Tuesday, October 20, 2015

इन्द्रधनुष के रंग


मन तरल है, इसे जहाँ लगायें वैसा ही आकार ग्रहण कर लेता है, मन वही सोचता है वही करता है जो इसे कहा गया है. जैसे संस्कार मन को दिए हैं वैसा ही यह बन जाता है. मन से बड़ा मित्र भी कोई नहीं और इससे बड़ा शत्रु भी कोई नहीं. जब तक मन में आनंद की कोंपले नहीं खिलीं तब तक यह कृतज्ञता के गीत नहीं गता और जब तक कृतज्ञता के गीत नहीं गाता तब तक कृपा की वर्षा नहीं होती, कृपा मिलने से आनंद स्थायी होता है. इस समय उसका मन अद्भुत शांति का अनुभव कर रहा है, निस्तब्ध, निस्पंदन ! पिछले दिनों उन्होंने एडवांस कोर्स किया उसके दौरान भी शायद इतनी शांति महसूस नहीं की थी. इस शांति के सापेक्ष जून के व्यवहार की हल्की सी नकारात्मकता भी कैसी चुभती है. उन्हें अपना व्यवहार सामान्य लगता है पर जिसने एक बार प्रेम का अमृत चख लिया हो वह क्यों तीखा पसंद करेगा पर उतना ही सही यह भी है जिसने अमृत चखा ही नहीं वह तो बस तीखा ही स्वाद जानता है. उनका क्या दोष, उनकी दृष्टि में वही एकमात्र स्वाद है. कल उन्होंने उपहार दिए, जो दे दिया बस वही तो अपना है, जो उनके पास है वह तो छिन जायेगा मृत्यु की उस घड़ी में !

कल सुबह जब पाठ करने बैठी तो बायं आँख के नीचे इन्द्रधनुष दिखाई दिया, कितना सुंदर और कितना विस्मयकारी ! आज सुबह उठी तो सदा की तरह मन में विचार चल रहे थे पर जैसे ही जाग्रत अवस्था हुई जैसा सारा शोर शांत हो गया. ऐसा लगा जैसे कोई भीड़ भरे कमरे से एकाएक एकांत में आ गया हो, पूर्ण शांति में, कैसा अद्भुत था वह पूर्ण मौन, उसकी स्मृति अभी तक बनी हुई है. साधना करते समय जून को थोडा सा रोष हुआ पर उसे जरा भी नहीं और अब तो वह पिछले जन्म की बात लगती है. सुबह ध्यान किया, इस समय संगीत सुन रही है सद्गुरु ने खुद से जुड़े रहने के कितने सारे तरीके बताये हैं. जो अपने से जितना दूर होता है वह उतना ही शीघ्र दुखी हो जाता है. साधना में अब ज्यादा रस आने लगा है, इसलिए ही गुरूजी हर छह महीने पर कोर्स करने को कहते हैं.

कोई उनके कार्यों की प्रशंसा करे अथवा निंदा करे या उपेक्षा करे, उन्हें हर हाल में निर्लेप रहना है. अज्ञान के कारण ही लोग दुर्व्यवहार करते हैं उनके भीतर भी परमात्मा उतना ही है. परमात्मा ने इस जगत को मात्र संकल्प से रचा है, जैसे कोई स्वप्न में रचता है. स्वप्न में यदि कोई हानि हो तो क्या उसका दोष देखा जाता है ? यह जगत तो एक नाटक है, लीला है, खेल है, इसमें इतना गंभीर होने की कोई बात नहीं है. यहाँ सभी कुछ घट रहा है, यहाँ वे बार-बार सीखते हैं, बार-बार भूलते हैं. नित नया सा लगता है यह जगत. वर्षों साथ रहकर भी कितने अजनबी बन जाते हैं एक क्षण में लोग और जिनसे पहली बार मिले हों एक पल में अपनापन महसूस कर लेते हैं ! कितनी अनोखी है यह दुनिया, कितनी विचित्र और वे यहाँ क्या कर रहे हैं ? उन्हें यहाँ भेजा क्यों गया है ताकि वे इस सुंदर जगत का आनंद ले सकें और उस आनंद को जो भीतर है बाहर लुटाएं. जो अभी उस आनंद को नहीं पा सके हैं उन्हें भी उसकी ओर ले जाएँ !

नये वर्ष का दूसरा महीना आरम्भ हो चुका है, मौसम में बदलाव भी नजर आने लगा है. पहले की तरह ठंड अब नहीं रह गयी है. सुबह नींद साढ़े चार पर खुली, सुबह के सभी कार्य सुचारू रूप से हुए. आज भी गुरूजी को सुना, “ध्यान अति उत्तम प्रार्थना है. भीतर ही ऐसा कुछ है जहाँ पूर्ण विश्राम है. मन तो सागर की लहरों की तरह है अथवा आकाश के बादलों की तरह जो आते हैं और चले जाते हैं. सारे विकार वे भी तो मात्र विचार हैं उनका कोई अस्तित्त्व ही नहीं, भय का विचार कैसे जड़ कर देता है जबकि वह है एक कल्पना ही तो ! वे खाली हैं उनका शरीर तथा मन दोनों खाली हैं, ठोस तो उसमें केवल अस्त्तित्व है, जो स्थायी है, सदा रहने वाला है एक समान..जो वास्तव में वे हैं जिसमें से रिसता है प्रेम, कृतज्ञता और शांति, जिसमें से झरता है आनंद. ऐसे हैं वे. पहले कितनी बार विचारों ने उसे आंदोलित किया है पर अब वे बेजान हो गये हैं, वह उन्हें देखती भर है, उनमें स्वयं की शक्ति नहीं है, वे आते हैं और चले जाते हैं. अब से उसके जीवन में जो भी होगा वह श्रेष्ठतम ही होगा, उससे कम नहीं, ईश्वर श्रेष्ठतम है और वह हर क्षण उसके साथ है, सारा अस्त्तित्व उसके साथ है तो कुछ भी कम या हल्का नहीं चलेगा. उसकी वाणी, कर्म विचार सभी श्रेष्ठतम होंगे !  

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