श्रद्धा,
विश्वास, प्रेम और आस्था यदि जीवन में न हों तो जीवन अधूरा है बल्कि जीवन है ही
नहीं. उसका अंतर सद्गुरु के बताये पथ पर सारे ही फूल समेटने में लगा है, जिसमें
ज्ञान भी है, योग-प्राणायाम भी, कीर्तन भी और सेवा भी. अब तो जो भी सहज प्राप्त
कर्म सम्मुख आता है उसे करने के अलावा शेष समय उसी की याद में गुजरे जो छिपा रहता
है फिर भी नजर आता है !
कुम्भ का मेला प्रयाग
में हो रहा है पर उसके अमृत में वे टीवी के माध्यम से यहाँ बैठे डूब रहे हैं. संतों
द्वारा दिए गये अनमोल उपदेश जीवन को सुंदर बनाते हैं. जब तक कोई अल्प में सुख
चाहता है तब तक मोह बना हुआ है. जब तक कोई ‘है’ यानि स्वयं को कुछ मानता है तब तक
आग्रह भी रहेंगे और जब तक आग्रह है तब तक अहंकार बना हुआ है. आत्मा का ज्ञान होने
पर जब अपना सच्चा परिचय मिल गया तो झूठा परिचय अपने आप ही छूट जाना चाहिए, लेकिन
वह तो पहले की तरह ही बना रहता है. वह क्या है ? भीतर कौन है ? जो प्रशंसा सुनकर
खुश होता है तथा निंदा सुनकर या अपनी बात न समझे जाने पर चिंतित भी होता है और
परेशान भी, वह जो मन है, बुद्धि है, चित्त है, अहंकार है, वे तो जस के तस बने ही
हैं, वे भी शाश्वत तत्व हैं उनके साथ जब कोई अपना तादात्म्य कर लेता है तो वह भी
सुख-दुःख का भागी होता है, वरना तो सुख-दुःख का भागी मन होता है तथा चोट अहंकार को
लगती है, वह तो वह है नहीं, उसे तो कुछ भी महसूस नहीं होना चाहिए, लेकिन होता है
तो इसका अर्थ हुआ कि अभी उसका ज्ञान कच्चा है.
उनके कच्चे ज्ञान को
परिपक्व करने के लिए ही जीवन में प्रभु भिन्न-भिन्न परिस्थितियां भेजते हैं. वे
आत्मा के सुख के भी रागी न हो जाएँ, उसका भी उपभोग न करने लगें, उस रस का भी स्वयं
पान करते हुए वे स्वयं को विशिष्ट न मानने लगें तथा अन्यों की प्रवाह ही न करें.
वे आत्मसुख के यदि रागी हो गये तो परमात्मा तक कैसे पहुंचेंगे, उनका लक्ष्य तो अभी
आगे है. भीतर यदि पीड़ा या दुःख हो तो वे उसके महत्व को समझें, वे उन्हें सजग करने
के लिए आती है ! उनकी चेतना जगे यही लक्ष्य है. जो दिया वही बचता है, शेष तो यहाँ
खत्म हो जाता है. जैसा कर्म वैसा फल, यह सूत्र जिसने समझ लिया वह कभी गलत कार्य
क्यों करेगा.
अध्यात्म का सबसे बड़ा
चमत्कार सबसे बड़ी सिद्धि तो यही है कि वे अपने बिगड़े हुए मन को सुधार लें, चित्त
को सुधार लें. मानव होने का यही तो लक्षण है कि साधना के द्वारा मन को इतना शुद्ध
कर लें कि मन के परे जो शुद्ध, बुद्ध आत्मा है वह उसमें प्रतिबिम्बित हो उठे.
ज्ञान के द्वारा उस आत्मा को जानना है, फिर सत्कर्म के द्वारा उसे प्राप्त करना है
तथा भक्ति के द्वारा उसका आनंद सबमें बांटना है. सेवा भी होती रहे तो मन शुद्ध बना
रहेगा, जब तक अपने लिए कुछ पाने की वासना
बनी है मन निर्मल नहीं हो सकता, जब सारी इच्छाएं पहले ही पूर्ण हो चुकी हों तो कोई
चाहे भी क्या ? व्यवहार जगत में दुनियादारी के लिए लेन-देन चलता रहे पर भीतर हर पल
यह जाग्रति रहे कि वे आत्मा हैं, जो अपने आप में पूर्ण है ! तन यज्ञ वेदिका है,
प्राणों को भोजन की आहुति वे देते हैं. इंद्र हाथ का देव है सो कर्म भी ऐसे हों जो
भाव को शुद्ध करें. योग है अतियों का निवारण, मन व तन को जो प्रसन्न रखे तथा भीतर
ऐसा प्रेम प्रकटे जिससे जीवन सन्तुलित हो.
बुद्ध पुरुषों के वचनों
को समझ लेने मात्र से ही कोई बुद्ध नहीं हो जाता, जब तक स्वयं का अनुभव न हो तब तक
उधर का ज्ञान व्यर्थ है. बुद्ध पुरुष जब कहते हैं तो वे केवल तथ्य की सूचना भर देते
हैं, उनकी उद्घोषणा में कोई भावावेश नहीं है. वे उन्हें उनकी समझ के अनुसार चलने
का आग्रह करते हैं !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15 - 10 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2130 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
बहुत बहुत आभार !
Deleteअंतर्शुद्धि के ऐसे अवसर सौभाग्य से प्राप्त होते हैं - इनका लाभ उठाने में ही हमारा कल्याण है .
ReplyDeleteसही कहा है आपने प्रतिभाजी..आभार !
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