चिंता करना घोर अज्ञान है तथा घोर
अहंकार की निशानी है, आज यह वचन सुन कर उसे लगा तब तो जो भी परिस्थिति जीवन में आती
है उसे स्वीकार करना ही ज्ञान है. भूत में जो घट गया है वह बदलने वाला नहीं, भविष्य
अभी अज्ञात है, कोई इस ज्ञान में प्रतिपल रहे तो मुक्त ही है. आत्मज्ञान के बाद
चिंता हमेशा के लिए दूर हो जाती है, भीतर इतना आनंद रहता है कि भीतर ही सारे
समाधान मिलने लगते हैं. साधक को तो बस पुरुषार्थ करते हुए अपनी ऊर्जा का सदुपयोग
करना है, व्यर्थ के विवादों से स्वयं को बचाना है. हरेक की मांग है सच्चा सुख,
तृष्णा है झूठे सुख की लालसा.. तृष्णा जब तक नहीं मिटती तब तक विकार खत्म नहीं
होते, ब्रह्म का सुख तब तक नहीं मिलता. जिस समय कोई अपनी भूलों को स्वीकार नहीं
करता बल्कि भूल का बचाव करता है तो भूल और भी दृढ़ होती है. प्रकाश की उपस्थति में
ही जैसे कोई जगत का कार्य करता है, प्रज्ञा के प्रकाश में ही सही-गलत का भास होता
है. वस्तु के त्याग को त्याग नहीं कहते बल्कि वस्तु के प्रति मूर्छा, मोह के त्याग
को ही त्याग कहते हैं, इच्छा का त्याग नहीं इच्छा के प्रति ज्वर के त्याग को ही
त्याग कहते हैं. बाहर का त्याग अहंकारी बनाता है, अहंकार से जो भी कोई करता है वह
दुगने जोर से वापस आता है. बाह्य क्रिया कर्म के उदय से होती है, क्रिया करके कोई
लक्ष्य को नहीं पा सकता.
आज शिवरात्रि है,
सद्गुरु को बोलते हुए सुना. शिव ही आत्मा है, शिव का नंदी मानो देह है, शिव मन्दिर
में प्रवेश करना हो तो पहले नंदी का दर्शन होता है, जिसका मुँह शिव की तरफ है पर
मध्य में कछुआ है अर्थात इन्द्रियों को अंतर्मुख करके ही कोई आत्मा तक पहुंच सकता
है. मन्दिर का द्वार छोटा है सो झुक कर जाना होगा. शिव तत्व पाँचों भूतों में
ओत-प्रोत है, जो तीनों अवस्थाओं में व्याप्त है, पर तीनों से परे भी है. जाग्रत,
स्वप्न, सुषुप्ति का वह साक्षी है, उसी तत्व में
स्थित होकर सद्गुरु उपदेश करते हैं. वह हृदय से बोलते हैं, उसी में मस्त रहते हैं.
सौम्य भाव में रहते हैं. सभी को उस तत्व को अपने भीतर पाना है. उसने प्रार्थना की,
शिवरात्रि का पावन दिन सभी के लिए शुभ हो, भीतर का संगीत सभी को सुनाई दे, भीतर का
प्रकश सभी को दिखाई दे. कल रात्रि स्वप्न में उसने बड़े-बड़े सर्प देखे पर वे जरा भी
डरे नहीं. पानी में, पत्थरों पर, चट्टानों पर वे आराम से लेटे थे, एक की सिर्फ
पूँछ दिख रही थी. उन्हें रास्ते में कई अन्य बाधाएं भी आयीं पर वे उन्हें पार करते
आगे बढ़ते रहे, सर्प तो शिव भी धारण करते हैं, उसे लगता है यह उन्हीं की कृपा थी,
सद्गुरु की कृपा का अनुभव कल सत्संग में हुआ था ! आजकल उसके भीतर का आनन्द जैसे कई
गुणा बढ़ गया है, कई बार सहज ही नृत्य होने लगता है और कई बार हास्य फूट पड़ता है,
भीतर कुछ घट रहा है, जीवन एक उत्सव बन गया है. जीना अर्थात अंतहीन ख़ुशी..भीतर की
ख़ुशी. इसका बाहर की स्थिति से कुछ भी लेना-देना नहीं है, इसका स्रोत भीतर है, छिपा
हुआ जो अब प्रकट हो रहा है !
स्वप्नों की कड़ी में जब
कोई स्वप्न नींद खोल दे, जाग्रत कर दे, वह नींद का अंतिम स्वप्न होता है, इसी
प्रकार साधना जन्मों-जन्मों के स्वप्न का अंतिम स्वप्न है. जिसने साधना के पथ पर
भी कदम नहीं बढ़ाया उसकी नींद अभी बहुत गहरी है. सद्गुरु जीवन को कितना सुखमय बना
देते हैं, उनसे मिलने के बाद दृष्टि ही बदल जाती है. भाव शुद्ध हो जाते हैं,
भावनाएं बदलने लगती हैं, सूक्ष्म मोह भी हटने लगता है भीतर न जाने कितनी गाठें हैं
पर उसे लगता है वह मुक्त हो रही है. पिछले कई महीनों से उसकी लोभ की ग्रन्थि टूटती
जा रही है. उसका हर व्यय किसी और के लिए होता है. अपने लिए जब कुछ चाहिए भी नहीं
तो व्यय हो भी कैसे ? भीतर कैसा आनंद रहता है, मन नृत्य करता है और अधरों से कैसी
हँसी फूटती है. उसे सब कुछ अच्छा..बहुत अच्छा लगता है, सभी अपने लगते हैं, सभी
निर्दोष दीखते हैं. यह कैसा बदलाव आ गया है भीतर. चेतना का कोई भार नहीं होता, वह चेतना
है यह भाव जैसे-जैसे दृढ़ हो रहा है, हल्कापन लगता है !
No comments:
Post a Comment