Friday, October 16, 2015

योगः कर्मसु कौशलम्


जिसके सिर ऊपर तू साईं सो दुःख कैसा पावे ! ज्ञानी के ऊपर परमात्मा की कृपा होती है. उनके भीतर सहज करुणा होती है, वे किसी को दोषी देखते ही नहीं, वह सम्पूर्ण निराग्रही होते हैं. ज्ञानी के पास सबसे बड़ा शस्त्र प्रेम होता है. वे वाक् चातुर्य नहीं दिखाते, प्रेम स्वयं उनके व्यक्त्तित्व से टपकता है. उनके भीतर राग-द्वेष नहीं रहते, वह अपेक्षा नहीं रखते. अपेक्षा वाला प्रेम घटता-बढ़ता रहता है, सच्चा प्रेम केवल ज्ञानी के पास ही मिलता है. उसके सद्गुरु ऐसे ही सच्चे ज्ञानी हैं, वह उसके आदर्श हैं. उसे अभी बहुत दूर जाना है. अभी लक्ष्य को पाना है, आग्रह छोड़ने हैं, मुक्त होकर जीना है, आकाश की तरह मुक्त..और निर्मल !

आज उसके मन-प्राण में कैसी अद्भुत शांति छाई है, भीतर एक निस्तब्धता है, गहरा मौन और सन्नाटा..जैसे कोई ठंडक बसी हो, उस मौन में कुछ आवाजें हैं जो निरंतर सुनाई पड़ती हैं..हर पल..हर क्षण..और आज भीतर से कैसा हास्य फूटा, कदम अपने आप थिरके और फिर अश्रु ! पूर्णमदः वाला श्लोक भी जाने कहाँ से भीतर याद आ गया, ऐसे ही सम्भवतः ऋषिगण द्रष्टा होते होंगे मन्त्रों के. परमात्मा की उपस्थिति पूरी तरह से महसूस की, ध्यान में सुंदर फूल दिखे. सद्गुरु को सुबह सुना, वह कितना सरल बना देते हैं कठिन विषय को भी. सारे शास्त्र भी तो पुकार-पुकार कर वही कहते हैं, ईश्वर भीतर है, वह सुह्रद है. भक्त व भगवान एक खेल रचते हैं, जब दो होते हैं, दोनों एक ही शै से बने हैं. भक्ति अग्नि के समान है जो सदा की ऊपर ही ले जाती है. ईश्वर उन्हें बुला रहा है, वह शांति और सुख देना चाहता है, वह योग करना चाहता है.  

जब भीतर विस्मय जगे या कर्मों में कुशलता की चाह हो, मन को समता में रखने की कला सीखनी हो तो कोई योग मार्ग की ओर कदम रखने की योग्यता रखता है. जब कोई सारे दुखों से छूटना चाहता है तो योग की शरण में जाने के योग्य है. योग में बाधक है जड़ता और मन की वृत्तियाँ..जिनके निरोध का नाम भी योग है. विस्मय में जाने से ज्ञान रोकता है. जहाँ निश्चय होता है  वहाँ विस्मय नहीं होता. जो ज्ञान अन्यों से पृथक करे, जगत से भेद कराए वह अधूरा है. उसे अद्वैत तक पहुँचना है, जहाँ दो हैं ही नहीं. मन एक होने से रोकता है, बुद्धि भेद करना सिखाती है और अहंकार हर क्षण अन्यों से श्रेष्ठ होने का आभास दिलाता है. ये सभी मन की वृत्तियाँ है जिनसे उसे मुक्त होना है. तब भीतर कोई भेद नहीं रहेगा, आत्मा के साथ मन एक हो जायेगा. उस एकता के कारण जगत के साथ विरोध भी नहीं रह जायेगा. समाहित मन अपने मूल को पा लेगा, बंटा हुआ मन हर पल स्वयं ही घायल होता है और दूसरों को भी दुखी बनाता है. योग ऐसे मन से मुक्त करता है.  
 जब भीतर सत्संग की चाह जगे, निर्मोहता बढ़े, प्रेम जगे तो मानना चाहिए कि गुरू की कृपा बरस रही है. कृष्ण कहते हैं जो चैतन्य के साथ स्वयं को जोड़ता है वह अपना मित्र है जो जड़ के साथ जोड़ता है वह अपना शत्रु है. आज टीवी पर सुना, मन ही भवसागर है और यह तन कुम्भ है, अच्छी-बुरी वृत्तियाँ ही देव व असुर हैं, मान पाने की आशा ही वह हलाहल विष है तथा समाधि ही अमृत है ! नश्वर को पाने से कोई स्वयं को बड़ा माने तो यह छोटापन है, नश्वर के खोने से कोई दुखी हो जाता है था स्वयं को छोटा मानता है तो यह भी छोटापन है. कोई दोष अपने में है यह मानने से दोष दृढ़ होता है, तो दोष कि सत्ता बढती है, उसे स्वयं में ण मानकर प्रकृति में मानना है जो परिवर्तनशील है. वह दोष भी बदलने वाला है, जो उत्पन्न हुआ है वह नष्ट होने ही वाला है. दोषों को देखना भर है, उनको स्वयं में मानना ही भूल है !  

1 comment:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, कॉल ड्राप पर मिलेगा हर्जाना - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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