अणुव्रत
का अनोखा अर्थ आज सद्गुरु से सुना. ‘थोडा सा विकार यदि दिखे अपने भीतर तो उसे रहने
दो, उस पर क्रोधित न हो, थोड़ी सी कृपा मिले, बस थोडा सा आनन्द ही मिल जाये तो मन
तृप्त हो जाये, ऐसा अणुव्रत साधक के लिए उचित है’. प्रेम तभी टिकेगा जब कोई
समर्पित होगा, जब तर्क से बुद्धि से दूसरों को वश में करना चाहता है तो वह व्यवहार
में भले ही अच्छा हो पर प्रेम में आगे नहीं बढ़ सकता. स्वार्थ रहित प्रेम ही टिकता
है. मन निर्मल तभी होगा जब नेत्र जगत को ईश्वर स्वरूप ही देखे, कर्ण श्रवण करें
तथा हाथ सेवा करें और जिह्वा उस मधुर नाम का कीर्तन करे. राग-द्वेष से मुक्त हृदय,
विशाल दृष्टिकोण, मन, वचन, कर्म से किसी को दुःख न पहुँचाने का नाम ही पूजा है.
भीतर जो अमृत का घट है उसमें से अमिय बाहर भी झलके जो भीतर शीतलता प्रदान कर रहा
है. उनके भीतर जब समता रूपी स्थिरता में मन अडोल रहेगा तब किसी का भी अहित नहीं
होगा. उन्हें निरंतर साधना के पथ पर आगे ही आगे बढना है, न किसी में अटकना है, न
खंडन करना है. उस हरि की ओर ही उनकी दृष्टि लगी रहे, आत्मा का विकास हो, वह अपने
पूर्ण रूप को प्राप्त हो तभी उनके द्वारा जग में शीतलता का प्रसार होगा !
“लोभी व्यक्ति कभी संतुष्ट नहीं
रहता, जिसे कुछ भी नहीं चाहिए उसे सारे संसार का वैभव मिलता है, सारा ब्रह्मांड
उसका हो जाता है. वस्तुओं की इच्छा करके वे मूर्ख ही बनते हैं क्योंकि इच्छा तभी
पूर्ण होती है जब वह समाप्त हो जाये, पूरी हो अथवा न उसे तो मरना ही है”. आज नीरू माँ के सुंदर वचन सुने, ज्ञानी का साथ
उन्हें मिला और वे मुक्त हो गयी हैं जीते जी, जैसे उसके सद्गुरु हुए हैं, उन्हें
भी संतों का संग मिला, उनके पूर्व जन्म के कृत्य भी थे. उसके भीतर अहंकार अभी बहुत
है, इस बात का अहंकार कि उसे परमात्मा का आनन्द मिला है, पर स्वयं को इस बात के
लिए श्रेष्ठ मानना कितनी बड़ी मूर्खता है, क्योंकि आत्मा तो सभी का आनन्द का स्रोत
है. यदि उसे आनन्द मिल रहा है तो इसमें उसका क्या गुण, यह तो उसका स्वभाव ही है.
मन, बुद्धि तथा संस्कार तो आत्मा के प्रकाश से ही प्रकाशते हैं तो जिसे अभिमान हो
रहा है वह है कौन ? आत्मा तो देखने व जानने वाला है, यानि अहंकार अभी भी बचा हुआ
है, उससे मुक्त होना है. सद्गुरु कहते हैं थोड़ा सा अहंकार रहे तो भी कोई हर्ज नहीं
!
आज उसने भक्ति के बारे
में गुरूजी से सुना. जब हृदय अस्तित्त्व के प्रति प्रेम से भर जाता है तब ही मानना
चाहिए कि भक्ति का उदय हुआ है. यह सारी प्रकृति उसी का रूप है जो उन्हें दिन-रात आनंदित
करने की चेष्टा करता है, वह स्वयं आनन्द पूर्ण है और आनन्द ही बिखेर रहा है, लेकिन
वे अपने बनाये दुःख में इतने मगन हैं कि उसकी ओर दृष्टि ही नहीं करते, दुःख भी
सम्भवतः इसलिए आते हैं कि उनसे उकताकर उसे देखें पर उनकी मूढ़ता की कोई सीमा नहीं
है, वे दुःख में ही सुख ढूँढ़ लेते हैं. एक अजीब सी बेहोशी में सारा जगत डूबा हुआ
है, चेत कर देखता भी नहीं कि असल में समस्या कहाँ पर है. उसे लगता है हर किसी के
जगने का भी क्षण जैसे प्रकृति ने नियत कर रखा है क्योंकि कोई कब और कैसे जगेगा कोई
नहीं बता सकता. सद्गुरु कहते हैं कि इस तरह आते-जाते उन्होंने अनंत जन्म दिन बिता
दिए हैं. अनंत की बात आने पर लगता है यह सारा भी एक खेल है उस लीलाधारी का. उसे
स्वयं ही प्रेरणा होती है, दूसरों को दुःख में देखकर उन्हें उपाय बताये पर ज्यादातर
वे व्यर्थ ही जाते हैं, उन्हें उपायों में कोई दिलचस्पी नहीं है, उनके लिए उनकी
समस्या ही प्रमुख है.
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