Wednesday, January 7, 2015

दीवाली का उजास


बाबाजी कहते हैं, साधक का परम लक्ष्य स्वयं के केंद्र तक पहुँचना है, बाहर के खेलों में उलझना नहीं, जितना-जितना वे ध्यानस्थ होते जाते हैं उतना-उतना ईश्वर के प्रेम के अधिकारी बनते जाते हैं. पंचभूतों से निर्मित देह धीरे-धीरे उन्हीं में विलीन होता जाता है पर जीवात्मा परमात्मा का अंश है, जो शाश्वत है, ज्ञान और प्रेम स्वरूप है. दीवाली हो या कोई अन्य त्योहार, सारे पर्व उसी शाश्वत स्वरूप की याद दिलाने आते हैं. एक रस जीवन जीते-जीते कभी-कभी उदासीनता का भाव आने लगता है, सत्, चित्, आनंद से उत्पन्न हुए वे त्याग के द्वारा पर्वों पर अपने आप से जुड़ते हैं. स्वच्छता, दीप जलाना, नई वस्तु लाना और सभी के साथ भोजन करने का अर्थ है अपने हृदय को स्वच्छ करना, ज्ञान का दीपक जलाना और प्रेम का प्रसाद बांटना ! मूल को पाने का संकल्प दिन-प्रतिदिन दृढ़ होता जाये यही प्रार्थना उत्सव पर करनी है ! छोटी ननद ने बताया उनके शहर में बाबाजी आये हैं. वे लोग गये थे, ननदोई जी ने चार दिन सेवा की. संत के दर्शन सदा हितकारी होते हैं. उस दिन गोहाटी में गुरूजी की वह प्रेमिल दृष्टि उसे कभी नहीं भूलेगी. उस दृष्टि में उनका आशीष था जो ईश्वर उसके अंतर में अपनी झलक दिखाते हैं ! कल ध्यान में एक नया अनुभव हुआ उसके सिर के ऊपरी भाग में अद्भुत शीतलता का अहसास हुआ, सिर में आवाजों का आना भी जारी है.

कल दीवाली का उत्सव सम्पन्न हो गया, उनके यहाँ बहुत लोग आये, भोजन साथ-साथ किया. तीनों सखियाँ कुछ बनाकर भी लायी थीं. आज मौसम खुशनुमा है. टीवी पर आत्मा आ रहा है, वाचक ईश्वर के अभय रहने के संदेश का वर्णन कर रहा है. आज म्यूजिक सर भी आयेंगे. उन्हें दिगबोई भी जाना है, नन्हे के अध्यापकों से मिलना है. उसकी पढ़ाई जिस जोश से चलनी चाहिए थी वह दीख नहीं रहा है. अभी कुछ देर पूर्व योग शिक्षक का फोन आया गेस्ट हॉउस से, वह तेजपुर की उन वृद्धा साधिका से बात करना चाहते थे. वे उन्हें माँ की तरह मानते हैं बल्कि माँ ही मानते हैं. आज वे उनके यहाँ आ रहे हैं दोपहर को. उसे चने की दाल, पालक पनीर, शिमला मिर्च, गोभी का परांठा और कुछ मीठा बनाना है.

बुद्धि का फल अनाग्रह है, कभी भी तर्क आदि के द्वारा अपनी बात को ऊपर करना स्वयं को साधना के पथ से विचलित करना है, यदि वह गलत है तो दूसरे का आभारी होना चाहिए और यदि वह सही भी है तो निंदा से दुखी नहीं होना होना चाहिए. कल दोपहर को योग शिक्षक उनके यहाँ आये, उन्हें भोजन पसंद भी आया, तारीफ़ करने में वह संकोच नहीं करते. कल शाम वे क्लब गये, योग का छोटा का कार्यक्रम था, उनकी बातें मन को छू लेती हैं. कल शाम से ही उसका मन भावातीत अवस्था में है. ईश्वर जैसे कहीं निकट ही हैं. अधर मुस्काते–मुस्काते थक गये हैं पर रुक नहीं रहे हैं, वैसे भी एक बार ईश्वर को मन में स्थान मिल जाये तो वह उसे छोड़ता नहीं है. वे ही इतर कार्यों में व्यस्त होकर उसे भूल जाते हैं. ईश्वर प्रेम, शांति और आनंद स्वरूप है, और इस वक्त प्रेम, शांति और आनंद की फुहार उसके अंतर में बरस रही है. ज्ञान से अभी दूर है लेकिन जब हृदय प्रेम से लबालब भरा हो तो और किसी के लिए स्थान कहाँ रह जाता है. बुद्धि यदि आत्मा से जुड़ी हो यानि धैर्ययुक्त हो तो मन अज्ञानी नहीं रह जाता. ‘नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात’ ! अभी-अभी एक सखी से बात की, उसके पति इस बात के खिलाफ हैं कि कोई उनके यहाँ कुछ बनाकर ले जाये, एक दूसरी सखी से उसकी इस बारे में बहस भी हो गयी. वे जीवन को कितना जटिल बना लेते हैं जबकि वह कितना सरल है. जीवन में ईश्वर का ज्ञान हो तो जीना आसान हो जाता है. अपने मन के विकारों को लम्बी छुट्टी पर भेजना होगा तब चित्त में कृष्ण होंगे, कृष्ण जो उनके नितांत अपने हैं !  




2 comments:

  1. सुना है परमात्मा एक बार बन्दों की नित नवीन मांगों से परेशान होकर छिपने की जगह ढूँढने लगा. लेकिन उसे यह सन्देह हुआ कि वो कहीं भी छिपे, लोग उसे ढूँढ ही लेंगे. अंत में उसने निर्णय लिया कि सबसे महफ़ूज़ जगह है हर बन्दे का दिल. परमात्मा वहीं जाकर छिप गया. कहते हैं तब से बन्दा परमात्मा को बाहर बाहर ढूँढता फिरता है ताकि अपनी शिकायत कर सके. लेकिन अपने मन के अन्दर कोई नहीं झाँककर देखता.
    जो वहाँ झाँककर देखता है, उसकी तमाम शिकायतें अपने आप समाप्त हो जाती हैं!

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  2. बिलकुल सही कहा है आपने...स्वागत व आभार !

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