नन्हा
बहुत तेज आवाज में अंग्रेजी गाने बजाता है जो जून और नूना को समझ में नहीं आते,
उन्होंने कभी समझने का प्रयत्न भी नहीं किया. शोर बहुत होता है इन गानों में और
इन्हें धीमे सुनने का रिवाज नहीं है. उसका मित्र जब आ जायेगा तब दोनों मिलकर और
शोर करेंगे, आज की पीढ़ी इसी शोर में जीना पसंद करती है ! उसने अभी कुछ देर पहले
कुछ पत्रिकाएँ उलटीं-पलटीं, अब उनमें रूचि नहीं रह गयी है, बाहर जो कुछ भी हो रहा
है, घट रहा है उसका भीतर से क्या संबंध है ? मन के विकारों से क्या संबंध है ?
जानकारी बढ़ाए चले जाने से भीतर परिवर्तन तो होता नहीं, साधक के लिए उतना ही जानना
जरूरी है जो उसकी साधना में सहायक हो. वे इस दुनिया में पहली बार तो आए नहीं हैं,
न ही अंतिम बार, न जाने कितनी बार पहले इन दृश्यों को आँखें देख चुकी हैं, वे न
जाने कितनी बार हँस-रो चुके हैं, अब इन सबसे जैसे अरुचि हो गयी है, वीतरागता...अब
तो आत्मा के भीतर गहरे और गहरे प्रवेश करने की एक मात्र कामना प्रबल हो गयी है,
कैसे भीतर शांति हो, मन निर्मल हो और वाणी पवित्र हो ताकि कोई आवरण आत्मा को ढके
नहीं, वह मुखर हो जाये, सुबह से शाम तक अंतर में यही भाव प्रमुख रहता है.
अहंकार के कारण ही वे
हर बार प्रभु से दूर हो जाते हैं, तभी दुःख उनका पीछा नहीं छोड़ता. जो दुःख दूसरों
को दुखी देखकर आया हो सात्विक है तथा जो अहंकार से आया है, अज्ञान से आया है,
तामसिक है. आज धूप तेज है, कल गर्मी थी पर बादल भी थे. इस वक्त सुबह के पौने नौ
बजे हैं, समय से उठी पर आज आसन नहीं कर पायी. कल शाम सासु माँ का जन्मदिन मनाया,
रात को देर से सोये, अभी भी उसका असर आँखों पर लग रहा है. नन्हा आज ट्रेनिंग पर
गया है. उसका चित्त इस वक्त जरा भी स्थिर नहीं है, तभी डायरी में इधर-उधर की बातें
लिखी जा रही हैं. आसन करने से तन के साथ मन भी शांत व स्थिर होता है. सुबह नाश्ते
में पोहा बनाया. कल पिताजी का फोन आया, बड़ी बुआ जी का भी जन्मदिन था कल, मंझली
भाभी का भी, वे भूल ही गये थे.
अभी कुछ देर पूर्व एक
अनोखा अनुभव हुआ, उसने विचार किया कि परमात्मा के नाम के सिवा सभी कुछ अपावन है,
तत्क्षण सारा दृश्य बदल गया, सुंदर हो गया, दरवाजा, फर्श और एक भाप जैसा या रंगहीन
धुएं जैसा या कुछ रेडिएशन जैसा निकला, लगा जैसे अस्तित्त्व ने उस परम शक्ति ने
उससे सम्पर्क किया. उसके मन के विचार का जवाब दिया. विचार तो आत्मा की गहराई से
उपजा था, उनके भीतर एक अथाह स्रोत है जो चमत्कार कर सकता है. अभाव से निकल कर वह उन्हें
स्वभाव में लाता है. प्रभाव से मुक्त कर भी वह स्वभाव में लाता है. सहज ही उनके
कर्म सेवा बन जाते हैं, लेकिन करने का भाव नहीं है. अकर्ता भाव भी आता है.
परमात्मा उनका सुहृदय है, सखा है, आत्मीय है, मीत है और ऐसा सखा जो कभी उन्हें गलत
राह पर जाने नहीं देता, जो सदा उनकी उन्नति ही चाहता है, जो उन्हें प्रेम करता है.
वे उससे दूर चले जाते हैं तो जगत में फंस जाते हैं, घबराते हैं, दुखी होते हैं तथा
ईर्ष्या व द्वेष का शिकार होते हैं. उनका मन जब कृष्ण से विमुख हो जाता है तो ही
वे सजग नहीं रह पाते. जब वे सजग नहीं रह पाते तो अपने स्रोत से दूर हो जाते हैं,
अपनी शक्तियों से दूर हो जाते हैं. आत्मा के पद से हट जाते हैं ! शरीर और आत्मा के
भेद को भूल जाते हैं !
‘रहो भीतर, जीओ बाहर’ यह
प्रेक्षा ध्यान का सूत्र है. जब तक भीतर कोई केंद्र नहीं है तो वे कैसे वहाँ टिक
सकते हैं. आत्मा ही वह केंद्र है, इसे भूलकर वे मन को ही सत्य मानकर उसके सुख-दुःख
में लिप्त होते रहते हैं. इस संसार में जो कुछ भी उन्हें मिला है, वह व्यवस्थित
है, उनके ही कर्मों के अनुसार मिल रहा है. वे यदि इसमें राग-द्वेष करेंगे तो नये
कर्म भी बांधेंगे. यदि समता में रहेंगे तो शान्ति से इन कर्मों को करेंगे जो उनके
प्रारब्ध में हैं तथा आत्मा की शक्ति का सदा अनुभव करेंगे. ‘भीतर’ तब स्वस्थ रहता
है, शांत और स्थिर रहता है, ऐसा ‘भीतर’ सारे दुखों से मुक्त करके आश्रय देता है. मन
साधन रूप में मिला है पर वे उसे साध्य मान लेते हैं, उसको संतुष्ट करना ही वे अपना
लक्ष्य बना लेते हैं, आत्मा रूपी भीतर ही साध्य है !
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