Tuesday, October 6, 2015

नारद भक्ति सूत्र


नये वर्ष की दिनचर्या – सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठना, उषापान, हल्का व्यायाम, क्रिया, नाश्ता बनाना, स्नान(नेति, धौती), योगासन, प्राणायाम, पाठ, नाश्ता, ध्यान, भोजन बनाना व खाना, संगीत, डायरी लेखन, पढ़ाना, पत्र लेखन, रात्रि भोजन बनाना, टिफिन, टहलना, अख़बार आदि पढ़ना, बागवानी, संध्या, रात्रि भोजन, स्वाध्याय, शयन. पूरे दिन भर में छब्बीस कार्य हैं जो उसे करने हैं. इसी में समय निकाल कर कविता लिखना तथा पहले की कविताओं को टाइप करना भी होगा तथा लोगों से मिलना-जुलना भी होगा, इसमें से कई कार्य जून के साथ ही होंगे और कुछ एकांत में, जीवन को अब एक दिशा मिल गयी है. सद्गुरु हर कदम पर उसके साथ हैं. आज सुबह टीवी पर उनके मुख से ‘नारद भक्ति सूत्र’ पर प्रवचन सुना, नेत्रों में जल भर आया. वह हृदय को छू लेने वाले वचन कहते हैं. वह जो कहते हैं उसे अपने भीतर घटता हुआ दीखता है. जैसा-जैसा वह कहते हैं वैसा ही अनुभव में आता है, पर उनके इस भीतरी अनुभव का लाभ जगत को मिले इसके लिए कार्य भी करना होगा. केवल भक्ति में डूबे रहकर बैठे रहने से तो काम नहीं होगा, अपना कर्त्तव्य निभाते हुए जितना सहजता से हो सके, अपने को जगत को देते जाना होगा..वैसे भी ऊपर जितने कार्य उसने लिखे हैं वह सभी उस भीतर वाले परमात्मा को ही समर्पित हैं. जब स्वयं वह है ही नहीं तो उसके कृत्य कैसे ? ये तो स्वयं को व्यस्त कहने का एक साधन है. वही तो है, उसी के लिए सब कुछ है. उसकी हर श्वास उसी के लिए ही है, उसी की है.

जीवन में यदि योग हो, ईश्वर की लगन हो सदगुरू का अनुग्रह हो और मन में समता हो तो परमात्मा को प्रकट होने में देर नहीं लगती, वह तत्क्षण प्रकट हो जाता है. प्रभु का स्मरण यदि अपने आप होता हो, मन उसके बिना स्वयं को असहाय महसूस करता हो जब वैराग्य सहज हो जाये और जगत में कोई भी आकर्षण न रहे तो पात्रता के अनुसार परमात्मा भीतर प्रकट हो जाता है. जो विराट है, इतने बड़े ब्रह्मांड का मालिक है, वह एक व्यक्ति के छोटे से उर में प्रकट हो जाता है. भक्ति विराट को लघु, असीम को ससीम बनाने में सक्षम है. ऐसी भक्ति ही मानव जीवन का ध्येय है, साध्य है. शरीर, मन, बुद्धि की सार्थकता इसी में है कि इस तन में चैतन्य प्रकटे, मन प्रभु में लीन  हो तथा बुद्धि उसके सम्मुख नतमस्तक हो. उसके सामने बुद्धि की कुछ नहीं चलती.


आज मौसम ठंडा है, धूप नहीं निकली है लेकिन उसके भीतर का मौसम सम है. नया वर्ष आने में मात्र चार दिन रह गये हैं. इस एक वर्ष में उसके भीतर आत्मा का ज्ञान परिपक्व हुआ है. द्रष्टा भाव में रहना सीखा है. क्रोध, मन, माया, लोभ, राग व द्वेष भीतर स्पष्ट दिखने लगे हैं. ईर्ष्या भी खूब दिखी. मन में कटुता का अनुभव होने पर लगता है कोई पापकर्म उदय हुआ है जो मन कि यह हालत हुई है. उन्हें देखते जाओ तो वे नष्ट होते जाते हैं. भीतर विचार प्रकट होते हैं और तत्क्षण लुप्त हो जाते हैं, वे जैसे कहीं से आते हैं और कहीं चले जाते हैं, किन्तु यदि कोई सजग न रहे तो वे बढ़ते ही चले जाते हैं. सजगता अध्यात्म की पहली और अंतिम सीढ़ी है, बिना सजग रहे कोई कहीं नहीं पहुंच सकता. सद्गुरु से पूछ तो कहेंगे कि कोई प्रेम को अपने मन में धारण करे तो सारे विकार अपने आप दूर हो जायेंगे. विकारों को दूर करने जायेंगे तो उन्हें सत्ता मिलेगी. जो वास्तव में हैं नहीं, होने का भ्रम पैदा करते हैं, वे विकार सत्य और शाश्वत प्रेम के सम्मुख कहाँ तक टिक पाएंगे. प्रेम जो उनका सहज स्वभाव है तभी तो थोडा सा विकार भी सहन नहीं होता. भीतर पल भर के लिए भी उद्वेग हो तो कैसा लगता है..प्रेम यदि सदा बना रहे तो कोई भी उलझन नहीं होती क्योंकि वह मूल है, स्वाभाविक है. दो दिनों बाद नया वर्ष आ रहा है. इस साल ने जाते-जाते एक मोह से मुक्ति दिलाई है. मोह जहाँ भी हो दुःख का कारण होता है. भविष्य में इस मोह के कारण न जाने कितनी बार दुःख उठाना पड़ता, सो अब मन मुक्त है. नये वर्ष का स्वागत मुक्त मन से ही करना चाहिए. सद्गुरु से प्रार्थना है कि उसके अंतर का सारा छोटापन सारी संकीर्णता वह ले लें. 

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