सद्गुरु
कहते हैं, शरीर नौका है, जीव नाविक है, संसार एक सागर है. शरीर को ज्यादा
सुख-सुविधा देना उसमें छेद करना है. जीवन यदि छेद युक्त हुआ तो दुःख आने ही वाले
हैं, साधना छोटे-मोटे छिद्रों को दूर करती है. स्वाध्याय, सेवा, साधना, सत्संग –
ये चारों अगर साधक के जीवन में हों तो सहनशीलता बढती है, समता आती है, सहजता,
सरलता आने लगती है. इस जगत में सभी कर्मों के अधीन हैं, उन्हें जो भी मिलता है वह
कर्मों के कारण है. कर्मों से छूटना ही साधक का लक्ष्य है. आत्मा में स्थित होकर किया
गया कर्म बांधता नहीं. आत्मा पूर्ण है उसे कुछ करने को शेष नहीं है, वह जिस देह
में है उसे रखने के लिए जो कुछ आवश्यक है वह तब अपने आप होने लगता है, जब आत्मा
स्वयं को जान लेती है. जब तक देह है उससे कर्म भी होंगे, वे कर्म लोकहित में हों,
सहज हों, मन, बुद्धि में कोई दोष नहीं आये, इतना ध्यान रखना है. अपने अगले जन्म की
तैयारी भी साधक को इस जन्म में करनी है. प्रारब्ध कर्मों का फल अवश्य मिलता है पर
क्योंकि साधक कर्त्ता भाव में नहीं रहता वह भोक्ता भी नहीं होता, कर्म उस पर बिना
असर डाले समाप्त हो जाते हैं, बाहर चाहे जैसी परिस्थिति हो, भीतर आनन्द ही रहता
है.
इस जगत में लोग कितने
दुखी हैं. उस दिन छोटी बहन से फोन पर बात हुई, वह कुछ परेशान थी. इधर एक परिचित
आंटी अपनी बहू से खुश नहीं हैं. कल जिनसे मिली वे अंकल-आंटी अपने रोगों से व
बुढ़ापे से परेशान हैं. इस संसार में हर कोई किसी न किसी बात को लेकर चिंतित है.
काश उसके पास कोई जादू की छड़ी होती तो सबके दुःख दूर कर देती, सबके लिए भीतर प्रेम
उमड़ता है और ढेर सारी शुभकामनायें ! सभी के भीतर तो वही आत्मा है, सभी प्रभु के
हैं, यह सारा जगत उसका रचा खेल है, इसमें कोई भी दोषी नहीं है, उसने जैसा रचा वैसा
ही तो खेल चल रहा है. सद्गुरु के भीतर भी ऐसा ही हुआ होगा, इससे कई गुना ज्यादा
प्रेम जो बचपन से ही उन्होंने ज्ञान, प्रेम व आनन्द बांटने का प्रण कर लिया था. वह
छोटी बहन को पत्र लिख सकती है शेष सभी को अपनी बातों से कुछ दे सकती है. आज सुबह
ध्यान नहीं कर पायी, कारण था मनोराज..न जाने कहा-कहाँ के विचार आ रहे थे. तमस बढ़
गया है. सद्गुरु कहते हैं ज्ञान से, ध्यान से या प्राणायाम से तमस दूर होता है.
तमस शरीर में होता है, रजस मन में तथा सत आत्मा का गुण है. परमात्मा की कृपा उस पर
है तभी तो साधना के लिए उत्तम संयोग अपने आप प्राप्त हो गये हैं. अब यही तो
एकमात्र इच्छा रह गयी है कि ईश्वर के लिए ही उसकी हर श्वास हो, हर कार्य उसकी पूजा
हो, हर कदम उसकी प्रदक्षिणा हो, वह उसके लिए ही गाए, उसके लिए ही सब कुछ करे. उसे
कुछ भी नहीं चाहिए, वह तो पूर्ण है..पर उसे प्रेम तो अवश्य ही चाहिए और उसके सारे
कृत्यों के पीछे तो वही है !
जब कोई अपनी भावनाओं को
कोमल और मृदु बना लेता है तो वह सच्चे अर्थों में जीवन का आनन्द ले सकता है. हरेक
के पास आत्मबल का अकूत खजाना है, आत्मा से सम्पन्न हुई बुद्धि है, और मन है जिसमें
प्रभु का वास है. धैर्य रूपी रत्न और शौर्य रूपी गहने से सुसज्जित हृदय है तो यह जगत
उनके व्यवहार से और सुंदर बन सकता है. जब अपने भीतर ‘उसका’ दर्शन किसी को होता है
तो सबके भीतर भी वही दिखाई देता है, सारी सृष्टि उसी का रूप नजर आती है. उसकी
दृष्टि में कोई भेद नहीं रहता, हानि-लाभ की बात तब रहती ही नहीं, सर्वोच्च लाभ तब
वह पहले ही पा चुका होता है.
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