आज उस सखी के यहाँ
सत्यनारायण भगवान की कथा का आयोजन किया गया है. उन्हें वहाँ नौ बजे के बाद पहुंचना
है. कल शाम उस समस्याग्रस्त सखी का फोन आया, उसके घर में सुलह होने की शुरुआत तो
हुई है. गुरूजी की वह कृतज्ञ है, उन्हीं की कृपा से यह चमत्कार ( उसी के शब्दों
में ) हुआ है. उसकी भी सारी उलझनों को गुरू की स्मृति एक चुटकी में दूर कर देती
है. भक्त के लिए भगवान सदैव तत्पर है, वह आने में एक क्षण भी नहीं लगाता. भगवान के
लिए प्रेम ही परमधर्म है. अपने अंतर में छिपे प्रेम को प्रकट करना है. इस प्रेम को
प्रकट करने में गुरू सहायक है. उसका अर्थ ही है जो अज्ञान को दूर करे, क्योंकि वह
स्वयं मुक्त है, वही मुक्त कर सकता है. जो स्वयं बंधा हो वह क्या मुक्त करेगा.
सद्गुरु को सुबह-शाम वह एक ज्योति के रूप में अपने साथ पाती है. शास्त्र माँ है और
गुरू पिता है, उनकी शरण में आकर ही कोई द्विज होता है. दूसरा जन्म पाता है. ज्ञान
का अभ्यास करने से और सेवा करने से ही कोई ज्ञान का अधिकारी बनता है. सतोगुण से
ऊपर शुद्ध सतोगुण में स्थित होना है.
उसे लगता है सुख-दुःख मान्यता और कल्पना के आधार पर होता है. सुख-दुख को सच्चा
मानना ईश्वर को सच्चा न मानना है. मन एक वृत्ति है, सागर की तरंग की तरह, वही
सुख-दुःख का अनुभव करता है. है कुछ भी नहीं पर अनादि कल से वे इससे बंधे जा रहे
हैं. अज्ञान का आधार तो मन ही है, मन की दीवारें गिर जाएँ तो यह अज्ञान उसी तरह
लुप्त हो जायेगा जैसे अँधेरे कमरे की दीवारें गिर जाने पर वहाँ अंधेरा नहीं टिकता.
या फिर मन एक चलते-फिरते रस्ते की तरह है जिस पर तरह-तरह के लोग हर समय चलते रहते
हैं, यदि वह इनसे नाता न रखे और किसी भी वृत्ति का आग्रह न करे तो ही अविचलित
रहेगी. आत्मा सभी को स्पर्श करते हुए भी किसी को स्पर्श नहीं करता, जैसे सूर्य की
किरणें छूती हुई भी किसी को भी नहीं छूतीं. मन को भी आत्मा सा मुक्त होना सीखना
होगा. निस्सीम गगन सा मुक्त, अनंत ब्रह्मांड सा मुक्त और पवन सा मुक्त..इसी मुक्ति
को तो मोक्ष कहा गया है और यह मुक्ति पल भर को भी मिले तो भी अमूल्य है. जैसे बादल
की सत्ता सूर्य से है पर बादल सूर्य को ढक लेते हैं वैसे ही आत्मा की सत्ता से से
ही अज्ञान की सत्ता है. मृग-मरीचिका ही अज्ञान है, जो है ही नहीं उसके पीछे दौड़ते
रहना ही तो अज्ञान है.
कल शाम उसे कुछ आवाजें जैसे दूर से बजते ढोल की आवाज सुनाई दे रही थी, कभी
किसी वाद्य की आवाज, पर बाद में नींद आ गयी. कल शाम से ही जून कुछ चुप-चुप थे पर
आज सुबह उन्होंने साथ-साथ क्रिया की और दफ्तर जाते वक्त वह सामान्य थे. दीदी को
फोन किया वे लोग स्वयं भी नर्सिंग होम के मामले को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं. उसे
याद आया, छोटी बुआ को पत्र लिखना है. टीवी पर आत्मा में जीवन की गुत्थियों को
सुलझाने वाली भगवद गीता का पाठ आ रहा है. ईश्वर हर वक्त उसके निकट हैं. तीनों
गुणों से परे अत्रि और सूया से परे अनसूया के पास वे बिन बुलाये ही चले जाते हैं.
दस बजे हैं, अभी विचार आया कि एक परिचिता से किये वादे को निभाने के लिए उनके
यहाँ जाये. उनका बगीचा देखा, जगह ज्यादा है पर सूझ-बुझ से उसका उपयोग हुआ हो ऐसा
नहीं लगता, खैर, वापस आयी तो लंच का समय होने ही वाला था. जून के दफ्तर जाने के
बाद संगीत का अभ्यास किया, नये शिक्षक के सिखाने का तरीका बिलकुल अलग है और शुल्क
भी तिगुना. पर संगीत को पैसों से नहीं तोला जा सकता. परसों शाम को तेजपुर की
साधिका का फोन आया. योग शिक्षक तेजपुर में आ चुके होंगे. आज सुबह जागरण में सुना, आसक्ति ही मानव को बांधती है.
वास्तव में वह मुक्त है. अनंत शक्ति का भंडार है, लेकिन असली रूप को भुला बैठा है.
उस दिन उसे अंतरतम की झलक मिली थी, अतिशय आनंद की अनुभूति हुई थी. वही आनंद थोडा थोड़ा
करके रोज रिसता है और उसके अंतर को हरा-भरा रखता है.
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