मन की शक्तियाँ जब बढ़ती
हैं तो दैवीय सत्ता भीतर जगने लगती है. वे जब पहले बार इस धरा पर आये थे तो देवता
स्वरूप थे. उस देवत्व को उन्होंने दबा दिया है पर वह रह-रह कर उन्हें अपनी सत्ता
से परिचित कराता है. वे देवताओं के वशंज हैं, अमृत पुत्र हैं, सद्विवेक उनका
स्वभाव है. आज उनका विवेक ढक गया है पर भीतर वह पूर्ण जागृत है. उन्हें उसे बाहर
निकालना है. सृजन और मनन की शक्ति भीतर है. व्यर्थ के विचारों को यदि आवश्यक
विचारों में बदल दें तो उनकी क्षमता पांच गुणी हो जाएगी. मन शांत हो तो सद् संकल्प
उठते हैं, सहज ज्ञान भी तभी होता है जब मन अडोल होता है. परमात्मा के प्रति प्रेम
भी तभी जगता है. जो उसका है वह उन का भी है यह यकीन होने लगता है. तब वे संसार के
लिए भी उपयोगी बनने लगते हैं, परमात्मा उनके द्वारा काम करने लगता है. जीवन उत्सव
बनने लगता है !
परमात्मा को मिलना कठिन नहीं है, जो वस्तु उनके पीछे है, उसे देखने के लिए कोई
दूरबीन लगाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसके सम्मुख होने की आवश्यकता है. भगवान
चुनौतियाँ परिवर्तन के लिए देते हैं, क्योंकि परिवर्तन के बिना कोई आगे नहीं बढ़
सकता, अपनी शक्तियों से परिचित नहीं हो पाता. आज गुरु पूर्णिमा है, उसने गुरूजी की
आवाज में रिकार्ड किया स्पेस मेडिटेशन किया. शाम को सत्संग है तथा गुरू पूजा भी.
जो आत्मज्ञान प्राप्त करता है, हृदय से अज्ञान अन्धकार मिटाता है, जो कण-कण में
व्याप्त पर नजरों से छिपे तत्व को उजागर कर देता है, वह सद्गुरु उनके नमन का पात्र
है. जो सिद्ध है, अरिहंत है, तीनों गुणों से परे है, जो आत्मा को हस्तामलकवत्
देखता है, जो ईश्वर को जानता है ऐसा सद्गुरू जो उनके संशयों को दूर करने की क्षमता
रखता है, उनके नमन का पात्र है. आज सुबह समय से उठी, साधना का क्रम भी ठीक चला.
रात को सोने में देर हुई. तिलक, टीका, मन्दिर, मूर्तिपूजा पर आचार्य रजनीश के
विचार अद्भुत हैं, सुनती रही, कितना विस्तृत ज्ञान है उनका, कितनी तक्ष्ण मेधा और
कितनी तीव्र याददाश्त. उनकी तीसरी आंख खुल गयी है. जब कि वे मस्तिष्क का आधा हिस्सा भी इस्तेमाल नहीं कर
पाते, कोई कहता है कि दस प्रतिशत से भी कम उस क्षमता का प्रयोग मानव करता है जो
प्रकृति ने उसे दी है. यह सृष्टि न जाने कितनी बार बनी और नष्ट हुई और कितनी बार
मानव ऊंचाइयों पर पहुंचा है और कितनी बार गिरा है. वे आगे बढ़ें यही उनकी नियति है,
उन्हें बढ़ना ही है !
शरीर, श्वास, मन, प्राण, भाव ये पांच मिलकर जीवन है. सभी
एक दूसरे को प्रभावित करते हैं. भाव वे सूक्ष्म स्पंदन हैं जो भीतर से आकर स्थूल
देह को संचालित करते हैं. प्राण धारा यदि सबल हो तो देह स्वस्थ रहती है. श्वास भी
नियमित रहती है. भाव ही मन को भी प्रभावित करते हैं. आज वर्षा थमे दूसरा दिन ही है
और अभी सुबह के दस भी नहीं बजे हैं पर गर्मी तेज हो गयी है. घर में रंगाई-पुताई का
काम चल रहा है, सो आज ध्यान में नहीं बैठी. समय का सदुपयोग किया एक सखी के लिए केक
बनाकर, केक की खुशबू आ रही है जैसे कल उसे आ रही थी, कल उसके यहाँ जन्मदिन की
पार्टी थी. उनके भीतर जो चेतन शक्ति है, उसका ज्ञान हो जाने के बाद वे कालातीत हो जाते
हैं, भूत तथा भविष्य से परे पूर्ण वर्तमान में रहना सीख जाते हैं, सखी को उसने
बताया पूर्ण आनन्द तथा पूर्ण शांति वर्तमान में ही है. उनके घर काम करने वाली नयी नैनी
को उसने कहा दस बजे अपने अपाहिज पति को लेकर आए जिससे प्राणायाम सिखा सके पर वह
नहीं आई है. किस्मत में हो तभी यह अमूल्य विद्या प्राप्त हो सकती है. वह नहीं आया
तो क्या हुआ, वह स्वयं जाकर उसे सिखा सकती है, अभी-अभी पता चला कि वह चादर पहन कर
बैठा है, सारे कपड़े धोने के लिए भिगा दिये हैं, कल आएगा ! कल जून दिल्ली जा रहे हैं
एक हफ्ते के लिए, सो समय ध्यान-साधना में बीतेगा, घर की सफाई, सत्संग, संगीत तथा
स्वाध्याय और सेवा में भी. सासुमाँ आज सुबह के भ्रमण के समय मिलने वाली अपनी एक परिचिता
से किताब के पैसे उनके देने पर ले आयीं फिर नौ बजे वापस करने गयीं, लौटते में धूप
लग गयी ऐसा कह रही हैं. शरीर को वे कितना सुकुमार बना लेते हैं. अभी ध्यान कर रही
हैं.
सरल नहीं आत्म नियंत्रण.... .
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति .....
स्वागत व आभार कविता जी..सरल तो इस दुनिया में कुछ भी नहीं..पर जिसकी तलाश हो वह मिल जाता है
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