अपने अभ्यास के द्वारा जो वे
प्राप्त करते हैं वही टिकता है, गुरू की शरण में जाने का अर्थ है गुरू बनने की
प्रक्रिया की शरण में जाना. सत्य के समान कोई मंगल नहीं, जिसने अपने अभ्यास और वैराग्य
से सत्य की झलक देख ली वही ऊँची उड़ान भर सकता है. आनन्द की चरम अवस्था का अनुभव वही
कर सकता है, वह तृप्ति के सुख को जानता है वह पूर्णकाम होता है. वह अपने उदाहरण
द्वारा कितनों को आनन्द व सुख का रास्ता बता सकता है. उसके प्रति पूर्ण श्रद्धा और
समर्पण हो तभी सत्य की झलक मिलती है. उन्हें डर भी किस बात का है, वे इस जगत में
कुछ भी तो लेकर नहीं आये थे, न ही कुछ लेकर जाने वाले हैं, उन्हें जो भी मिला है
यहीं मिला है, वे तो सदा लाभ में ही हैं. जगत का उन पर कितना बड़ा उपकार है, उसे
लौटाने का तरीका यही हो सकता है कि वे किसी पर भी अपना अधिकार न मानें, यहीं की
वस्तु यहीं लौटा दें. स्वयं सदा मुक्त रहें, खाली ! तब इससे भीतर वह भरेगा जो उनका
अपना है, उसे वे लेकर जायेंगे और वही वे लेकर आये थे !
सद्गुरु कहते हैं, क्यों न दुखद स्थितियों का उपयोग
जागने के लिए कर लें, जैसे दुःस्वप्न नींद को तोड़ देते हैं. दुःख में वे पूर्ण
जागृत हो सकते हैं सुख में बेहोशी छा जाती है. भूख के समय वे जागृत रहते हैं,
उपवास का तभी इतना महत्व है, उपवास में कोई अपने पास रह सकता है, जगा रहता है,
शरीर के कष्ट के समय भी मन सोया नहीं रह सकता. भय की अवस्था में भी पूर्ण जागरूक
होते हैं, तेज गति में भी मन निर्विचार हो जाता है, जीवन की हर परिस्थिति का साधन
के रूप में उपयोग किया जा सकता है. यह जीवन निरंतर जल रहा है, यहाँ हर घड़ी खुद की
तरफ ले जाना चाहती है, पर वे इसका उपयोग और बेहोश होने के लिए करते रहते हैं. होश
पूर्ण विश्रांति ही तो ध्यान है, परिधि पर कुछ न हो रहा हो, केंद्र पर सजगता बनी
रहे तभी ध्यान घटता है.
जाने कब से वे माया के बंधन में हैं और जाने कब से
परमात्मा की कृपा भी बरस रही है. मन जब व्यर्थ बातों से हटकर उसकी तरफ मुड़ता है तो
वह बाहें खोले ही मिलता है. वह परम सत्ता सदा जागृत है, पर वे उसे देखकर भी अनदेखा
करते हैं. परमात्मा के चिह्न चारों और बिखरे हैं, वही भीतर भी है जो उनके होने का
कारण है, कितना आश्चर्य है कि वे उसे नहीं जानते, वह जो जानकर भी नहीं जाना जाता,
वह जब होता है तो वे नहीं रहते, वहाँ से लौटकर कोई आया ही नहीं, वास्तव में परमात्मा
ने ही परमात्मा का अनुभव किया है !
आज भी उसने एक सुंदर संदेश सुना, सर्वोत्तम पद है
आत्मपद, इसकी शपथ उन्हें ग्रहण करनी है, नकारात्मक भाव से मुक्त रहना, कटुवचन नहीं
कहना और सभी को प्रेम देना..ये तीन बातें इस शपथ में शामिल करनी हैं. उन्हें इस
शपथ रूपी संकल्प की छत बनानी है, जिससे मन खाली रहे, यह व्यर्थ की बातों से नहीं
भरता. नया संकल्प, नयी कल्पना, नया चिंतन तभी मन में आ सकता है, जब पुराना वहाँ न
हो, जगह खाली हो तो आत्मा मुखरित हो जाती है. मन बाह्य संसार से ही विचारों को
ग्रहण करता है यदि शपथ रूपी छत हो तो उनकी वर्षा से वे बच सकते हैं. अनावश्यक
बातों को त्यागकर वे केवल आवश्यक को ही ग्रहण करें तो कितनी ऊर्जा बचा सकते हैं.
फिर वही ऊर्जा भीतर जाने में सहायक होती है और वे मनुष्यत्व के पद की प्रतिष्ठा
तभी बनाये रख सकते हैं जब भीतर जाकर आत्मा के प्रदेश में प्रवेश हो ! तभी जीवन
सुंदर बनता है. ज्ञानी कर्म बाँधते नहीं हैं, कर्म छोड़ते रहते हैं, उन्हें भी
प्रतिपल सजग रहकर अपने कर्मों को छोड़ते जाना है.
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