Wednesday, January 21, 2015

जीवन के पुरुषार्थ


आत्म समर्पण किये बिना मुक्ति नहीं ! अहंकार का त्याग कर ध्यान में बैठे तो कोई अपने कोमल स्पर्श से मन को शांत करता है. सारा ताप हर लेता है फिर उसे स्वच्छ करते हुए निर्दोष और सात्विक भावों से भर देता है, जो सबकी पीड़ा हर लेना चाहता है, सबको क्षमा कर देना चाहता है ! सांसारिक कार्य-व्यापार, उपलब्धियां, सांसारिक सुख तब अर्थहीन हो जाते हैं. मन किसी और दुनिया में पहुंच जाता है. जहाँ कोई कामना नहीं, कोई इच्छा नहीं, मात्र शांति और संतोष का साम्राज्य होता है ! यदि कोई इस शांति का भी उपभोग नहीं करता, उससे संतुष्ट होकर नहीं बैठ जाता तो अंत में मंजिल को पा लेता है !
आज ‘जागरण’ में सुना, संसार रूपी सागर में पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए उस बंदरगाह की तरह है जो तूफान में घिरे जहाज का आश्रय होता है. आज जून और उसके विवाह की वर्षगाँठ है. सुबह-सुबह जून ने उसे शुभकामना दी, फिर ससुराल से फोन आया. पिता ने शुभाशीष दी तो मन उनके प्रति कृतज्ञता से भर गया. सखियों, भाई-बहनों, सभी का फोन आया. परिवारजनों की शुभकामनाएँ पाकर मन खिल उठता है. ईश्वर के प्रति भी मन झुक जाता है कि उसे जून जैसे जीवनसाथी से मिलाया. वे दोनों इस समय एक-दूसरे के मन, भावों और विचारों में पूरी तरह समा गये हैं. हृदय में ईश्वर भक्ति हो तो सारे संबंध मधुर हो जाते हैं और जून उसके सहायक हैं हर क्षेत्र में. वह ही अपने आप में मग्न रहकर कभी न कभी उनकी उपेक्षा( अनजाने में) कर जाती है पर उनका एकनिष्ठ प्रेम उसे अनवरत प्राप्त होता रहता है.

सारी सृष्टि उसी एक का विस्तार है, एक को चाहो तो सब कुछ अपने आप ही मिल जाता है, लेकिन उस एक को पाना जितना सरल है उतना ही कठिन भी. उसका माधुर्य जीवन के पुरुषार्थ से ही मिल सकता है. जब मन झुक जाता है तभी वह अंतर में प्रवेश करता है और तब उसे याद नहीं करना पड़ता जीवन का मार्ग मधुमय हो जाता है. हर दुःख उसका प्रसाद प्रतीत होता है और हर सुख उसकी कृपा ! वह जो स्वयं रस का सागर है, प्रेम का प्रतिरूप है, ऐसा वह कृष्ण जिसके जीवन में हो उसे धरती पर ही स्वर्ग का सुख मिल जाता है. उसकी मोहक छवि, उसकी बांसुरी का मधुर स्वर, आँखों का अथाह स्नेह और मधुर वचन सभी तो ऐसे उपहार हैं जिनको पाने के लिए मन एक क्षण में संसार को त्याग देगा !   

कल उसने ‘महासमर’ के सारे उपलब्ध भाग पढ़ लिए. अभी भी कथा पूरी नहीं हुई है, युद्ध जारी है, जैसे युद्ध मानवों के मनों में निरंतर चलता रहता है जब तक वे ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पित नहीं हो जाते. लेकिन उस समर्पण के बाद गुरूमाँ के शब्दों में हृदय में एक पीड़ा का जन्म होता है जो उसके वियोग की पीड़ा है और अधरों पर एक रहस्यमयी मुस्कान का जन्म होता है जो उसके सान्निध्य में हर पल रहने के कारण उत्पन्न होती है, ऊपर से देखें तो विरोधाभास होता है पर जो इस स्थिति तक पहुंच चुका है उसके लिए सारे पर्दे खुल चुके होते हैं, सत्य प्रकट हो चुका होता है और उसका सत्य है कि कृष्ण उसके जीवन के आधार हैं. मात्र वही तो हैं जो चारों ओर विस्तारित हो रहे हैं फिर उनकी बनायी इस सृष्टि में किसी से कैसा विरोध. सभी की प्रकृति उनके अपने-अपने गुणों के अनुसार काम करवाती है. यह सारा चक्र उसी के इशारे पर तो चल रहा है. उनकी सीमा कर्म करने तक की भी नहीं है क्यों कि अपने स्वभाव के वशीभूत होकर वे कार्य करते हैं यदि अपने स्वभाव को परिवर्तित करने की क्षमता कोई पाले तो आत्मा का विकास सम्भव है अर्थात जीवन का विकास ! उसके लिए स्वाध्याय, सजगता, सात्विकता का पालन करना होगा, क्यों कि ईश्वर का निवास पवित्र हृदयों में ही तो है !




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