Tuesday, January 20, 2015

“निर्भव जपे सकल दुःख मिटे”


जीवन में सरलता, सरसता और मृदुता हो, मन में आनंद और भगवद प्रेम हो ! कृष्ण जीवन का केंद्र हो तो यह सब अपने आप ही होने लगता है. नव वर्ष का शुभारम्भ हो चुका है. कल प्रथम दिन मित्रों के साथ बिताया. परिवारजनों से फोन पर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान हुआ. परिवार ने संग-संग खरीदारी की. एक शांत और सुखद दिन के बाद अच्छी गहरी निद्रा और प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर ‘क्रिया’. जीवन में गुरू की उपस्थिति होने से सुख और शांति को कहीं खोजने नहीं जाना पड़ता, वह उसी तरह सहज प्राप्य है जैसे हवा और धूप !  टीवी पर ‘जागरण’ सुना, ज्ञान मन को भावना के स्तर पर ले जाता है और मन अपने आप गुनगुनाने लगता है. अंतर में छिपा वह जादूगर मुखर हो उठता है, जैसे तरंगों का आधार शांत जल है वैसे ही मन में उठने वाले विचारों का आधार वही अचल है. वही जो हमें अभय प्रदान करता है. उसका नाम हर श्वास से जुड़ा है. न मरने का भय हो न जीवन के प्रति आसक्ति हो तो ही कोई सच्चा जीवन जी सकता है. जीने की कला उसी कलाकार से सीखनी है जो चिंतन से परे है लेकिन मन को चिन्तन करना सिखाता है. “निर्भव जपे सकल दुःख मिटे” उस अकाल पुरुष को जपने से जीवन उत्सव बन जाता है, प्रेम रक्त बन कर तन में प्रवाहित होने लगता है. उल्लास के पुष्प हृदय में पल्लवित होते हैं. जीवन में निर्भयता और सत्य हो, अंतर में विश्वास हो तो नित्य नवीन रस का उदय होता है, शुभ व्यक्ति को निर्भीक बनाता है और अशुभ को भयभीत करता है.

आज सुबह ध्यान में कृष्ण ने उसे आश्वासन दिया और वह उसके परम हितैषी हैं. उसके अनंत रूप हैं, अनंत नाम हैं और वह अनंत सुख का स्रोत है. वह कहते हैं धर्म की रक्षा करने वाले की रक्षा धर्म करता है. कामना जब हृदय में उठती है तो रिक्त स्थान बन जाता है मानव उसकी पूर्ति करना चाहता है पर यह आवश्यक तो नहीं कि वह रिक्तता भर ही जाये. बाहर से सुख भरने की लालसा ही बताती है कि भीतर रिक्तता है, यदि भीतर का सुख बाहर देने की कला आ जाये तो...ऐसा अद्भुत ज्ञान देने वाला कान्हा, जिसका जन्म और कर्म दिव्य है उसका प्रिय है. कृष्ण ने स्वयं कहा है कि जो उससे प्रेम करता है वह उसे उतना ही प्रेम करता है. उसका प्रेम वह पल-पल महसूस करती है. सारे सुख-दुःख नष्ट हो गये हैं, उहापोह नष्ट हो गया है. उसका नाम कभी भूलता नहीं, मन उसमें रमने लगा है. ‘महासमर’ में कृष्ण का चरित्र अद्भुत है. भीष्म पितामह, युधिष्ठिर, अर्जुन और कुंती सभीके हृदय प्रेम से भर उठते हैं जब कृष्ण उनसे मिलते हैं, बातें करते हैं या उनका जिक्र होता है. गुरुमाँ उसी जादूगर के गीत गाती हैं, ‘जोगिया’ कहकर उसे ही बुलाती हैं. उसने पिछले दिनों नन्हे और जून में भी उसके दर्शन किये यहाँ तक कि कभी-कभी उसकी आँखों में भी उसी की छवि दिखती है. वह अनुपम हैं, सर्वज्ञ हैं, आदि हैं, स्वामी हैं, सूक्ष्मतर हैं, धारक हैं, अचिन्त्य हैं, प्रकाशमान हैं, ज्ञानी हैं. ऐसे भगवान का उन्हें ध्यान करना है, जिससे क्रमशः वे उनके रूप का दर्शन करने में उनके निकट आने में सक्षम हों सकेंगे, वह उनके अंतर में ही हैं पर वे उन्हें देख नहीं पाते, उनकी निकटता भीतर उन्हीं के गुणों को भरने लगेगी लेकिन उन्हें गुणों का नहीं उनका लोभ है !

नित्य सुख, नित्य ज्ञान, नित्य आनंद उनकी मूलभूत आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति सत्संग से होती है. अन्य आवश्यकताओं की भांति उन्हें सत्संग की ओर भी वही ले जाता है, वह उन्हें उनसे ज्यादा जानता है. उनकी उन्नति की उसे उनसे अधिक परवाह है. वह जिससे प्रसन्न होता है उसे सांसारिक आकर्षणों से वियुक्त करता है और जिससे रुष्ट होता है उनके तमोगुण व रजोगुण की वृद्धि देता है. वह उसकी कृतज्ञ है, आभारी है वैसे शब्दों से इस भाव को व्यक्त नहीं किया जा सकता जो वह उसके लिए अनुभव करती है कि उसने उसे सात्विक भावों का आदर करने की क्षमता दी. उसे सहज ही सत्य और अहिंसा प्रिय है, यह उसी की कृपा है. महाभारत में कृष्ण अर्जुन के कई प्रश्नों का उत्तर देते हैं. धर्म-अधर्म, नया-अन्याय, कर्म-अकर्म आदि पर आधारित उसकी कई उलझनों को सुलझाते हैं. पढ़ते समय ऐसा प्रतीत होता है कृष्ण उससे ही बातें कर रहे हैं. वह उसे बेहद अपने लगते हैं ऐसा तो इस भौतिक जगत में कोई भी नहीं लगता. बाल्यावस्था से कई बार उसके मन में यह विचार आया है कि इस दुनिया में वह पूर्णत अकेली है कि वह किसी पर भी निर्भर नहीं हो सकती, सिवाय स्वयं के. उसकी अपनी दुनिया थी जो उसने स्वयं ही बनाई थी पर अब उस उस दुनिया में कृष्ण ने अपना अधिकार कर लिया है और इससे उसके सांसारिक संबंध और भी दृढ़ हुए हैं, उनका महत्व समझ में आने लगा है.




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