तन ने,
उनकी वाणी ने मन हर लिया, जिसके सामने हृदय झुक जाये वह सद्गुरु ही मंजिल तक ले
जाता है. जो बुद्धि दूसरों में दोष देखती है वह नीचे गिराने वाली है, ज्ञान कभी भी
नकारात्मक नहीं दिखाता, सदा सकारात्मक ही दिखाता है. उसके भीतर न जाने कितनी कमिया
हैं, उन्हें यदि बुद्धि न देख सके तो वह बुद्धि पक्षपाती है, बुद्धि में राग-द्वेष
हो, लोभ तथा ईर्ष्या हो तो ऐसी बुद्धि परदोष दिखाने लगती है. सद्गुरू कहते हैं
आत्मा में रहकर ही कोई सारे दुखों से दूर हो सकता है. सतत् होश रखने की जरूरत है,
उस समय तक रखने की जरूरत है जब तक जरा सा भी घास-पात भीतर न रह जाये, जब जरा सा भी
घास-पात भीतर न रहे तो होश स्वभाव बन जाता है. यह होश मुक्त अवस्था में ला देता
है. यही जीवन मुक्ति है.
इच्छा गति है, यह भविष्य में है, जब कोई इच्छा न रहे
तभी कोई वर्तमान में आता है, स्मृति ही भूत है, समय केवल वर्तमान में है, वे
कल्पना और स्मृति में रहकर वर्तमान को खोते रहते हैं, अपने आप को खो देते हैं. वर्तमान
में आते ही वे साक्षी बन जाते हैं, शक्ति बच जाती है, और वे ऊपर की यात्रा कर सकते
हैं, पानी नीचे बहता है और भाप ऊपर उठती है, भीतर भी जब ऊर्जा एकत्र हो जाती है,
तो वह ऊपर की और जाने लगती है.
आज उसने सुना काल, स्वभाव, पुरुषार्थ, प्रारब्ध,
नियति यह पांच संजोग मिलते हैं तब कोई कर्म होता है, और वे स्वयं को कर्ता मानकर
सुखी-दुखी होते रहते हैं. कर्ता भाव से मुक्त होते ही चिंता का कोई कारण नहीं
रहता. जीत भी यदि उसकी नहीं है तो अहंकार का कोई कारण नहीं बचता और हार भी यदि
उसकी नहीं है तो दुःख भी नहीं, ईर्ष्या भी नहीं. उन्हें पकड़े रहने में दुखों को
प्रयोजन भी क्या है, वे इतने मूल्यवान तो नहीं कि दुःख उनकी ओर आएं. यह जगत की
व्यवस्था उनके लिए तो नहीं चल रही है, जो एक झूठे केंद्र को मानकर चलता है वह भीतर
के सच्चे केंद्र को पाने से वंचित रह जाता है. अहंकार दूसरों के मत पत आधारित है.
दूसरे का ध्यान मिले यही अहंकार का भोजन
है. यही अहंकार तो छोड़ना है.
ठीक ही कहते हैं एक माँ कई बच्चों को अकेले पाल सकती
है पर कई बच्चे मिलकर एक माँ को सहारा नहीं दे सकते. जिस घर में माँ सुख से न रह पाती
हो, उसे न रखा जाता हो, वह शांति का सागर कैसे बन सकता है. उसके अंतर में सासुमाँ
के प्रति सम्मान है पर वाणी कठोर हो जाती है कभी-कभी, जो अवश्य उन्हें चुभती होगी.
कल जून ने पिता से उनकी बात करके दोनों का दिल दुखाया. उन्हें क्या अधिकार है बड़ों
का असम्मान करें. यही सोचना चाहिए कि भाग्यशाली हैं कि दोनों का हाथ सिर पर है.
आज सत्संग है, उसे सत्संग, ध्यान, साधना, स्वाध्याय
के मर्म को जानना होगा. चिन्तन शक्ति व्यर्थ न हो, शक्ति का संचयन हो और फिर उस का
सदुपयोग भी. बोलें तो ऐसा कि दूसरों को अप्रिय न लगे. सजगता के साथ-साथ सहजता भी
आवश्यक है. जून आज गोहाटी गये हैं, परसों शाम को आयेंगे. आजकल वह अपने कम में बहुत
रूचि ले रहे हैं. प्रसन्न रहते हैं तथा उत्साह से भरे. योग का चमत्कार है. उसकी
साधना भी ठीक चल रही है, समय को व्यर्थ न गंवाए, यही महत्वपूर्ण है.
अज सद्गुरू ने ‘गणेश पूजा’ का महत्व बतलाया. गणेश का
जन्म पार्वती के शरीर की मैल से हुआ और शंकर जब लौटे तो उन्हें पहचान नहीं सके.
पार्वती का अर्थ है जो पर्व, उत्सव अथवा जीवन के रंगमय रूप से उत्पन्न हुई है, एक अर्थ
यह भी है जो पर्वत से उत्पन्न हुई है. उसमें जो भी मल, विक्षेप, आवरण है उसके
द्वारा ही एक आकृति का निर्माण हुआ जो शिव तत्व, आत्मा को नहीं पहचान पाया. शिव ने
उसे नष्ट करके हाथी का सिर अर्थात ज्ञान को आरोपित कर दिया. आत्मा के आने पर सारा
मल दूर हो जाता है, ज्ञान उदार होता है इसलिए गणेश लम्बोदर हैं, उनके कान आँखों तक
आ जाते हैं अर्थात वह देखी हुई और सुनी हुई बातों का मिलान करते हैं. उनकी सवारी
चूहा है अर्थत एक छोटे से उपाय से महान आत्मा का ज्ञान गुरूजन करा देते हैं. एक
छोटा सा मन्त्र साधक को भीतर के अनंत साम्राज्य से मिला देता है. उनके हाथ में पाश
है अर्थात अंकुश आवश्यक है तथा पेट पर सर्प लिपटा है जो कहता है सदा सजग होकर रहो,
उनके हाथ में मोदक है जो मस्ती का संदेश देता है, मस्ती भी सजगता भरी, ऐसे गणेश की
उपासना उन्हें करनी है !
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